
पर न अपनी भावना को
हर्ष इन अनुभवों को !
शब्द का परिधान दे कर
व्यक्त कर पाता कभी हूँ !!
कोनसा वह दृश्य ऐसा
जो न हर्षाता मुझे है !
कोनसा संगीत ऐसा
जो न करता मगन मन को !!
शक्ति यदि वाणी में होती
तो जगत पीड़ा भगाता !
काव्य की धारा बन कर
मोद उर का मै बहाता !!
मधुरतम इन अनुभवों को
चाहता हूँ व्यक्त करना !
विश्व का सोंद्रय सारा
इन पदों में पुनह भरना !!
विहग- गण के मधुर कलरव
जो सुधा धारा बहाते !
ह्रदय मेरे में सभी तो
मधुरम- संचार कराते !!
प्रातः की मुस्कान उज्जवल
चंद्रमा का हाल नीरव !
उड्रू- गणों के मधुर चितवन
काननो के दृश्य अनुपम !!
ये प्रकृति के नव इशारे
रम्य बहुविन्ध दृश्य सारे !
हैं उठाते मेरे मन में
हर्ष की उड़ंग लहरें !!
भावनाएं हैं मचलती
कल्पनायें भी थिरकती !
पर ना पाकर शब्द अम्बर
लींन होती हृदय ही में !!
आज यह उद्दार मेरे,
व्यक्त हो पाते नहीं हैं !
फूट पड़ते हैं ह्रदय से,
पर ना होंठो तक पहुंचते
– मेहता वसिष्ठ