राजा अतिथि कुश और कुमुद्रती के पुत्र अतिथि का जन्म रात के चौथे पहर में हुआ था ।अतिथि अपने प्रतापी पिता के समान बहुत तेजस्वी था । उसके बहुदर्शी और विद्वान् पिता कुश ने उसे क्षत्रियोचित शिक्षा देकर युद्धविद्या और राजनीति में निपुण कर दिया था कुश जैसा शूर वीर, जितेन्द्रिय और कुलीन था पुत्र भी भगवान ने उसे वैसा ही शूर वीर और कुलीन दिया । पुत्र में अपने गुण होने के कारण कुश बहुत प्रसन्न था । राजा कुश को एक बार इन्द्र की सहायता के लिए अमरावती जाना पड़ा। वहाँ उसने दुर्जय नामक दैत्य के साथ महा घोर संग्राम करके उसे मार डाला । परन्तु उस दैत्य के हाथ से उसे भी अपने प्राण खोने पड़े। कुश की मृत्यु के पश्चात् मंत्रियों ने अतिथि को राज्य सिहांसन पर बैठाया। जिस समय कुश लड़ाई पर जा रहा था उस समय वह अपने मन्त्रियों से कह गया था कि यदि मैं युद्ध से लौट कर न आऊँ तो मेरे पीछे अयोध्या का राज्य अतिथि को दिया जाय। इस आज्ञा को स्मरण करके मन्त्रियों ने अतिथि को ही अयोध्या का राजा बनाया । उस राजा अतिथि का जिसके भाग्य में सदा ही विजयी होना लिखा था। अतिथि ने राज्य गद्दी पर बैठते ही फांसी का दण्ड पाए व्यक्तियों को न मारने की आज्ञा दी। भार ढ़ोने वाले पशुओं खच्चरों आदि पर भार न लादने का आदेश दिया तथा पिंजरों में बंद तोता, मैना आदि को मुक्त करने की आज्ञा दी। राजा बनते ही अतिथि ने अपने पिता की मृत्यु से उत्पन्न सन्ताप को दूर कर दिया गुरू वसिष्ठ के मंत्र तथा अतिथि के वाण सभी असाध्य कार्यों को करने में भी समर्थ थे। युवावस्था, सुन्दर रूप तथा ऐश्वर्य इन में से एक भी हो तो गर्व का रण होता है। परन्तु अतिथि राजा में यह तीनों विद्यमान थे तथापि वह गर्वित नहीं हुआ। अतिथि के बाहरी शत्रु दूर रहते थे। परन्तु भीतरी शत्रुओं पर भी उसने विजय पाई। वे भीतरी छः शत्रु काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य थे। राजा अतिथि बड़ा ही हँसमुख था। जब वह बोलता था मुसकरा कर ही बोलता था। उसकी मुखचा सदा ही प्रसन्न देख पड़ती थी। अतएव, उसके सेवक उससे बहुत खुश रहते थे। वे उसे विश्वास की साक्षात् मूर्ति समझते थे। वह इन्द्र के समान ऐश्वर्यशाली राजा था। जिस हाथी पर सवार होकर वह अपनी राजधानी की सड़कों पर निकलता था वह ऐरावत के समान बलवान था। उसकी पताकाये कल्पद्रुम की बराबरी करने वाली थीं। इन कारणों से उसने अपनी पुरी, अयोध्या, को दूसरा स्वर्ग बना दिया। अतिथि ने अश्वमेघ यज्ञ के अवसर पर इतना दान दिया कि उसका नाम कुबेर की तरह प्रसिद्ध हो गया । वह इतना दानी था कि दरिद्र से दरिद्र व्यक्ति सभी उससे दान लेकर धनी हो गये। अतिथि का विवाह निषध देश के राजा की कन्या से हुआ। उससे एक पुत्र निषध नामक हुआ निषध को राज्य – सिहांसन देकर अतिथि स्वर्ग सिधार गया । निषध ने समुद्र तक एकच्छत्र होकर पृथ्वी का उपभोग किया। निषध का पुत्र नल हुआ जिसने पिता के बाद राज्य को प्राप्त किया । देव गंधवों द्वारा गाए गए यश वाले नल के घर ‘नभस’ नामक पुत्र हुआ । वृद्धावस्था तक राज्य भोगकर अपने पुत्र नभस को राज्य सौंप वह स्वर्गारोहण कर गया । तत्पश्चात्, पुंडरीक, क्षेम धन्वन, देवनीक, पारिपात्र, बलस्दल, उक्थ, ब्रजनाभ, खगन, विधृति, व्युपिताश्व और विश्वसह क्रमशः अयोध्या के राजा हुए।