अजनबी सी नगरी

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  द्रिन्द्गी की

मैली सी चादर औडे,

अजनबी सी नगरी की

पहचान बन कर

कुछ इंसान बहुत याद आते हैं. !

वतन मानो

बाप दादा की हो जागीर 

बर्बाद जिंदगी में

सफ़र के पल

और कुछ कारवाँ

बहुत याद आते है !

काँटों सी चुबन

बिखरी राहों के

कुछ मुकाम

बहुत याद आते हैं !

मकडीयों की तरह

कुछ जाल बुनते

वो शैतान

बहुत याद आते हैं !

उनके शहर-ए-चमन में

टहलेते उनकी

नाराजगी के बाण

बहुत याद आते हैं !

दोस्त खुद से

रूठून कैसे

तेरे झूठ के फरमान

बहुत याद आते हैं !~ मोहन आलोक 

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