आचार्य रामानन्द – भारत में सगुण राम भक्ति और राम नाम अथवा (निर्गुण) भक्ति के प्रचार का श्रेय आचार्य रामानन्द को हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, ग्रियर्सन मैकालिफ आदि साहित्यकारों ने उन्हें एक महान् समाज-सुधारक माना है। उनका जन्म कान्य कुब्ज ब्राह्मण पुण्य सदन या भूरि वर्मा के घर हुआ। उनकी माता का नाम सुशीला था। उनका मूल नाम रामदत्त था। आचार्य रामानन्द के जन्म व मृत्यु के विषय में साहित्यकारों में मतभेद है। गुरु शब्द रत्नाकर महान् कोष के अनुसार इनका जन्म सं० 1423 विक्रमी तथा मृत्यु सं० 1524 है। भगवतदास कृत रामानन्द दिग्विजय” में उनका जन्म संघ 1300 वि० और स्वर्गरोहन सं० 1449 मानते हैं। परन्तु अधिकतर समीक्षकों के अनुसार उनकी जन्मतिथि माघकृष्ण सप्तमी, सं० 1356 वि० और – परलोकवास सं० 1467 वि० है। आचार्य रामानन्द बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के स्वामी थे। आठ वर्ष की अवस्था में उन्हें विद्या ग्रहण के लिए प्रयाग भेजा गया। बारह वर्ष की अवस्था में वे सभी शास्त्रों में पारंगत हो गए और उन्हें विशेष अध्ययन के लिए काशी भेज दिया गया। आचार्य रामानन्द द्वारा रचित ‘रामार्चन पद्धति में उन्होंने स्वामी राघवानन्द को अपना गुरू माना है। अगस्त्य संहिता, नाभाकृत भक्तमाल, भविष्य पुराण आदि के अनुसार उनके गुरु राघवानन्द थे। वह आचार्य रामानुज की चौथी पीढ़ी में हुए। गुरु राघवानन्द अपनी वृद्धावस्था के कारण सदैव चिन्तित रहते थे कि उनके बाद ‘श्री’ सम्प्रदाय के सिद्धान्तों की रक्षा कैसे होगी। इसलिए उन्हें एक योग्य शिष्य की आवश्यकता थी। प्रतिभाशाली रामानन्द को पाकर वे सन्तुष्ट हो गए। उन्हें एक उपयुक्त शिष्य मिल गया। वेद-वेदांग में प्रकाण्ड होने के पश्चात् स्वामी रामानन्द भारत भ्रमण के लिए निकले। उत्तरी भारत के हिन्दू समाज की दुर्दशा देखकर वे बहुत दुःखी हुए। मुस्लिम शासक थे. हिन्दू शासित। हिन्दू पग-2 पर शासक वर्ग द्वारा अपमानित होते थे। हिन्दुओं के धार्मिक स्थल तोड़कर, मस्जिदें बनाई जा रही थी। मुस्लिम संस्कृति भारतीय संस्कृति पर पूर्णतया हावी हो रही थी। हिन्दू अपनी संस्कृति, प्राचीन परम्पराओं और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रयास कर रहे थे। ऐसी परिस्थिति में दो प्रकार के लोग हिन्दुओं की रक्षा के लिए आगे आए। पराशर स्मृति के टीकाकार माध्व तथा मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लक भट्ट आदि हिन्दू धर्म को अधिक कट्टर बनाकर विदेशी धर्म के हस्ताक्षेप से बचाना चाहते थे। उन्होंने वर्ण व्यवस्था, विवाह, खान-पान आदि के नियमों को सुदृढ़ बना कर हिन्दू धर्म को संक्रमण से बचाने के प्रयास किये। दूसरी ओर आचार्य रामानन्द हिन्दू धर्म का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे सुग्राहय और सरल बनाना चाहते थे। उन्होंने छुआछुत को दूर करने का करने का उपदेश दिया। सभी हिन्दुओं के लिए भक्ति मार्ग के द्वार खोल दिए। व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है कि चाहे वह निर्गुंण राम (ब्रह्म) की भक्ति करे या दशस्थ सुत राम की साकार भक्ति अपनाए। उनके उदारवादी दृष्टिकोण से उनके कई साथी रूष्ट हो गए। उन्होंने रामानन्द को भ्रष्ट कहकर उनका बहिष्कार कर दिया और गुरु राघवानन्द को भी अवगत कर दिया। जब रामानन्द मठ में वापिस पहुंचे। गुरु अपने प्रिय शिष्य की शक्ल देखना नहीं चाहते थे। बड़ी कठिनाई से रामानन्द ने गुरू जी से कुछ समय मांगा और अपने तर्कों से उन्हें प्रभावित किया। गुरु राघवानन्द ने उन्हें अपना अलग सम्प्रदाय चलाने का परामर्श दिया। स्वामी रामानन्द ने अपने सम्प्रदाय का नाम वैरागी