ये ऋषि भृगु वंश में उत्पन्न महाकवि मर्क या मृकंड के पुत्र थे। मर्क उपनस शुक्र का पुत्र था। शुक्र के सारे वंशज दानव या अनार्य लोगों के साथ सम्बन्ध करने के लिए नष्ट हुए। केवल मर्क के पुत्र मार्कण्डेय भृगु कुल के प्रसिद्ध गोत्रकार बनें। मार्कण्डेय दीर्घ जीवी और अमर थे ये अल्पायु माने जाते थे। लगभग 6 मास का होने पर सप्तर्षियों और ब्रह्मा ने इसे दीर्घायु प्राप्त करने का आदेश दिया। ब्रह्मा ने इसे ऋषि श्रेष्ठत्व और पुराण रचने का घर दिया। पांचवे वर्ष में इनका उपनयन हुआ। सप्तर्षियों ने इन्हें दण्ड और यज्ञोपवीत दिया। इन्होंने अपना आश्रम स्थापित किया, जिसकी जानकारी पुलस्त्य ने राम को दी। इनका आश्रम शाहाबाद (हरियाणा) में भी हैं। तपस्या : ऋषि मार्कण्डेय ने घोर तपस्या की इन्द्र ने इनकी तपस्या में विघ्न डालने की कोशिश की। उसने बसन्त ऋतु का निर्माण कर अप्सराओं एवं गंधवों के साथ कामदेव को भेजा परन्तु इन पर उनका कोई दुष्प्रभाव न पड़ा। इसकी तपस्या से प्रसन्न होकर नर-नारायण ब्रह्म तथा शंकर ने इन्हें दर्शन दिया “तुम्हारी सारी इच्छाएं पूर्ण होगी। तुम्हें अविच्छिन्न यश प्राप्त होगा। तुम त्रिकालदर्शी होगे। तुम्हें आत्मानात्मा विचार का सम्यक ज्ञान होगा। तुम श्रेष्ठ पुराण पुरन्दर कर्ता होकर कल्प समाप्ति तक अजर और अमर होंगे। तुम चौदह कल्प आयु भोगोगे” ये ब्रह्मा जी के पुष्कर क्षेत्र में हुए यज्ञ में उपस्थित थे। ब्रह्मा को छोड़ संसार में इनसे अधिक आयु भोगने वाला कोई अन्य व्यक्ति नहीं था। इन्होंने अपनी चित्तवृत्तियों का विरोध कर लोकगुरु ब्रह्मा की कृपा से मरीचि आदि प्रजापतियों को भी जीत लिया था। मार्कण्डेय ने सर्व व्यापक पर ब्रह्म की उपलब्धि के लिए, स्थानभूत हृदय कमल की कर्णिका का यौगिक कला से उद्घाटन किया था और वैराग्य तथा अभ्यास से प्राप्त हुए दिव्य दृष्टि के द्वारा विश्व रचयिता भगवान का दर्शन किया था। मृत्यु और जरा इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे। पाण्डवों के समय भी एक मार्कण्डेय ऋषि हुआ है। यह ऋषि मार्कण्डेय ऋषि का वंशज होगा। मय सभा में पाण्डवों ने प्रवेश किया तो वहां मार्कण्डेय उपस्थित था। ब्रह्म सभा में जब पाण्डव गए, तो वहां भी उपस्थित था। युधिष्ठिर मार्कण्डेय के आश्रम में गया तो लोगश ऋषि ने इसका चरित्र सुनाया था। युधिष्ठिर वनवास के समय इसे मिलने गया, यहीं श्रीकृष्ण भी थे। उसने युधिष्ठिर को धर्म उपदेश दिया। प्रयाग क्षेत्र का माहात्म्य बताया। ऋषियों सम्बंधी उपदेशात्मक कथाएं सुनाई। राम का उपाख्यान व सती-सावित्री का चरित्र सुनायां इसने धृतराष्ट्र को त्रिपुरवध की कथा सुनाई। शर शय्या पर पड़े भीष्म को मिलने अन्य ऋषियों के साथ गया। भीष्म के प्रयाण काल के समय भी यह उपस्थित था। इसने नारद से कई प्रश्न किए उसने मार्कण्डय को आर्य