ancient indian history

Guru Hari Gobind

गुरु हरि गोबिंद

“गुरू हरिगोबिन्द सिखों के छठें गुरू थे। साहिब की सिक्ख इतिहास में गुरु अर्जुन देव जी के सुपुत्र गुरु हरगोबिन्द साहिब की दल-भंजन योद्धा कहकर प्रशंसा की गई है। गुरु हरिगोबिन्द साहिब की शिक्षा दीक्षा महान विद्वान् भाई गुरदास की देख-रेख में हुई”
छठे गुरु हरिगोबिंद जी आषाढ़, 1666 वि० को गुरु गद्दी पर विराजमान हुए। मंसदों ने पिछली रीति अनुसार मंजी, सेली व टोपी उनके आगे रखी। गुरू जी ने कहा, “मंजी गुरू ग्रंथ साहिब जी को, सेली बेदियों को, और टोपी साधु-संतो को दो। हमें धर्म-रक्षा के लिए शस्त्र पहनाओं। उन्होंने मुगल शासको की दमन नीतियों, प्रतिपक्षियों की ईर्ष्या-द्वेष व षडयन्त्र के कारण मीरी व पीरी दो तलवारे धारण की, अर्थात शस्त्र और धर्मशास्त्र दोनो शक्तियों का आह्वान किया। शस्त्र अथवा राज्य शक्ति को उन्होंने भीरी नाम दिया तथा धार्मिक शक्ति को पीरी। दोनो शक्तियों को हाथ में लेकर वे एक साथ मीर अथवा शासक और पीर अथवा धर्मगुरू बन गए। गुरु जी ने सेना का संगठन आरम्भ कर दिया। सं० 1671 को उन्होंने लोहगढ़ की स्थापना की और वहां जंग का सामान इकट्ठा करना आरम्भ किया। उनके प्रमुख सेनापति करियाला निवासी बाबा पराग दास छिब्बर, भाई जेता, भाई त्रिलोक, नंद, विधिचन्द (मोहन), जत्तीमल और पेरा छिब्बर थे। (भाई गोबिंद सिंह निर्मला संत) सन्तान :- श्री गुरु हरि गोबिंद जी की तीन पत्नियां थी- दमोदरी जी महादेवी जी व नानकी जी। दमोदरी जी की कोख से 7 बैसाख, सं० 1668 वि० को बीबी वीरो और 8 कार्तिक, सं० 1670 वि० को गुरूदित्ता तथा 16 मग्धर, सं० 1675 वि० को अणिराय जी पैदा हुए। 23 कार्तिक सं० 1674 वि० को महादेवी जी से सूरजमल का जन्म हुआ। कार्तिक पूर्णिमा, 1676 वि० को नानकी जी से अटलराय तथा 21 मग्घर 1678 वि० को त्यागमल (तेग बहादुर जी) का जन्म हुआ। अटल राय 7 बरस. 10 महीने, 11 दिन की आयु भोग कर असूज 1685 वि० को गुजर गए। अणिराय भी अल्पायु भोग कर स्वर्ग सिधार गए। गुरदि की संतान करतारपुर के तथा सूरजमल की संतान आनन्दपुर के सोढ़ी कहलाते हैं। श्री गुरु हरि गोबिंद बैसाख सं० 1683 को कश्मीर पहुंचे। मीरपुर चौबुक में वीरमदत्त (ब्रा० मोहयाल), कैन गांव का झंगड़ ब्राहाण, 10 कोस दूर का मूला गुरू के शिष्य बन गए। अनेक कश्मीरी हिन्दु जो मुसलमानों के अत्याचारों से मुसलमान बन गए थे। उन्हें गुरू जी के द्वारा शुद्ध करके पुनः हिन्दू धर्म में लाया गया। तत्पश्चात गुरू गुजरात पहुंचे, यहां वे छिब्बर गोत्र राजचन्द्र ब्राह्मण के घर ठहरे। (त० गु० खालसा)
गुरु नानक जी की कश्मीर यात्रा के समय पं० ब्रह्मदत्त उनके सम्पर्क में आए थे। कश्मीर में पं० ब्रह्मदत्त का परिवार नानक पंथ का प्रचार कर रहा था। छठे गुरू के शुभागमन पर श्रीनगर के आस-पास के गांवो से आई संगत ने उन पर अपार श्रद्धा व्यक्त की। गुरू जी पं० कृपा राम दत्त की विलक्षण प्रतिमा से प्रभावित हुए। पं० कृपा राम दत्त वेद-वेदांग, ज्योतिष, इतिहास, पुराण के विद्वान तथा कुशल योद्धा थे। गुरू हरि गोविंद ने बच्चों को शिक्षित करने के लिए, यह जिम्मेदारी पं० कृपा राम को सौंपी। बाबा परागा की वहिन सरस्वती पं० कृपा राम की माता थी। तब से लेकर गुरू गोविन्द सिंह जी तक पं० कृपा राम दत्त गुरू परिवार के साथ रहे और उनका परिवार कश्मीर में नानक पथ का प्रचार करता रहा। गुरु हरिगोबिंद जी के साथ उनके भाई मेहरबान के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। वह किसी न किसी रूप में गुरूजी को हानि पहुंचाता। भाई पेरा और भाई पिराना उसे समझा-बुझा कर दुष्कृत्यों से रोकते और पारिवारिक कलह को मिटाने का प्रयास करते। छठे गुरू जी ने हिन्दू धर्म की रक्षा हेतु मुगल शासकों के साथ कई युद्ध किए।
1. गुरु हरि गोविंद का सिक्ख, महान योद्धा दयाचन्द ने सन् 1685 ई० में अमृतसर युद्ध में भारी वीरता दिखाई।
2. लेहरा के युद्ध में 1200 सिक्ख मारे गए। सं० 1688 ई० में यह युद्ध हुआ। जतीमल, विधिचन्द और राय जोध की वीरता की गुरूजी ने भरपूर प्रशंसा की
3. करतारपुर का युद्ध सं० 1691 ई० में लड़ा गया। इस युद्ध में वयोवृद्ध सेनापति बाबा परागा ने पेदा खां को मार दिया था।
गुरु हरि गोविन्द सिंह 48 वर्ष 9 मास, 4 दिन की आयु में 5 चेत, सं० 1701 को सचखण्ड में जा बसे। उनकी समाधि राजा भूप सिंह द्वारा कीरतपुर में बनाई गई, जिसकी मान्यता अभी तक है। कीरतपुर बसाने के लिए नाला गढ़ के राजा ताराचन्द ने सं० 1686 वि० में गुरूजी की सहायता की थी।

 

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