गुरू हरिराय छठे गुरू हरि गोविंद जी के पोते और गुरू दित्ता के पुत्र थे। उनका जन्म 13 माघ, सं० 1686 अथवा फरवरी 1629 ई० को हुआ था। उनकी माता का नाम निहाल दई था। गुरू दित्ता धार्मिक प्रवृति के थे, परन्तु उन्होंने सगुण धारा के अन्तर्गत उदासी पंथ का प्रचार आरम्भ कर दिया। श्री हरि राय जी को सातवे गुरू के रूप में सं० 1701 वि० सन् 1644 ई० में गुरु गद्दी पर सुशोभित किया गया। गुरू हरि राय जी एक महान आध्यात्मिक व राष्ट्रवादी महापुरुष एवं एक योद्धा भी थे। उनका जन्म सन् १६३० ई० में कीरतपुर रोपड़ में हुआ था। उनकी पत्नी का नाम सुलखनी या किशन कौर था। उनके दो पुत्र राम राय और हरिकृष्ण तथा एक पुत्री रूप कौर थी। काश्मीरी ब्राह्मणों (मोहयाल, सारस्वत) ने गुरू नानक देव जी से ही सिक्ख पंथ का प्रचार-प्रसार आरम्भ किया था और वे निरन्तर इस कार्य में जुटे हुए थे। सन् 1660 ई० या सं० 1717 वि० में गुरु हरि राय कश्मीर यात्रा पर गए तो बाबा परागा और भाई पेरा की बहिन सरस्वती ने गुरु सेवा का कार्य अपने ऊपर लिया। सरस्वती का पति अरू राम दत्त, सेवा दास, दुर्गा दास आदि सिक्ख पंथ के प्रमुख प्रचारक थे। (सुरजीत सिंह : हिस्ट्री ऑफ सिक्खस्) औरंगजेब के निमंत्रण पर गुरू जी ने राम राय को दीवान दुर्गामल व अन्य शिष्यों के साथ दिल्ली भेजा। औरंगजेब द्वारा दी गई सुविधाओं और शाही ठाठ-बाठ के प्रलोभन से राम राय पिता की शिक्षाओं से विमुख हो गया। उसके साथ गए व्यक्ति भी परेशान हो गए थे उसे अपने साथ लाना चाहते थे । परन्तु राम राय वापिस घर आने को तैयार नहीं हुआ। दीवान दुर्गामल ने गुरूजी को हालात से अवगत कराया। गुरुजी बहुत दुखी हुए। हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए दिए गए उनके पूर्वजों के बलिदानों को उनके कृतघ्न पुत्र ने मिट्टी में मिला दिया था। गुरु हरिराय जी ने अपना अन्त समय आता देख कर दीवान दुर्गामल छिब्बर व अन्य शिष्य सोढी, बेदी आदि को बुलाकर छोटे पुत्र हरि कृष्ण जी के आगे पांच पैसे और नारियल रखकर, उनकी तीन परिक्रमा ली। इस प्रकार गुरू हरिकृष्ण जी को गुरु गद्दी सौंपने की उन्होंने रस्म निभाई। गुरु हरिराय जी 31 वर्ष, 4 मास और 22 दिन की आयु भोग कर 1718 वि० में ज्योति ज्योत समाए।