इक्ष्वाकु वंश में रघुवंश के संस्थापक राजा रघु थे। उन्होंने ही अयोध्या के राजघरानों के लिए नीति और नियम निर्धारित किए थे और इसलिए उन्हें अपने कुल में सर्वश्रेष्ठ माना जाता था। मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी नियमों का पालन धर्मपूर्वक करते थे और सदैव अपने को रघुवंशी कहने में बड़ा गर्व करते थे । उन्हीं की वजह से पूरा सूर्यवंश रघुवंश के नाम से जाना जाने लगा। राजा रघु और राजा दीर्घबाहु दोनों के विषय में पुराणकारों में मतभेद है। भागवत, विष्णु और वायु पुराण के अनुसार रघु दीर्घबाहु का पुत्र और दिलीप खटवांग का पोता है। ब्रह्म, हरिवंश और शिवपुराण के अनुसार दोनों एक हैं। दीर्घबाहु रघु का विशेषण है। कालिदास के रघुवंश में दीर्घबाहु का उल्लेख नहीं । अतः दीर्घबाहु रघु का विशेषण ही मानना उचित है। रघु ईक्ष्वाकु वंश का श्रेष्ठ राजा माना गया है। इस के नाम से ईक्ष्वाकु वंश रघुवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राज्य सिहांसन पर सुशोभित होते ही लक्ष्मी छाया की तरह इसकी सेवा करने लगी। सरस्वती ने भी स्तुति के योग्य राजा की वंदना की। रघु के गुणों से लोग राजा दिलीप को भी भूल गए । ” जिस प्रकार चन्द्रमा आह्लाद उत्पन्न करने से सार्थक नाम वाले हुए। सूर्य सन्ताप उत्पन्न करने वाले यथार्थ नाम वाले हुए। उसी प्रकार रघु महाराजा पुरवासी लोगों के अनुराग को पैदा करने से यथार्थ नाम वाले राजा हुए”। रघु को अपने पिता के राज्य काल में ही सैन्य संचालन तथा युद्धों का प्रशिक्षण प्राप्त हो चुका था । अतः राज्य सिहांसन पर आरूढ़ होते ही इसने दिग्विजय के लिए प्रयाण कर दिया। पूर्वीय देशों को जीतने के पश्चात् महाराजा रघु ने उत्कल देश से होते हुए कलिंग देश पर आक्रमण किया। उसे जीतने के पश्चात् महेन्द्र पर्वत का इलाका जीता। वहां के राजाओं को पकड़कर छोड़ दिया। उनके राज्य लौटा दिए । केवल लक्ष्मी ही प्राप्त की। तत्पश्चात् रघु ने ब्रह्मपुत्र नदी पार कर के प्रागज्योतिष (आसाम) देश पर आक्रमण किया। वहां का राजा हाथियों की भेंट लेकर राजा रघु की शरण में आया । कम्बोज देश को पराजित कर रघु ने वहां के राजा से उत्तम घोड़े और स्वर्ण राशि प्राप्त की। दसों दिशाओं को जीतने के पश्चात् रघु ने ‘विश्वजित यज्ञ’ किया । यज्ञ के अन्त में सभी उपस्थित राजाओं ने चक्रवर्ती राजा रघु को प्रणाम किया । राजा ने अपना समस्त धन विश्वजित यज्ञ’ में समाप्त कर दिया । उसी समय विश्वामित्र या वरंतु ऋषि के शिष्य कौत्स जो 14 विद्यायों के ज्ञाता थे, आ पहुंचे। असाधारण शीलवान्, अतिथियों का सत्कार करने वाले सम्राट रघु मिट्टी के बने हुए पात्र में अर्ध निमित्त द्रव्य रखकर ऋषि कौत्स के पास आए। विधिवत पूजन करने के पश्चात् राजा ने ऋषि के गुरू तथा अन्य स्वजनों का कुशल क्षेम पूछा। इसके पश्चात् राजा ने तपोवन के वृक्षों, वहां के पशु-पक्षियों के विषय में तथा ऋषि जनों की खाद्य सामग्री आदि की भी जानकारी ली। वास्तव में राजा ऋषि के आगमन का कारण जानना चाहता था । ऋषि कौत्स ने राजा की दुर्दशा देख ली थी। इसलिए वह अपने आने का अभिप्रायः बताना नहीं चाहता था । ऋषि कौत्स ने रघु को कहा, “तुम्हारे जैसे राजा होने पर प्रजाजनों को दुख कहां? पूज्यजनों में भक्ति रखना आपके कुलकी परम्परा है।” राजा ने कहा, “यदि सर्वत्र कुशल है, तो आप उदास क्यों हैं?” ऋषि ने कहा, हे चक्रवर्ती सम्राट, आपने ‘विश्वजित यज्ञ’ करके समस्त धन दान कर दिया है। गुरूदक्षिणा के लिए मुझे धन की आवश्यकता है। आप से धन मांगना अनुचित है। मैं किसी और राजा के पास धन प्राप्ति का प्रयत्न करूंगा।” रघु के पूछने पर कि गुरू दक्षिणा में कितनी राशि देनी है। ऋषि ने कहा, “मैंने गुरू से कई बार गुरु दक्षिणा के लिए पूछा। उन्होंने सदैव यह कहकर टाल दिया कि ‘तेरी सेवा से ही मैं प्रसन्न हूँ, मुझे दक्षिणा से क्या काम बार – 2 पूछने पर गुरू ने क्रुद्ध होकर मुझे चौदह करोड़ द्रव्य लाने के लिए कहा है। मैं आप के पास यह द्रव्य लेने आया था । परन्तु आपकी निर्धनता देखकर कुछ मांगना अनुचित है। अतः मेरा लौटना उचित है। रघु ने ऋषि को दो तीन दिन ठहरने को कहा और स्वयं रथ लेकर कुबेर पर उसने आक्रमण कर दिया। कुबेर ने लाचार होकर इतनी धनराशि रघु को दे दी, जिससे कौत्स मुनि की मांग पूरी हो गई। राजा ने सारी राशि ऊंटों और घोड़ों पर लादकर ऋषि के आश्रम में भेज दी। कौत्स ऋषि राजा का दूर का सम्बन्धी भी था । रघु के पूर्वज भगीरथ की बेटी हंसी का विवाह ऋषि कौत्स से हुआ था । यह वही कौत्स नहीं हो सकता। क्योंकि भगीरथ रघु से कई पीढ़ियाँ पहले हुआ उसका वंशज होगा। रघु को एक बार अपने पिता के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की रक्षा का दायित्व सौंपा गया था। हालाँकि इंद्र ने घोड़ा चुरा लिया, रघु ने इंद्र की सेना को हरा दिया। जब रघु स्वयं राजसिंहासन पर आसीन हुए, तब उन्होंने अपने सम्पूर्ण राज्य में शांति स्थापित करके द्विविजय को जीतने के लिए प्रस्थान किया। चारों दिशाओं में अपना आधिपत्य जमाकर रघु ने अपार धन-सम्पत्ति एकत्रित कर ली। जब कौत्स मुनि ने अपने गुरु विश्वामित्र या वरतंतु से गुरुदक्षिणा के लिए धन मांगा, तो रघु ने कुबेर पर चढ़ाई की और चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कीं। फिर उन्होंने विश्वजीत नामक एक और महायज्ञ किया जिसमें उन्होंने अपनी सारी संपत्ति अयोध्या के ब्राह्मणों को दान कर दी