सम्प्रदाय’ या रामानन्द सम्प्रदाय’ रखा तथा पंचगंगा घाट काशी को अपना धार्मिक केन्द्र बनाया। अपने मत के समर्थन में आचार्य रामानन्द को कई विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ करना पड़ा। और उनका विरोध भी सहना पड़ा। तथापि उनके उपदेशों का आम जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनका सर्वाधिक प्रभाव गुजरात के सन्तों पर पड़ा जिन्होंने उनके सिद्धान्तों को मानते हुए अमूल्य साहित्य की रचना की। हिन्दू धर्म व संस्कृति की डूबती नैया को बचाने के लिए हिन्दुओं को आचार्य रामानन्द जैसे धार्मिक नेता की आवश्यकता थी, जिनसे प्रेरणा पा कर शोषित हिन्दू समाज अत्याचारियों का सामना करने के लिए तैयार हो पड़े। आचार्य रामानन्द ने समस्त भारत में षडाक्षर मंत्र “ओउम् रामाय नमः का प्रचार किया। उनके प्रमुख शिष्य बारह थे, जो सभी जातियों से सम्बंधित थे। वे शिष्य थे- नरहरि, अनन्तानंद, सुरसुरानन्द, योगानन्द, कबीर, धन्ना पीपा, मीना, रविदास, गालवानन्द, पद्यावती आदि। ‘भविष्य पुराण और ‘प्रसंग पारिजात’ के अनुसार सिक्ख पंथ के प्रवर्त्तक गुरुनानक को भी उनका प्रशिष्य और जनक का अवतार कहा गया है। अकाली आन्दोलन से पूर्व सिक्ख धार्मिक अनुष्ठानों में आचार्य रामानन्द से आरती आरम्भ की जाती थी। आचार्य रामानन्द के शिष्यों ने सगुण और निर्गुण दोनों भक्तिमार्गों को अपनाया। पंजाब में चार स्थानों पर गुरू गद्दियों स्थापित हो गई। जिला गुरूदास पुर में पण्डोरी घाम और गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) के बद्दो की गोसाईयाँ’ स्थान पर ब्राह्मण गद्दियों थी उन्होंने सगुण राम भक्ति को अपनाया। तलवण्डी (पाकिस्तान) या ननकाना साहिब तथा ध्यानपुर, जिला गुरदासपुर में बावा लाल की क्षत्रिय गद्दियों थी। गुरुनानक ने निर्गुण भक्ति को अपनाया। बाबा लाल ने सगुण राम और निर्गुण राम दोनों का प्रचार किया। हिन्दुओं को संगठित करने में भी ये केन्द्र बहुत सहायक हुए। मुस्लिम शासकों के प्रलोभनों व उत्पीड़न से विचलित होकर जो हिन्दू धड़ाधड़ मुसलमान हो रहे थे। उन्हें इन उपदेशों से बल मिला और अपने धर्म में उनकी निष्ठा दृढ़ हुई। रामानन्द की शिष्य परम्परा में स्वामी नरहरि दांस के शिष्य गोस्वामी तुलसीदास हुए। उनके द्वारा रचित राम चरितमानस के विषय में कहा गया है कि यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि झोंपड़ी से लेकर महल तक इसकी गति है। मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में उनका विरोध भी सहना पड़ा। तथापि उनके उपदेशों का आम जनता पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनका सर्वाधिक प्रभाव गुजरात के सन्तों पर पड़ा जिन्होंने उनके सिद्धान्तों को मानते हुए अमूल्य साहित्य की रचना की। हिन्दू धर्म व संस्कृति की डूबती नैया को बचाने के लिए हिन्दुओं को आचार्य रामानन्द जैसे धार्मिक नेता की आवश्यकता थी, जिनसे प्रेरणा पा कर शोषित हिन्दू समाज अत्याचारियों का सामना करने के लिए तैयार हो पड़े। आचार्य रामानन्द ने समस्त भारत में षडाक्षर मंत्र “ओम् रामाय नमः ” का प्रचार किया। रामानन्द सम्प्रदाय में गुरु का बहुत महत्व है। विद्या, योग, सिद्धि, गुरु कृपा बिना नहीं मिलती। राम के साथ नाता जोड़ने वाले गुरू की महिमा अपूर्व है। गुरू कृपा रूपी जहाज से अज्ञानी भी भवसागर से तैर जाता है। सतगुरू के दर्शन से आत्मा के दर्शन होते हैं। उपरोक्त सम्प्रदाय में भक्ति का स्थान मानव हृदय है। भक्ति हृदय से की जाती है, बुद्धि से नहीं। रामानुज सम्प्रदाय या श्री सम्प्रदाय के उपास्य लक्ष्मी नारायण हैं और रामानन्द या वैरागी सम्प्रदाय के उपास्य सीता राम हैं। प्रथम का