स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 ई० जुलाई, 1902 को हुआ। उनका मूल नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। वे लगभग 38 वर्ष और 6 मास जीवित रहे, परन्तु इतनी थोड़े समय में उन्होंने विश्व में भारत का नाम उज्जवल कर दिया। जो लोग भारत को मदारियों और जादूगरों का देश समझते थे। उन्हें, इन्होंने बता दिया कि विदेशियों की लूट मार से निर्धन हुआ, भारत, सांस्कृतिक रूप से अभी भी इतना सम्पन्न है कि विश्व का कोई भी देश इसकी समानता नहीं कर सकता। सन् 1881 ई० में स्वामी राम कृष्ण परमहंस को विवेकानन्द दूसरी बार मिले तो स्वामी जी ने भीगी आंखों से इन्हें कहा, “तुम नारायण के अवतार हो।’ स्वामी जी को मिलने से पूर्व उनका झुकाव ब्रह्म समाज की ओर भी हुआ। परन्तु ब्रह्म समाज के सिद्धान्त इनको प्रभावित नहीं कर सके। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है। वे रामकृष्ण परमहंस के सुयोग्य शिष्य थे। स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका स्थित शिकागो में सन् 1893 में आयोजित विश्व धर्म महासभा सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया था। उनहो ने विश्व को भारतीय सांस्कृती से अवगत कराया विवेकानन्द ने अपने भाषण का आरम्भ “मेरे बहनों एवं भाइयों” के साथ किया
विवेकानन्द के भाषण के कुछ प्रमुख अंश
“मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत- दोनों की ही शिक्षा दी हैं। मुझे ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। हमने अपने देश में उन यहूदियों के विशुद्धतम अवशिष्ट को स्थान दिया था जिन्होंने दक्षिण भारत आकर उसी वर्ष शरण ली थी जिस वर्ष उनका पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया था। मैं सनातन धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ कुछ धर्मों की साम्प्रदायिकता, हठधर्मिता और उनकी वीभत्स वंशधर धर्मान्धता इस सुन्दर पृथ्वी पर बहुत समय तक राज्य कर चुकी हैं। वे पृथ्वी को हिंसा से भरती रही हैं व उसको बारम्बार मानवता के रक्त से नहलाती रही हैं, सभ्यताओं को ध्वस्त करती हुई पूरे के पूरे देशों को निराशा के गर्त में डालती जा रही हैं। यदि ये वीभत्स दानवी शक्तियाँ न होतीं तो मानव समाज आज की अवस्था से कहीं अधिक उन्नत हो गया होता। मैं आन्तरिक रूप से आशा करता हूँ कि आज सुबह इस सभा के सम्मान में जो घण्टा ध्वनि हुई है वह समस्त धर्मान्धता का, तलवार या लेखनी के द्वारा होनेवाले सभी उत्पीड़नों का तथा एक ही लक्ष्य की ओर अग्रसर होने वाले मानवों की पारस्पारिक कटुता का मृत्यु निनाद सिद्ध हो” विवेकानंद ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। जीवन के अन्तिम दिन उन्होंने शुक्ल यजुर्वेद की व्याख्या की और कहा-“एक और विवेकानन्द चाहिये, यह समझाने के लिये कि इस विवेकानन्द ने अब तक क्या किया है।”
उनके शिष्यों के अनुसार, जीवन के अंतिम दिनो में भी, उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ४ जुलाई १९०२ को विवेकानंद ने ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था। उनके शिष्यों और अनुयायियों ने उनकी स्मृति में वहाँ एक मन्दिर बनवाया और समूचे विश्व में विवेकानन्द तथा उनके गुरु रामकृष्ण के सन्देशों के प्रचार के लिये १३० से अधिक केन्द्रों की स्थापना की।
स्वामी विवेकानन्द के कुछ प्रसिद्ध कथन
1. उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक मत रुको उठो जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। 2. हर आत्मा ईश्वर से जुड़ी है, हमें इसकी दिव्यता को पहचानना चाहिए और अपने आप को सुधारना चाहिए । (कर्म, पूजा, अंतर मन या जीवन दर्शन इनमें से किसी एक या सब से ऐसा किया जा सकता है)
3.एक विचार लें और इसे ही अपनी जिंदगी का एकमात्र विचार बना लें। इसी विचार के बारे में सोचे, सपना देखे और इसी विचार पर जिएं। आपके मस्तिष्क , दिमाग और रगों में यही एक विचार भर जाए। यही सफलता का रास्ता है। इसी तरह से बड़े बड़े आध्यात्मिक धर्म पुरुष बनते हैं।
4. एक समय में एक काम करो और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकि सब कुछ भूल जाओ। पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है। 5. एक अच्छे चरित्र का निर्माण हजारो बार ठोकर खाने के बाद ही होता है। 6. खुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है। 7. सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है, फिर भी वह एक सत्य ही होगा। 8. बाहरी स्वभाव केवल अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रूप है। 9. विश्व एक विशाल व्यायामशाला है जहाँ हम खुद को मजबूत बनाने के लिए आते हैं। 10. शक्ति जीवन है, निर्बलता मृत्यु है। विस्तार जीवन है, संकुचन मृत्यु है। प्रेम जीवन है, द्वेष मृत्यु है। 11. जब तक आप खुद पर विश्वास नहीं करते तब तक आप भगवान पर विश्वास नहीं कर सकते। 12. जो कुछ भी तुमको कमजोर बनाता है – शारीरिक, बौद्धिक या मानसिक उसे जहर की तरह त्याग दो। 13. विवेकानंद ने कहा था – चिंतन करो, चिंता नहीं, नए विचारों को जन्म दो। 14. हम जो बोते हैं वो काटते हैं। हम स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं। 15. महात्मा वो है, जो गरीबों और असहाय के लिए रोता है अन्यथा वो दुरात्मा है 16. तुम्हारी सफलता की मंजिल तो तुम्हारे सामने ही होती है. लेकिन तुम अपने मंजिल के बजाय इधर उधर भागते हो जिससे तुम अपने जीवन में कभी सफल नही हो पाए. 17. हमें अपने लक्ष्य पर सदा ध्यान केन्द्रित करना चाहिए 18. सच्चा पुरुष वही होता है जो हर परिस्थिति में नारी का सम्मान करे