राजा अग्निवर्ण संस्कृत के महान कवि कालिदास जी ने अपने काव्य ग्रंथ रघुवंशन में दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए ।रघुवंश’ के अनुसार रघु कुल में अतिथि के बाद 20 रघुवंशी राजाओं की कथा है।सुदर्शन राजा ने अपने बाहुबल से सभी शत्रुओं को जीत कर पृथ्वी को निष्कण्टक बनाकर अग्निवर्ण को दी थी । अतः अग्निवर्ण को पृथ्वी का भोग रूपसी की तरह करना था। वह अति विलासी होने के कारण राज्य – कार्य में ध्यान न देता, इन्द्रिया- सुख और विषय भोगों में संलग्न रहता । अग्निवर्ण के विलासी जीवन के कारण रघु वंश का पतन हुआ। विषयासक्त हुआ राजा प्रजापालन से विमुख हो गया था । उसके पूर्वजों के प्रताप के कारण अन्य राजा उसपर आक्रमण करने के लिए समर्थ नहीं हुए, परन्तु क्षय रोग ने उस पर आक्रमण कर दिया । उसने वैद्यों का परामर्श- स्त्री और मद्य का त्याग, भी नहीं माना । उसका रंग पीला पड़ गया। शरीर क्षीण होने लगे। दास-दासियों के सहारे से चलने लगा। अग्निवर्ण अनेक स्त्रियों के साथ रहते हुए भी पवित्र सन्तान को प्राप्त नहीं कर सका। उसको रोग मुक्त करने के वैद्यों के यत्न भी व्यर्थ हो गए। उसका अन्तिम संस्कार गुरू और मंत्रियों ने मिलकर भवन के उपवन में ही कर दिया। इसे गुप्त ही रखा गया । रोग के शान्ति कर्म का बहाना कर के जलती हुई अग्नि में बिना किसी को दिखाए जला दिया। अग्निवर्ण की मृत्यु के शीघ्र पश्चात् प्रमुख मंत्रियों व गुरू की मंत्रणा से उसकी गर्भवती पटरानी को राज्य सिहांसन पर आरूढ़ किया। पति की मृत्यु के शोक से संतप्त रानी को कुछ सान्तवना मिली। महारानी ने विश्वास पात्र मंत्रियों की सहायता से विधिपूर्वक राज्यकार्य किया । लेकिन धीरे -धीरे इसके बाद अयोध्या का वैभव खत्म होता गया । जिन महान संयमी राजाओं के शासन के लिए अयोध्या विख्यात थी । जिस मर्यादापुरुषोत्तम एक पत्नीव्रता के लिए अयोध्या प्रसिद्ध थी, उसी अयोध्या का पतन रघुकुल के ही एक राजा की कामवासना की वजह से हो गया । अग्निवर्ण की मृत्यु के पश्चात् क्रमशः निम्न राजाओं ने अयोध्या के सिंहासन को सुशोभित किया शीघ्र, मरू, प्रसुश्रुत संधि, आमर्षण, सहस्वत, विश्वसहि, कृशाश्व, प्रसेनजित द्वितीय, तक्षक, विश्रुतवत आदि ।