प्राचीन काल में पश्चिमी ऐशिया और योरूप में भारतीय वस्तुओं की बहुत मांग रहती थी। भारत इन देशों को गर्म मसाले, रेश्मी कपड़े. घी, चावल, सरसों का तेल तथा अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ भेजता था। यह व्यापार इतना बढ़ गया था कि रोमन का इतिहासकार पिली लिखता है, “मेरे देश का सोना-चांदी, इण्डिया से आयात किए मसाले कपड़े, सिल्क, आनाज, मनोरंजन की वस्तुओं पर खर्च होता है। भारत चीन, श्री लंका तथा पूर्वी घाट से सामान लाकर उन देशों को पहुंचाता था। बौद्ध मत के फैलने से चीन और लंका का परस्पर घनिष्ट सम्बंध हो गया। चीन ने लंका से सीधा व्यापारिक सम्बंध जोड़ लिए। उधर मिस्र और अरब ने हिन्द महासागर पर अपना आधिपत्य जमाना आरम्भ कर दिया। ये दोनों देश भारत से माल लेकर वीनस तथा जनेवा के व्यापारियों को माल बेचते थे. और ये दोनों योरूप के अन्य देशों को सामान भेजते। उन देशों को यह माल बहुत महंगा पड़ता। अत: यूरोपिय देशों में परस्पर ईर्ष्या, द्वेष बढ़ने लगा। ईसाइयों के धर्म गुरू पोप ने पापलवूल नामक आदेश निकाल कर पुर्तगाल और स्पेन को भारत पहुंचने के लिए समुद्रीमार्ग की खोज के अधिकार दे दिए। अत: 8 जुलाई, 1497 को पुर्तगाली नौसैनिक वास्को-द-गामा लिजवन से तीन जहाजों के साथ भारत की खोज के लिए निकल पड़ा। विदेशी यात्री इब्न बतूत के अनुसार 15 वी0 शताब्दी में भारत के पश्चिमी घाट में अधिकतर शासक हिन्दू थे। परन्तु प्रजा मुसलमान थी। हिन्दू नायर राजाओं ने मुसलमानों को पूजा की पूरी आजादी दे रखी थीं जबकि मुस्लिम राजा हिन्दुओं को ऐसी आजादी नहीं देते। दक्षिण कन्नड़ में एक राजा ने तीस लड़ाकू जहाजों का कमांडर एक मुसलमान को बना रखा था। कालीकट और किल्लों के बीच एक यहूदी बस्ती थी जो एक यहूदी के अधीन थी, पर वह हिन्दू राजा को टैक्स देता था। एक दिन कालीकट से आठ किलोमीटर दूर कपुकाड गांव वासियों ने तीन जहाजों के साथ गोरे पूर्तगाली लोगों को देखा तो वे हैरान हो गए। वे नहीं जानते थे कि आने वाले वे लोग उनके तथा उनके देश के लिए मुसीबत बन कर आ रहे हैं। कालीकट के राजा ने वास्को द गामा का स्वागत किया और उसे सारी सुविधाएँ दी।
राजा के इस व्यवहार से मुस्लिम व्यापारी दुखी हुए। पुर्तगालियों और अरब व्यापारियों का परस्पर संघर्ष आरम्भ हुआ। परन्तु वास्को ने राजा के साथ मित्रता रखी। वास्को-द-गामा महत्वपूर्ण जानकारी यथा-भारत का समुद्री मार्ग, व्यापार, हिन्दू राजाओं की परम्पर खींचा तानी आदि लेकर 28 जुलाई 1498 ई0 को पुर्तगाल के लिए चल पड़ा। वास्को की सफलता को देखकर पुर्तगाल के राजा ने 1500 ई० में | पैडरों-अलवरेज- सैन्टल के नियंत्रण में 13 जहाजों का बेड़ा भारत भेजा। परन्तु वह केवल 6 जहाजों के साथ 13 सितम्बर 1500 ई० को कालीकट पहुंचा। कालीकट के राजा ने उसका स्वागत किया। दोनों में मित्रता हो. गई। सैब्रल ने कालीकट में एक फैक्ट्री स्थापित कर ली। अरब के मुस्लिम व्यापारियों और पुर्तगालियों में बेर बढ़ गया था। अरबों ने फैक्ट्री को आग लगा दी कई लोग जल गए। सैब्टल की रिपोर्ट पर पुर्तगाल के राजा ने अरबों से सारा व्यापार अपने हाथ में लेने का दृढ़ निश्चय किया तथा इसाई धर्म को भी भारत में स्थापित करने का संकल्प लिया। अंत उसने 1502 ई0 में 22 जहाजों का बेड़ा वास्कों के नेतृत्व में भारत भेजा। वास्कों इतिहास में विशेष स्थान रखता