अयोध्या के प्रमुख राजा राजा सगर और राजा अंशुमान् सगर इक्ष्वाकु वंश का 40वां राजा था । सगर का पालन-पोषण और क्षत्रियोचित संस्कार भार्गव ऋषि ने किए । अस्त्र-शस्त्रों के प्रशिक्षण के पश्चात् सगर ने ऋषि और्व से “भार्गव-आग्नेय–अस्त्र” प्राप्त किया और गुरु वसिष्ठ के पास गया । गुरू अथर्वनिधि वसिष्ठ ने उसे ब्रहास्त्र वरूणास्त्र और धनुष, वाण आदि दिए । गुरुओं का आशीर्वाद लेकर वह शत्रुओं से युद्ध के लिए चल पड़ा। उसने अपने पराक्रम से पिता का खोया हुआ राज्य शक्तिशाली हैहय राजा से जीत लिया । सगर के वाणों से आहत शक, यवन आदि शीघ्र ही गुरू वसिष्ठकी शरण में आ गए। सगर ने गुरु से प्रार्थना की, ” इन दुष्टों का वध कर देना चाहिए। जब भी इन को अवसर मिलेगा, ये हमें कष्ट पहुँचाएगे। अतः शत्रु को कभी निर्बल नहीं समझना चाहिए।” गुरू अथर्वनिधि ने सगर की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा,” राजन् आपने जो कहा है, वह क्षत्रियोचित है। परन्तु ये लोग शरण मांग कर स्वयं ही मर चुके हैं। मृतों को मारकर आप को क्या यश मिलेगा” सगर ने गुरू वसिष्ठ के चरणों पर प्रणाम किया । गुरु अथर्वनिधि ने उसका राज्याभिषेक किया। इस अवसर पर भार्गव ऋषि और्व तथा अन्य प्रमुख ऋषि भी उपस्थित थे। सगर का विवाह विदर्भ देश के काश्यप राजा की पुत्रियों केशिनी और सुमति से हुआ। केशनी ज्येष्ठ रानी थी। उसका असंमजस नामक एक पुत्र था। दूसरी रानी सुमति या प्रभावती को और्व ऋषि की कृपा से साठ हजार पुत्र हुए। आधुनिक विद्वानों का मत है कि साठ हजार सगर की प्रजा होगी। आदर्श राजा प्रजा को पुत्र की तरह ही मानता है। ये साठ हजार भार्गव ऋषि की कृपा से राजा-रानी को प्राप्त हुए थे। इससे यह भी सिद्ध होता है कि ऋषि के अनुयायियों और आश्रमवासी शिष्यों ने अयोध्या राज्य को स्वतन्त्र कराने में राजा की सहायता की हो। और राजा सगर उन्हें पुत्रों की तरह मानता हो । उस समय ऋषियों के आश्रमों में कई – 2 हजार शिष्य शस्त्र और शास्त्रों का प्रशिक्षण लेते थे। समय आने पर वे अपने पक्ष के राजा की पूर्णतया सहायता करते थे। वैसे भी भार्गवों और इक्ष्वाकु वंशीय राजाओं का पुराना सम्बंध था। ऋषि और्व के पूर्वज ऋषि जगदम्नि की पत्नी तथा परशुराम की माता रेणुका इक्ष्वाकु वंशीय राजा रेणु प्रसेनजित की बेटी थी। समस्त उत्तर भारत को जीतने के पश्चात् सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया । इन्द्र को खतरा पड़ गया कि सगर उसका पद न छीन ले । अतः उसने यज्ञ का घोड़ा चुराकर कपिल ऋषि के आश्रम में बांध दिया। उस समय जो राजा सौ अश्वमेघ यज्ञ कर लेता था । वह इन्द्र पद का अधिकारी हो जाता था। अतः इन्द्र को जब भी किसी राजा या ऋषि से खतरा होता था। वह उनके कार्यों में विघ्न डालता था। सगर द्वारा छोड़े गए अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को सगर के साठ हजार पुत्र ढूंढने निकले। उन्होंने सारी पृथ्वी रौंद डाली। चारों दिशाओं का भेदन करने के पश्चात् वे कपिल मुनि के आश्रम में गए। उन्होंने वहीं घोड़े को चरते देखा। कपिल मुनि को यज्ञ में विघ्न डालने वाला चोर समझ कर कुदाल, हल और वृक्षों के तने लेकर वे मुनि की ओर लपके। क्रोधित मुनि ने अपने शिष्यों को उनका सामना करने की आज्ञा दी। मुनि और उनके शिष्यों द्वारा वे सब मूर्च्छित कर दिए गए। बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करने के पश्चात् सगर ने अपने पोते अंशुमान् को अपने चाचाओं और अश्व का पता लगाने के लिए भेजा। सगर ने उसे समझाया कि अभिवादन योग्य लोगों को प्रणाम करना और जो तुम्हारे कार्य में विघ्न डालें, उन्हें समाप्त कर देना । अंशुमान् तेजस्वी और पराक्रमी था। वह दादा के आदेशानुसार अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्ति होकर चल पड़ा। चाचाओं द्वारा खोदे हुए मार्ग पर चलते हुए उसने कई दिग्गज देखे । देवता, दानव, किन्नर आदि सभी उनकी पूजा कर रहे थे। उसने दिग्गजों की प्रदक्षिणा कर के पूजा की और हाथ जोड़कर विनम्र भाव से घोड़े के विषय में पूछा। सभी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि शीघ्र ही उसे घोड़ा मिल जाएगा। अन्त में अंशुमान वहीं पहुंचा, जहां उसके चाचा शापित पड़े थें। उन्हें देखकर वह रोने लग वह जल के लिए इधर-उधर दौड़ा परन्तु कहीं भी जलाशय दिखाई नहीं दिया । उसने पक्षीराज गरूड़ की ओर दयनीय दृष्टि से देखा। गरूड़ ने कहा, “इन लोगों की दुरवस्था लोकसम्मत है। तुम इन्हें लौकिक जलदान से तृप्त नहीं कर सकते। यदि करना चाहों तो गंगा से इनका तर्पण करो । तब ये सभी स्वर्ग जाएगें” कपिल मुनि को भी अंशुमान ने नम्रता से शान्त कर दिया। उन्होंने भी गंगाजल से पितरों का तर्पण करने के लिए कहा। गया । अंशुमान अश्व लेकर लौटा। उसने सारा वृत्तान्त सगर को सुनाया। वह बहुत दुःखी हुआ । यज्ञ सम्पूर्ण हो गया । अतः सगर ने ज्येष्ठ पुत्र असंमजस को युवराज पद दिया था । उससे सभी लोग आशा रखते थे कि वह भावी राजा है। कोई विवेकहीन कार्य न करे। परन्तु वह कई बार ऐसा अनुचित काम करता कि प्रजा दुःखी हो जाती। एक बार उसने कुछ बच्चों को सरयू नदी में डुबो दिया । राजा को पता लगा। उसने सभासदों के परामर्श से पुत्र को वनवास दे दिया। कई वर्षों के वनवास और पश्चाताप के बाद प्रजा ने उसे पुनः स्वीकार कर लिया। अतः सगर एक न्याय प्रिय और प्रजापालक राजा हुआ । उसकी मृत्यु के पश्चात् अंशुमान अयोध्या का राजा बना ।