हेमचन्द्र (हेमू) : इतिहासकारों ने इस हिन्दू योद्धा के साथ न्याय नहीं किया। आम तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि उनका जन्म एक साधारण हिंदू ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उन्होंने अपना बचपन दिल्ली के दक्षिण-पश्चिम में मेवात क्षेत्र के रेवाड़ी शहर में बिताया। आधुनिक इतिहासकारों की उनके परिवार के पैतृक घर और जाति और उनके जन्म के स्थान और वर्ष पर भिन्न भिन्न राय है। अपने परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण, हेमू ने कम उम्र में एक व्यापारी के रूप में काम करना शुरू कर दिया था । वह अपनी योग्यता, सूझबूझ और दूरदर्शिता से दिल्ली के सिहांसन तक पहुंच गया। आदिलशाह ने उसे अपना प्रधानमंत्री नियुक्त कर लिया था। संघर्ष के समय आदिलशाह ने राज्य का सारा भार उसके कंधों पर डाल दिया। हेमू अपने कर्तव्य को निभाता हुआ निरन्तर युद्धों में लगा रहा। हेमू का योगदान हिन्दू इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय माना जाता है हिन्दू इतिहासकारों ने हेमू को राजा विक्रमादित्य की उपाधि दी है ! हेमू विक्रमादित्य ब्राह्मणवादी राजशाही परंपरा की बहाली कर सकते थे, जो सदियों से मुस्लिम शासन के अधीन था। मुस्लिम इतिहासकारों ने इसके युद्धों की सफलताओं का भी दुःखी हृदय से उल्लेख किया हैं। लेकिन हेमू के शत्रु भी उसकी प्रशंसा करते थे। हेमू के समर्थकों ने पानीपत में उनके लिए एक स्मारक बनवाया जिसे अब हेमू की समाधि स्थल के नाम से जाना जाता है। हेमू को एक सक्षम प्रशासक और एक अच्छे सैन्य दिमाग के लिए जाना जाता है उन्हें आदिल शाह के विरोधियों के खिलाफ 22 लड़ाई लड़ने और जीतने के लिए भी जाना जाता है। इनमें से कई लड़ाइयाँ उन अफगानों के खिलाफ थीं जिन्होंने आदिल शाह के खिलाफ विद्रोह किया था। इनमें से एक इस्लाम शाह के दरबार के सदस्य ताज खान पर थी ताज खानने आदिल शाह की सेवा करने के बजाय अपने अनुयायियों के साथ ग्वालियर से पूर्व की ओर भागने का फैसला किया। वह चिब्रमऊ में हेमू से आगे निकल गया और पराजित हो गया, लेकिन किसी तरह भागने में सफल रहा और लूट लिया गया। हेमू ने उसका पीछा किया और चुनार में कररानी से लड़ा और एक बार फिर हेमू विजयी हुआ। हेमू ने आदिल शाह को चुनार में रहने के लिए कहा और पूरे बंगाल में कररानी का पीछा करने के लिए आगे बढ़ा। आगरा का किला, तुगलकाबाद की लड़ाई से पहले हेमू द्वारा कब्जा कर लिया गया था।23 जुलाई 1555 को आदिल शाह के बहनोई सिकंदर शाह सूरी पर हुमायूँ की जीत के बाद, मुगलों ने अंततः दिल्ली और आगरा को पुनः प्राप्त कर लिया। 26 जनवरी 1556 को जब हुमायूँ की मृत्यु हुई तब हेमू बंगाल में था। उनकी मृत्यु ने हेमू को मुगलों को हराने का एक आदर्श अवसर दिया। उसने बंगाल से एक मार्च शुरू किया और बयाना, इटावा, संभल, कालपी और नारनौल से मुगलों को खदेड़ दिया। आगरा में, राज्यपाल ने शहर खाली कर दिया और हेमू के आक्रमण की बात सुनकर बिना किसी लड़ाई के भाग गए। इसके तुरंत बाद हेमू की सबसे उल्लेखनीय जीत मुगलों के खिलाफ तुगलकाबाद में हुई। सन् 1556 ई० में हेमू आदिलशाह के पक्ष में अकबर के साथ लड़ा। उसने आगरा और दिल्ली अपने अधिकार में कर लिये। कई इतिहासकार हेमू को महत्वाकांक्षी मानकर उसे अधिक श्रेय नहीं देते। जो भी हो वह हिन्दू राज्य स्थापित करना चाहता था, तो इसमें क्या बुराई थी। वह दिल्ली के सिहांसन पर बैठा। उन्हो ने अपने सिक्के चलाए। हेमू एक साहसिक हिन्दू कमाण्डर थे जो उत्तर भारत में अफगान विद्रोहियों और आगरा और दिल्ली में हुमायूं और अकबर की मुगल सेनाओं से लड़े और आदिल शाह के लिए 22 लड़ाईयां जीती। हेमू ने 7 अक्टूबर 1556 को दिल्ली की लड़ाई में अकबर की मुगल सेना को हराने के बाद शाही स्थिति का दावा किया और विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। हेमू ने अकबर को उसकी विशाल सेना के साथ हराकर अपना नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखवा लिया. अकबर नाबालिंग था। बैरम खां अकबर का रक्षक था। वह हेमूं के साथ पानीपत के स्थान पर 5 नवम्बर, 1556 को लड़ा । हेमूं की जीत निश्चित थी, परन्तु दुर्भाग्य से उसकी आंख में तीर लगने से वह अचेत हो गया । हेमू विक्रमादित्य का निधन 5 नवम्बर 1556 को को ही हो गया। उसकी सेना बिखर गई । वी० ए० स्मिथ के अनुसार यदि यह दुर्घटना न होती तो मुगलों की हार अवश्य होती। बैरम खां ने अकबर को गाजी की उपाधि से विभूषित किया, क्योंकि उसने काफिर की गर्दन काटी थी। अन्य मुसलमानों ने भी मृत हेमचन्द्र को तलवारों से काट कर इस्लामिक पुण्य प्राप्त किया। उसका सिर काबुल भेज दिया गया और धड़ को दिल्ली दरवाजे पर लटका दिया। हेमू की आँख में तीर लगने का कारण भी षड़यन्त्र लगता है। हेमचन्द्र के परिवार पर भी अकबर के सैनिकों ने कम अत्याचार नहीं किए। उसका परिवार लड़ते-लड़ते नष्ट हो गया। उसके बूढे, पिता को मुसलमान बनने को कहा। उसने उत्तर दिया, “अस्सी वर्ष तक मैं अपने भगवान की पूजा करता आया हूँ। अब मृत्यु के डर से उसे क्यों बदल लूँ और तुम्हारा धर्म स्वीकार कर लूँ” पीर मुहम्मद ने तलवार की नोक से उस वृद्ध की आवाज को शान्त कर दिया। हेमू और उसके परिवार जैसे लोगों के बलिदान से ही हिन्दू जाति का अस्तित्व बना रहा है। सदियों के थपेड़े झेलकर भी वह कायम रही।