धर्म के बारे में बताया। युधिष्ठिर ने महाप्रस्थान के समय अन्य ऋषियों के साथ इसका भी पूजन किया। महाभारत काल में मार्कण्डेय अत्यन्त विख्यात हो गया था इसका अत्यधिक सम्मान था। विचारधारा में युधिष्ठिर आदि ज्ञानी भी प्रभावित थे। ग्रन्थ : मार्कo स्मृति, मा० संहिता, मा० स्तोत्र, और तामस पुराणों में मार्कण्डेय और वाराह पुराणों की रचना की। परिवार-पत्नी धूमोर्णा और पुत्र वेद शिरस् था आश्रम – हिमालय के उत्तर भाग में पुष्प भद्रा नदी के तट पर चित्रा नामक शिला के पास था। वही पर इसने उग्र तपस्या की। मार्क राजा दशरथ के उप ऋत्विजों में से एक था। राम के आठ धर्म शास्त्रियों में से एक था। सीता स्वयंवर के समय राम के साथ मिथिला गया था। सम्भवतः मार्क० इन ऋषियों का पैतृक नाम थां। व्यास की ऋक् शिष्य परम्परा में इन्द्रमति का शिष्य था। कई पुराणों में इसे मांडुकेय पाठ भेद मिलता है। मार्कण्डेय पुराण में विशेष रूप से मार्कण्डेय और जैमिनि नामक ऋषि के बीच एक संवाद शामिल है, और भागवत पुराण में कई अध्याय उनकी बातचीत और प्रार्थना के लिए समर्पित हैं। महाभारत में भी उनका उल्लेख है। मार्कण्डेय सभी मुख्यधारा की हिंदू परंपराओं के भीतर आदरणीय हैं ! सुमन्तु : यह व्यास की अथर्ववेद शिष्य परम्परा में थे। सुमन्तु जैमिनी ऋषि के पुत्र थे इनके शिष्यों में कर्बध नामक शिष्य प्रमुख था। इन्होंने शंतनीक शिष्य को भागवत और भविष्य पुराण की कथा सुनाई। शर शय्या पर पड़ेनीष्म को मिलने भी ये गए थे एक स्मृतिकार सुमन्तु ऋषि भी हुए है। इन्होंने ब्रह्मा हत्या, मा. यपान, सुवर्ण का अपहरण, पर दारा गमन, गो हत्या आदि विषयों पर विवेचना की है। सुन्चन नामक आचार्य के ये पिता थे। सुमन्तु ऋषी वेदव्यास के शिष्य थे, ज़िन्हों ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु मुनि को पढ़ाया था। प्रारम्भावस्था में वेद केवल एक ही था; एक ही वेद में अनेकों ऋचाएँ थीं, जो “वेद-सूत्र” कहलाते थे; वेद में यज्ञ-विधि का वर्णन है और गाने योग्य, पदावलियाँ है तथा अनेक छन्द हैं। इन समस्त विषयों से सम्पन्न एक ही वेद सत्युग और त्रेतायुग तक रहा, द्वापरयुग में महर्षि कृष्णद्वैपायन ने वेद को चार भागों में विभक्त किया। इस कारण महर्षि कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। संस्कृत में विभाग को “व्यास“ कहते हैं, अतः वेदों का व्यास करने के कारण कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। महर्षि व्यास के पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु- यह चार शिष्य थे। महर्षि व्यास ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्पायन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी। महर्षि व्यास के शिष्य पैल के अतिरिक्त भी दो पैल नामक व्यक्तियों का उल्लेख भी मिलता है !