सांप्रदायिक मंत्र “ओम् नारायणाय नमः है तो द्वितीय का “ओम् रामाय नमः” अगस्त्य संहिता में आचार्य रामानन्द के प्रभाव के विषय में लिखा है- “अपने द्वादश सूर्य सदृश शिष्यों से घिर कर विष्णु की भांति रामानन्द इसी पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए उन्हें राममंत्र का उपदेश देते हुए चारों दिशाओं में विचरण करते, नास्तिकों को पराजित करते, लोक-अज्ञान को दूर करते, लोगों में अनेक गुणों का संचार करते हुए सुशोभित होगें। आचार्य रामानन्द के विषय में यह कथन नितान्त सत्य है। आधुनिक साहित्यकारों ने उन्हें एक महान सुधारक कह कर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। भक्ति आंदोलन : भक्ति आन्दोलन दक्षिण भारत से आरम्भ हुआ था। परन्तु उसने शीघ्र ही समस्त भारत को अपनी लपेट में ले लिया। मुगलकाल में यह आंदोलन सारे भारत में फैल कर पराकाष्ठा तक पहुंच गया था। इसके विषय में एडवर्डस् तथा बेरेट ने लिखा है। मुगलकाल में राजनैतिक रूप में बंटा हुआ भारत भी सांस्कृतिक रूप से संगठित हो रहा था। आचार्य रामानन्द बल्लभाचार्य, चैतन्य महाप्रभु, कबीर, नानक, नामदेव तुलसीदास आदि भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक थे। उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन दो धाराओं निर्गुण और सगुण में प्रकट हुआ। निर्गुण धारा के प्रवर्तक सन्त कबीर, नानक, आदि थे जिन्होंने समस्त भारत में धूम-धूम कर साधूकूकड़ी भाषा में लोगों को मोक्ष प्राप्ति का सरल मार्ग दिखाया। सन्तमत का प्रभाव निम्न जातियों पर अधिक पड़ा। उन्हें एक सीधा-साधा धर्म मिल गया। सगुण धारा में कृष्ण भक्ति एवं राम भक्ति का विकास हुआ। कृष्ण भक्तों में सूर आदि अष्टछाप कवि तथा मीरा विख्यात हैं। उनके मधुर गीतों ने जनता के घायल हृदयों पर शीतल रसायण का काम किया तथा कृष्ण के मोहक व्यक्तित्व के माध्यम से लोग प्रभु भक्ति में लीन हुए। कृष्ण भक्ति धारा भी कई शाखा-प्रशाखाओं में फूट पड़ी। इनमें प्रधान हैं-मध्वाचर्य, बल्भाचार्य, चैतन्य, राधा बल्लभ और हरिदासी सम्प्रदाय । रामभक्ति धारा के प्रमुख प्रवर्तक आचार्य रामानन्द थे। उनके प्रशिष्य तुलसीदास हुए। उस समय की धार्मिक परिस्थितियों को एक पारखी की तरह परखते हुए तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम राम का आदर्श भारतीय समाज के सन्मुख रखा। धर्म व संस्कृति की इस नैया को बचाने के लिए आवश्यकता ऐसी जीवनी की थी जिसके चारित्रिक दृढ़ता की प्रेरणा पाकर पद दलित समाज अत्याचारों का सामना करने के लिए उठ जाए और तुलसीदास के सपनों का राम राज्य लाने की क्षमता प्राप्त कर सके। तुलसीदास का युग राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक अव्यवस्था का युग था। मुस्लिम शासकों के अधीन भारतीय संस्कृति छिन्न-भिन्नं हो गई थी। तुलसीदास भारतीय संस्कृति के अनन्य भक्त थे। इस का पतन वे सहन नहीं कर सके। उन्होंने असाधारण प्रतिभा द्वारा लोगों का पथ प्रदर्शन किया और सांस्कृतिक रूप से छिन्न-भिन्न होते भारतवासियों को एक सूत्र में बांधा। इस महान राम भक्त का उल्लेख तत्कालीन इतिहास ‘आइने अकबरी’ और अकबरनामा में नहीं है। इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद का कथन है. अकबर का साम्राज्य समाप्त हो गया, परन्तु तुलसीदास का साम्राज्य लाखों भारतीयों के मनो और हृदयों में अभी तक स्थापित है। श्री राम चरित मानस तुलसीदास का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। यह भक्ती काव्य है। इसकी रचना का मुख्य उद्देश्य रामभक्ति का प्रचार है। इसका रचनाकाल मंगलवार, चैत्र शुक्ला नवमी, सं० 1631 है।” इस ग्रन्थ की मान्यता झोपड़ी से महल तक है।