दासता से है युगों की देश ने अब मुक्ति पाई अब न मेरे देश का धन भूखे किसानो से छिनेगा द्वेष मिट जाये यहाँ से कलेश कूट जाये यहाँ से सब सुख समृधि होवे सवर्ग ले आयें धरा पर !
मैं न हूंगा, पर रहेंगे गीत मेरे ! एक दिन यह देह मेरी, ख़ाक का एक ढेर धूल ही रहे गी, या रहेंगे गीत मेरे ! राख मेरी को हवाएँ, ले दिशाओं में उर्ढ़ेंगी हडिओं को नदी की धार सहसा ले बहेगी स्नेहिओं के हर्दयिओन में भी, याद धुंधली पड़ जायेगी __ मेहता वसिष्ठ
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