अयोध्या के प्रमुख राजा राजा मित्रसह कल्माष पाद मित्रसहं कल्माषपाद ईक्ष्वाकु वंश की 53वीं पीढ़ी में, अयोध्या के राजा सुदास का पुत्र था । इसे कौसलाधिपति सौदास भी कहते हैं । मत्स्य और अग्नि पुराण में इसे राजा ऋतु पर्ण का पुत्र कहा गया है। वह पिता के समान प्रजा-पालक और सगर की तरह यशस्वी था । एक बार वह शिकार खेलता रेवा नदी के तट पर पानी पीने गया । वहाँ से एक हिरण का पीछा करता, एक गुफा में पहुंच गयां उस गुफा में बाध नामक राक्षस अपनी पत्नी के साथ प्रेम-क्रीड़ा में संलग्न था। राजा ने उसे बाण मारा। राक्षस – पत्नी बाण लगते ही मेघ के समान गर्जना करती मर गई। राक्षस ने राजा को घृणा – पूर्ण दृष्टि से देखते हुए कहा, “इस अत्याचार का मैं बदला लूंगा। भयभीत राजा लौट कर अपने सैनिकों से आ मिला। उस दिन से मित्रसह ने शिकार खेलना बंद कर दियां । उपरोक्त घटना को बीते कई वर्ष हो गए। राजा मित्रसह ने अश्वमेघ यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञ की लम्बी अवधि में गुरु वसिष्ठ इस के पास रहे इस यज्ञ में ब्रह्मा, देववृंद आदि सभी शामिल हुए। उन्हें हवि देने के पश्चात् राजा और महर्षि वसिष्ठ यज्ञ मण्डप से बाहर चले गए। इसी अन्तर में, जिस की पत्नी को राजा ने मारा था । वह राक्षस बदला लेने के लिए मुनि वेश में राजा के पास पहुंचा और कहा कि गुरू जी ने विशेष भोजन की मांग की है। ऐसा कहकर वह स्वयं रसोईघर में जाकर भोजन तैयार करने लगा। राजा ने गुरू को वह भोजन अर्पण किया। भोजन देखते हुए, गुरू ने क्रोधित स्वर में कहा, “तूने मेरी सम्पूर्ण तपस्या को नष्ट करने के इरादे से यह अभोज्य पदार्थ मेरे समक्ष रखा है। यह राक्षसों का भोजन है। अतः इसके उचित पात्र तुम हो । आज से तुम राक्षस जीवन व्यतीत करोगे। यह भोजन तुम खाओगे।” राजा यह शाप सुनकर कांपता हुआ बोला, “क्या आपने यह आज्ञा नहीं दी थी?” ऋषि ने दिव्य दृष्टि से अनुमान लगाया कि यह किसी राक्षस की चाल होगी। वे कुछ कहते, इससे पहले ही क्रुद्ध राजा मित्रसह ने यज्ञ का गर्म जल लोटे में भरकर गुरू के ऊपर फेंकने के लिए हाथ उठाया उसी समय उसकी परम धैर्य वाली रानी मदयन्ती ने राजा का हाथ पकड़ लिया और कहा, “हे क्षत्रिय पुत्र, अपने क्रोध को वश में कीजिए जो व्यक्ति अपने गुरू को तूं या हूं कहकर बोलता है। वह निश्चय ही राक्षस हो जाता है। शास्त्रों का सिद्धान्त है कि जो व्यक्ति इन्द्रियों को वश में कर के गुरू- सेवा में तत्पर रहता है, वह ब्रह्म लोक में जाता है” पत्नी के समझाने पर राजा ने वह जल गुरू के उपर न फेंककर अपने पैरों पर फेंक दिया। इस जल से राजा के पैर जल कर काले हो गए। उस दिन से वह कल्माषपाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। रानी के समझाने पर राजा ने नम्र भाव से गुरू के आगे हाथ जोड़कर क्षमायाचना की। गुरू ने उसे सांत्वना देते हुए कहा, “मैंने अविवेक से काम लिया है। मेरा यह शाप चिरकाल तक नहीं रहेगा। गंगा जल में निरन्तर कुछ समय स्नान करने से तुम राक्षस शरीर से मुक्त हो जाओगे। तुम्हारे पाप समाप्त हो जाएगें । तुम्हें ज्ञान की प्राप्ति होगी”। T यह कहकर अथर्वमुनि द्वितीय वसिष्ठ अपने आश्रम में चले गए। महाभारत व अन्य कुछ ग्रंथों में यह कथन भिन्न रूप में प्रस्तुत किया गया है। वहां मैत्रावरूण वसिष्ठ के पुत्र शक्ति वसिष्ठ जो 26वां वेदव्यास था, से इसका झगड़ा बताया है। इसने शक्ति को चाबुक से पीटा। तब शक्ति तथा उसके पक्ष के ऋषियों ने इसे राक्षस होने का दण्ड दिया । राक्षस रूप में इसने शक्ति और वसिष्ठ के अन्य पुत्रों का वध कर दियां । राक्षस देह में कल्माषपाद निर्जन वनों में घूमता रहता । उसकी पत्नी मदयन्ती भी वन में उसके साथ रहती थी। दिन के छठे पहर वह आहार करता, भूखे प्यासे राजा को मृग, पशु-पक्षी, सर्प आदि जो भी मिलता वह खाकर पेट भरता गया । खाना खाने के समय उसकी पत्नी सामने नहीं आती थी । एक दिन घूमते 2 वह नर्मदा नदी के तट पर चला वहां उसने एक मुनि- दम्पत्ति को देखा। उसने मुनि को पकड़ लिया । डरी हुई मुनि पत्नी ने हाथ जोड़कर कहा, “आप सूर्यवंशी राजा हैं, राक्षस नहीं। इस निर्जन वन में मेरी रक्षा कीजिए। मेरे पति को छोड़ दीजिए। जिस स्त्री का पति नहीं होता, वह मृत के समान होती है। मैं अपने माता-पिता, भाई-बंधु किसी को नहीं जानती ” ” मैं आप की पुत्री हूँ “यह कह कर वह राक्षस रूपी राजा के चरणों पर गिर पड़ी। पर मित्रसह ने उसकी एक न सुनी और उसके पति को मार दिया। मुनि-पत्नी की गुहार का यह परिणाम हुआ कि कल्माषपाद के दण्ड में और वृद्धि हो गई। उसके गुरू ने अल्पावधि के लिए उसे दण्ड दिया था पर ब्राह्मण हत्या के कारण समिति और सभा के द्वारा दण्ड की अवधि 12 वर्ष की हो गई। मुनि पत्नी अपनी बच्चें के साथ वहीं वट वृक्ष के नीचे बैठ गई। वहां एक ब्रह्म राक्षस रहता था, जिसे गुरू की अवज्ञा के कारण राक्षस – जीवन बिताना पड़ रहा था। उसने कल्माषपाद, मुनि पत्नी और बच्चे को समझाया, जो भी ज्ञान या अज्ञान वश गुरू का विरोध करता है। उसकी विद्या, बुद्धि, सम्पत्ति, सत्कर्म सभी नष्ट हो जाते हैं।” कुछ समय बाद गंगाजल सेवन और अभिषेक से ब्रह्म राक्षस, मुनि – पत्नी व बच्चा तीनों सभ्य मानव समाज में सम्मिलित कर लिए गए। परन्तु कल्माषपाद राक्षस रूप में ही रहा। वह इस हीन जीवन से उकता गया और बहुत दुःखी रहने लगा। वह हर समय पश्चाताप की अग्नि में जलता रहता । गुरू ने उसे काशी जाकर गंगातट पर रहने का परामर्श दिया । वह छः मास काशी में रहकर गंगाजल में स्नान करता रहा। तब राक्षसी रूप से मुक्त होकर वह अयोध्या लौटा। गुरु वसिष्ठने उसका राज्याभिषेक किया। वह यथापूर्व राज्य करने लगा। गुरू कृपा से राजा मित्रसह की मृत्यु के पश्चात् उसने “पौदन्य” नामक नगर बसाया। की मृत्यु के पश्चात् अयोध्या राज्य उसका अश्मक नामक पुत्र हुआ। अश्मक अयोध्या का राजा बना। राजा मित्रसह कल्माषपाद काफी कमजोर हो गया था । अश्मक के पुत्र मूलक को बचपन से ही नारी- संरक्षण में रखा गया, जिससे उसका नाम ‘नारी कवच’ पड़ गया मूलक का पुत्र दशरथ प्रथम हुआ। उसके समय ईक्ष्वाकु वंशीय राजाओं का प्रभुत्व बढ़ा। तत्पश्चात् एडविड व विश्वसह राजा हुए।