है-समुद्री मार्ग की खोज अरब ने व्यापार अपने नियन्त्रण में लेना तथा इसाई धर्म को भारत में स्थापित करना आदि के लिए। उसने भारतीयों के साथ जैसा अमानवीय दुर्व्यवहार किया, वैसा शायद अत्याचारी मुस्लिम बादशाहों ने भी नहीं किया होगा। उसके भारत में घुसते ही कालीकट के राजा ने क्षतिपूर्ति के लिए धन राशि तथा कुछ लोग जिन्होंने पुर्तगाली फैक्ट्री जलाई थी. उनके साथ एक ब्राह्मण राजदूत भेजा। वास्को ने राजा को कहा कि वह शान्ति-बातों के लिए तब तैयार होगा यदि सभी मुसलमानों का अपने राज्य से बाहर निकाल दो। राजा को यह शर्त स्वीकार नहीं थी। वास्कों ने ब्राह्मण राजदूत के हाथ, नाक, कान काट कर उन्हें अच्छी प्रकार पैक करके राजा को भेजे, यह कहकर कि इनको पका कर खा लो। वास्को ने जहाजों के 8 सौ चालकों को फूंस से ढककर, उन्हें आग लगा दी। सभ्य समाज में ऐसे घृणित कार्यों का कोई उदाहरण नहीं देखा गया। सन् 1502 में ही अलफैंसो अल्बुकर्क न कोचीन को अपने अधिकार में करके वहां पहला किला बना लिया। 1505 ई० में पुर्तगाली राजा ने नई नीति अपनाई। प्रतिवर्ष जहाज भेजने के स्थान पर उसने तीन वर्ष के लिए एक वायसराय नियुक्त कर दिया। पहला वायसराय फ्रांसिसों अलमेडा सितम्बर 1505 में आया। नवम्बर 1509 ई० में अल अल्बुकर्क वायसराय बना। 4 मार्च, 1510 ई0 को बीजापुर के बादशाह आदिलशाह से गोवा को इसने अपने अधिकार में कर लिया। सन् 1546 ई0 और 1569 ई० में देव और दमन पर भी पुर्तगालियों ने कब्जा किया। दादर और नगर हवेली पहले ही वे ले चुके थें। मंगेश मंदिर का इतिहास गोवा का पहला नाम गोवापुरी या गोवकापुर था। इस प्रान्त के सासष्टी तालुक्के में अघनाशिनी नदी के पवित्र तट पर कुशस्थली, जिसे आजकल कुट्ठाल कहते हैं। मंगेश, मन्दिर पहले वहा था। प्राचीन काल में इसका बहुत महत्व व वैभव था। इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। श्री रामचन्द्र के पुत्र कुश ने कुछ समय के लिए इसे अपनी राजधानी बनाया था। चार सौ वर्ष पूर्व के पुर्तगाली सरकारी रिकार्ड से पता लगता है कि इस देवालय में सोने के आभूषण, रेशम दस्त्र, नाना प्रकार की अमूल्य वस्तुएं तथा घण्टे की चांदी की श्रृंखला थी। इसके साथ बहुत सी जमीन थी। फरवरी, 1510 ई0 को अलफंसों अल्बुकर्क द्वारा भेजे सैनिकों ने गोवा पर आक्रमण कर दिया। पहले उन्होंने कहा, ‘हम हिन्दुओं के धर्म में हस्ताक्षेप नहीं करेंगे। परन्तु 12 जनवरी, 1522 को आदेश हुआ कि सभी हिन्दू मंदिर नष्ट कर दिए जाएंगे। जिसने इधर रहना है, वह इसाई बन कर रहे, अन्यथा चला जाए। 1540 ई0 में पुर्तगाल सरकार ने गोवा के हिन्दू मंदिर, जमीन आदि सभी अपने अधिकार में ले लिये। 26 मार्च, 1559 को पुर्तगाल की रानी लिस्वानल ने घोषणा की कि 6 अक्तूबर, 1559 तक शहर के भीतर कोई मन्दिर न रहे। हिन्दू घर के भीतर या बाहर कोई धार्मिक कृत्य न करे। आज्ञा भंग करने वाले को कारावास होगा तथा उसकी जमीन, जायदाद जब्त कर ली जाएगी। अप्रैल 2 1560 ई० को वायसराय की आज्ञा हुई कि सारस्वत ब्राह्मणों को सीमा से बाहर निकाल दिया जाए। हिन्दुओं के सामने दो मार्ग थे, इसाई बनें या सर्वस्व त्याग कर चले जाए। कुछ ब्राह्मणों ने दूसरा मार्ग अपनाया। जो वहां रह गए. उनका अघनाशिनी जिसे अब जुआरी कहते हैं, के तट पर संहार कर दिया गया उसी रात्रि को गुप्त बैठक करके मंगेश मंदिर की मूर्तियों पालकी में रखकर