Rishi Markandeya. This sage was the son of a great poet Murk or Mrikand, born in the Bhrigu dynasty. Murk Upanus was the son of Venus. All the descendants of Shukra were destroyed for associating with demons. Only Markandeya, the son of Murk, became the famous gotrakar of the Bhrigu clan. Markandeya was long lived and immortal, he was considered short lived. When he was about six months old, the Saptarishis and Brahma ordered him, to attain longevity. Brahma facilitated him the house of sage excellence. His upanayana took place in the fifth year. The Saptrishis gifted him, a sacrificial fire. He established his ashram, which was informed by Pulastya to Ram. His ashram is also in Shahabad (Haryana). Tapasya: Sage Markandeya did severe tapasya. Indra tried to disturb him. He created a spring season and sent Kamdev along with Apsaras and Gandharvs to him. But they couldn’t make any impact on the meditating Rishi. Pleased with his tapasya, Nar-Narayan Brahma and Shankar appeared before him and blessed him saying that “All your wishes shall get fulfilled. You will get uninterrupted fame, throughout the world. You will be Trikaldarshi (Far). You shall have proper knowledge of Antra-atma (Divine-Soul). You being the best Purandar Karta, (Active performer) you shall remain immortal till the end of the life cycle. You will be immortal. You will enjoy the age of fourteen kalpas” The sage was present in the Yagya performed in Pushkar area of Brahma ji. Except Brahma, there was no other person in the world, who lived longer than him. He had won over the Prajapatis like Marichi etc. by the grace of Lokguru Brahma by opposing his mind. Markandeya, for the attainment of the all-pervasive Brahman, inaugurated the karnika of the lotus of the heart situated in the heart with yogic art and saw the creator of the universe through his divine vision, obtained through his passion and practice. Death and old age could do nothing to it. This is pertinent to mention here that there was a sage Markandeya even during the time of Pandavas. This sage would be a descendant of Markandeya sage. When the Pandavas joined a royal meeting, Markandeya was present there. When the Pandavas went to the Brahm Sabha, he was also present there. When Yudhishthira went to Markandeya’s hermitage, Logash Rishi narrated his personality. Yudhishthira, therefore went to meet him at the time of exile. Lord Krishna was also there. He preached Dharma to Yudhishthira. Apprised him about the greatness of Prayag region. Several stories related to great sages of those times were told to him. Narrated the anecdote of Ram and the character of Sati-Savitri. He narrated the story of Tripuravadh to Dhritarashtra. The Rishi went with many other sages to visit Bhishma, who was lying on the death bed of arrows. The sage was also present at the time of Bhishma’s death. He asked many questions to Narad. Narad advised Markandya about Aryan belief. Yudhishthira also worshiped him along with other sages at the time of Mahaprasthan. Markandeya had become very famous during the Mahabharata period. He was highly respected. Yudhishthira and several other wise men were also influenced with his ideology. Rishi Markandeya composed Markandeya and Varaha Puranas in Murko Smriti, Maa Samhita, Maa Stotra, and Tamas Puranas. His ashram – was near a rock named Chitra on the banks of the Pushpa Bhadra river in the northern part of the Himalayas. At the same time he did fierce tapasya. Murk was one of the sub-rit-vijas of King Dasaratha. He was one of the eight theologians of Rama. Sita went to Mithila with Rama during Swayamvara. Probably Murk was the ancestral name of these sages. Vyasa’s Rik was a disciple of Indramati in the disciple tradition. In many Puranas, he gets the distinction of Mandukaya text. The Markandeya Purana specifically includes a dialogue between Markandeya and a sage named Gemini, and several chapters in the Bhagavata Purana are devoted to their conversation and prayer. He is also mentioned in the Mahabharata. Markandeya is revered within all mainstream Hindu traditions.
Rishi Sumantu: He was in the Atharvaveda disciple tradition of Vyasa. Sumantu was the son of sage Gemini. Among his disciples, Karbadh was the chief, who told the story of Bhagwat and Bhavishya Purana to Shantnik’s disciple. He had also gone to meet Neeshm lying on his bed. Sumantu Rishi is also a Smritikar. He had carried out research work on the subjects like Brahm-hatya, cow slaughter etc. He was father of an Acharya namely Sunchan. Sumantu was a disciple of Maharishi Vedvyas. Vedavyasa taught Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Atharvaveda to his disciples Pail, Vaishampayana, Jaimini and Sumantu Muni respectively. In the beginning there was only one Veda; There were many hymns in the this Veda, which were called “Veda-Sutras”; There is a description of the Yajna-method in the Vedas. There are several verses (singable) Only one Veda, full of all these subjects, remained till Satyug and Tretayug. In Dwaparayuga, Maharishi Krishnadwaipayan divided the Vedas into four parts. For this reason Maharishi Krishna-dvaipayan came to be known as “Vedvyas”. In Sanskrit, the department is called “Vyas”, so Krishna-dvaipayan came to be called “Ved Vyas” because of the expansion of the Vedas.Pail, Vaishampayan, Gemini and Sumantu were the four disciples of Maharishi Vyas. Maharishi Vyasa taught Rigveda to Pail, Yajurveda to Vaishampayan, Samaveda to Gemini and Atharvaveda to Sumantu. Apart from Pail, the disciple of Maharishi Vyasa, there is also mention of two other individuals having this name “Pail”.