“भाई गुरदास पंजाबी लेखक, इतिहासकार, उपदेशक तथा धार्मिक नेता थे। गुरु ग्रन्थ साहिब का मूल लेखन उन्होने ही किया था। वे चार गुरुओं के साथी भी रहे”
भाई केसर सिंह छिब्यर के अनुसार भाई गुरुदास का जन्म स० 1608 वि० है। भाई गुरुदास की जन्म तिथि में विद्वानो में मतभेद है।
वे तृतीय गुरु अमरदास के चचेरे भाई ईश्वरदास के पुत्र थे। उनकी माता का नाम बीबी जीवनी था। भाई गुरूदास अभी तीन वर्ष के थे जब उनके पिता ईश्वर चन्द्र का देहांत हो गया। गुरु अमरदास उन्हें अपने पास ले आए। गोंयदवाल में संस्कृत, हिन्दी, पंजाबी और फारसी के शिक्षा केन्द्र प्रारम्भ हो गए थे। भाई | गुरूवास ने आरम्भिक शिक्षा गोंयदवाल में प्राप्त की। तत्पश्चात् उन्हें काशी भेज दिया गया। काशी में उनके शिक्षक पं० केशो राम थे। वे बारह वर्ष के हुए तो उनकी माता का देहान्त हो गया। उनका कोई वहिन-भाई नहीं था। ये गुरु अमरदास की छत्रछाया में बड़े हुए। ये अविवाहित थे। (तवारीख गुरु खालसा) में भाई गुरूदास को “गुरू घर का व्यास” कहा है। वे उच्च कोटि के विद्वान व साहित्यकार थे। जब – जब गुरु-परिवार पर संकट आया उन्होंने बाबा परागा के साथ मिलकर उसका समाधान किया। काशी से लौटने के पश्चात सं० 1629 में भाई गुरूदास को जम्मू-काश्मीर में प्रचार के लिए भेज दिया गया। वे जम्मू में ही थे कि जब गुरु अमरदास का स्वर्ग-आरोहण हो गया। सं० 1634 वि० में वे कश्मीर गए और वहां भाई माधोदास को प्रचार कार्य सौंपा असूज, 1678 वि० को अकबर ने सर्व धर्म सम्मलेन का आयोजन किया। उसमें भाई गुरूदास प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। भाई गुरुदास उच्च कोटि के साहित्यकार थे। उन्होंने पंजाबी भाषा में ‘वारे’ जिनकी संख्या 40 है लिखी और ब्रज भाषा जो उस समय उत्तरी भारत की साहित्यक भाषा थी उसमें ‘कवित्त’ लिखे। प्रथमवार ‘ज्ञान रत्नावलि´ भाई जी की प्रमुख रचना है जिस पर टीका भाई मणि सिंह ने लिखी। इस वार में गुरूनानक देव जी के जीवन की प्रमुख घटनाओं तथा छः गुरुओं की महिमा का वर्णन किया। है। कवित्तो की संख्या 675 है। गुरू नानक जी के जन्म को भाई गुरुदास इस प्रकार व्यक्त करते है सतगुरू नानक प्रगटिया, मिटी धुंध जग चानन होया। जिउ कर सूरज निकलिया, तारे छपे अधेर पलोया!! बाबा फिरि मक्के गइया, नील वस्त्र धारि बनवारी। बैठा जाए मसीत विच, जिथे हाजी हजि गुजारी।। जा बाया सुत्ता रात नू. वल महराये पाए पसारी। जीवणि मारी लति दी, केहड़ा सुत्ता कुफर कुफारी ।। टंग पकड़ घसीटया, फिरिया मक्का कला दिखारी।। श्री कृष्ण जी की महानता का भाई गुरूवास इस प्रकार वर्णन करते हैँ जाई सुत्ता प्रभास विधि, गोडे उत्ते पैर पसारे। घरन कमल विच पदम है, झिलमिल झलके वांगतारे। यधिक आया भालवा, मृग जाणि बाण ले मारे। दरसन विठेसु जाइ के, करन पलाव करे पुकारे। गल विच लीता कुसन जी, अवगुण कीता हरि न चितारे। कर कृपा सन्तोखिया, पतित उधारण विश्व विचारें। बुरियां दे हरि काज संवारे, पाप कर दे पतित उधारे। भाई गुरूदास द्वारा ‘वाहिगुरू’ मंत्र की व्याख्या निम्न है। परन्तु आधुनिक सिक्ख इतिहासकार इसे अन्य भाई गुरूदास द्वारा रचित मानते हैँ:- ससिजुग गया विष्णु नाम जपाये। द्वापर सत्तगुरू हरिकृष्ण हरि हरि नाम जपाये।। त्रेते सतगुर राम जी राम राम जपे सुख पाये। कलियुग गुरु हरि गोविंद गगा नाम जपावे।। चारो अछर इकक वाहिगुरू जप मंत्र जपावै ।। जहिते उपजियां फिर तहि समाये ।। गुरू राम दास के स्वर्गवास होने के पश्चात भाई गुरूदास का मन वैराग्य से परिपूर्ण हो गया। गुरू जी का वियोग उनके लिए असहय था। वे अपना अधिक समय सिक्ख धर्म के प्रचार तथा आदि ग्रंथ’ के लिए सामग्री जुटाने में बिताने लगे। उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण कर संतो और महात्माओं की वाणी इकट्ठा की। सं० 1660 वि०, बैसाखी के दिन भाई गुरुदास ने गुरु ग्रंथ साहिब का शुभारम्भ किया और सं० 1662 को सम्पूर्ण किया। प्रथम ग्रंथी भाई परागा को बनाया। सिक्ख पंथ के विकास और उसे सुदृढ़ करने का श्रेय भाई गुरूदास और बाबा परागा को ही दिया जाता है। गुरु अर्जुन देव ने उनकी वाणी भी श्री गुरु ग्रंथ साहिय में शामिल करने के लिए भाई गुरुदास को कहा, परन्तु उन्होंने नम्रता से टाल दिया। गुरू जी ने कहा “आपकी वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब की कुंजी है।” आपकी वाणी पढ़ने के पश्चात सिक्ख संगत गुरु ग्रंथ साहिब की वाणी आसानी से समझ सकेगी। देहान्त : भावों सुदि 8, सं० 1694 में भाई गुरूदास का देहान्त, छठे गुरू हरि गोबिंद की उपस्थिति में, गॉयदवाल के स्थान में हुआ। उनका अन्तिम संस्कार गुरू जी ने किया। उस समय गुरू जी के मुख से भाई गुरूदास की प्रशस्ति में ये शब्द निकले : महि मंडल में जस विसथारा। पाइ परमगत पंथ पधारा। चिरकाल तेरो रहे नाम। जानहि गुरू पंथ अकराम ।।