अंधेरी रात में कुछ भक्त भूखे प्यासे निकल पड़े। जिस स्थान पर अब मंगेशी मंदिर हैं। वहां मूर्तियों को प्रतिष्ठित करके पूजा-अर्चना होने लगी। सन् 1566 में कुशावती के भवन को तोड़कर चर्च बना लिया गया। सेंट फ्रांसिस —- पुर्तगालियों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारी व हिन्दुओं द्वारा धर्म के लिए मर मिटने वालों की व्यथा गाथा बहुत लम्बी है। इसके साथ सेंट फ्रांसिस, की जानकारी भी पाठकों के लिए आवश्यक है। सेंट फ्रांसिस का जन्म 7 अप्रैल, 1506 ई0 में स्पेन के किले में हुआ था। शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वह इसाई धर्म का प्रचारक बन गया। सन् 1542 ई० में यह गोवा पहुंचा और बिशुप अल्बुकर्क को मिला वह प्रथम बिशुप था, जिसने भारत पर शासन किया। हिन्दुओं को इसाई बनाने के लिए फ्रांसिस कई हथकन्डो का उपयोग करता। हाथ में घण्टी लेकर बजाता. इसाई धर्म के गीत गा-गा कर बच्चों को सुनाता, भीड़ इक्ट्टी हो जाती। मछुवारे अपनी नौकाओं के साथ बाहर गए होते थे। उनकी स्त्रियाँ, बच्चे इन गीतों में रुचि लेते और फ्रांसिस के साथ गाने का प्रयास करते फ्रांसिस उनको. क्रास बांटता। उसे अपने कार्य में बहुत बड़ी सफलता दिखाई दे रही थी। एक रिपोर्ट में वह लिखता है “मेरा प्रभु पर विश्वास है में इसी साल एक लाख से अधिक लोगों को इसाई बना लूंगा” लोगों का धर्मान्तरण कराने के लिए स्थानीय पादरियों की आवश्यकता थी। फ्रांसिस ने “न्यू सोसायटी ऑफ जीसस” का गठन किया। इसके द्वारा ट्रावन कोर की राजधानी में पादरी तैयार करने के लिए कॉलेज खोला गया। उसमें वास्तविकता बताएं बिना कई छात्र दाखिल किए गए। कॉलेज के खर्च के लिए धन की आवश्यकता थी। इसाईयों द्वारा हिन्दू तथा उनके धार्मिक स्थलों में हस्ताक्षेप होना आरम्भ हो गया था। इसाईयों के अत्याचारों से बचने के लिए तीन ब्राह्मण कृष्ण, लोक, कोपू तथा कुछ गांवों के मुख्य प्रतिनिधि दो हजार सिक्के वार्षिक देने को तैयार हो गए. इस शर्त पर कि उनके धार्मिक स्थानों को क्षति न पहुंचाई जाए। कॉलेज में दाखिल हुए छात्रों को पता चला कि उन्हें पादरी बनाने की शिक्षा दी जा रही है तो उन्होंने वहां से भागने का निश्चय किया। कॉलेज की दीवारें ऊँची थी। थोड़े से युवक उस केंद से निकलने में सफल हुए। शेष को पीट-2 कर अपंग बना दिया गया ताकि वे भाग न सकें फ्रांसिस भारत से जापान गया। वहाँ उसे सफलता नहीं मिली जापानियों ने उसे अपने धर्मगुरुओं से संवाद करने को कहा और यह कहा कि यदि तुम्हारा धर्म हमारे धर्म से श्रेष्ठ हुआ तो अपनायें गे अन्यथा नहीं। चीन में उसे घुसने नहीं दिया गया। फ्रांसिस लगभग 10 वर्ष दक्षिण भारत, विशेष कर गोवा में रहा। इस अवधि में उसने साम, दाम, दण्ड, भेद से लाखों लोगों का धर्मान्तरण किया। वह अपने कारनामों की जो रिपोर्टस पोप को, भेजता है, पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 1 दिसम्बर 1552 को लगभग 46 वर्ष आठ मास की आयु में उसका सैंसीवन के स्थान पर देहान्त हो गया। सन् 1662 ई० में उसे ‘सेंट हुड’ की पदवी दी गई। कुछ वर्षों बाद उसके शव को गोवा के चर्च में लोगों के दर्शनार्थ रखा गया। शवक्षय हो रहा है। लोगों को अब दिखाया नहीं जा रहा। फ्रांसिस इसाईयों के लिए सेंट अथवा सन्त अवश्य था। परन्तु क्या हिन्दुओं के लिए भी महात्मा था। हिन्दू पर्यटक गोवा के चर्च में जाते हैं और यह सोचते हैं कि वे महान आत्मा के सूखे हुए शव की ही एक झलक पाकर “धन्य हो जाएंगे। उन्हें पूछना चाहिए उन गोवा बासियों से, जिनके पूर्वजों ने अपने धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए असहनीय अत्याचार सहे हैं। पुर्तगाल योरूप का ऐसा देश था, जिसने ऐशिया में सबसे पहले प्रवेश किया और सबसे बाद यहाँ से गया। भारत की स्वतन्त्रता के बाद यह आशा की जा रही थी कि पुर्तगाल सरकार ‘गोवा’ को स्वतन्त्र कर देगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। गोवा पर पुर्तगाल का अधिकार भारत की मान-मर्यादा पर गहरा आघात था। भारत सरकार ने गोवा को स्वतन्त्र कराने के भरसक प्रयास किए। परन्तु सफलता नहीं मिली। गोवा राष्ट्र: समिति नामक एक संख्या का गठन, इसी उद्देश्य से किया गया। 15 अगस्त 1955 ई0 को हजारों स्वतन्त्रता सेनावियों ने गोवा, दमन देव में प्रवेश किया। इन पर अत्याचार हुए। लगभग दो सौ लोग शहीद हुए। उनमें अधिकतर राष्ट्रीय स्वयं सेवक के थे। इस संहार के विरुद्ध भारत के सभी नगरों में हडताल की गई। पुर्तगालियों द्वारा सिंहली मछआरों पर अत्याचार होते रहे । भारत कब तक यह अमानविय कृत्य देखता रहता। अन्त में 17 -18 दिसम्बर 1961 ई. को जनरल जे एन चौधरी के नेतृत्व में ऑपरेशन विजय आरम्भ हुआ और 19 दिसम्बर दोपहर 2. बजकर 25 मिनट पर समाप्त हुआ। भारतीय सेना ने गोवा, दमन देव पर तिरंगा लहराया। भारत से विदेशी सत्ता का अन्त हुआ। भारत माता का एक भाग जो दासता की जंजीरों से जकडा था, मुक्त हुआ।
पुर्तगालियों द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार : प्राचीन काल में पश्चिमी ऐशिया और योरूप में भारतीय वस्तुओं की बहुत मांग रहती थी। भारत इन देशों को गर्म मसाले, रेश्मी कपड़े. घी, चावल, सरसों का तेल तथा अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ भेजता था। यह व्यापार इतना बढ़ गया था कि रोमन का इतिहासकार पिली लिखता है, “मेरे देश का सोना-चांदी, इण्डिया से आयात किए मसाले कपड़े, सिल्क, आनाज, मनोरंजन की वस्तुओं पर खर्च होता है। भारत चीन, श्री लंका तथा पूर्वी घाट से सामान लाकर उन देशों को पहुंचाता था। बौद्ध मत के फैलने से चीन और लंका का परस्पर घनिष्ट सम्बंध हो गया। चीन ने लंका से सीधा व्यापारिक सम्बंध जोड़ लिए। उधर मिस्र और अरब ने हिन्द महासागर पर अपना आधिपत्य जमाना आरम्भ कर दिया। ये दोनों देश भारत से माल लेकर वीनस तथा जनेवा के व्यापारियों को माल बेचते थे. और ये दोनों योरूप के अन्य देशों को सामान भेजते। उन देशों को यह माल बहुत महंगा पड़ता। अत: यूरोपिय देशों में परस्पर ईर्ष्या, द्वेष बढ़ने लगा। ईसाइयों के धर्म गुरू पोप ने पापलवूल नामक आदेश निकाल कर पुर्तगाल और स्पेन को भारत पहुंचने के लिए समुद्रीमार्ग की खोज के अधिकार दे दिए। अत: 8 जुलाई, 1497 को पुर्तगाली नौसैनिक वास्को-द-गामा लिजवन से तीन जहाजों के साथ भारत की खोज के लिए निकल पड़ा। विदेशी यात्री इब्न बतूत के अनुसार 15 वी0 शताब्दी में भारत के पश्चिमी घाट में अधिकतर शासक हिन्दू थे। परन्तु प्रजा मुसलमान थी। हिन्दू नायर राजाओं ने मुसलमानों को पूजा की पूरी आजादी दे रखी थीं जबकि मुस्लिम राजा हिन्दुओं को ऐसी आजादी नहीं देते। दक्षिण कन्नड़ में एक राजा ने तीस लड़ाकू जहाजों का कमांडर एक मुसलमान को बना रखा था। कालीकट और किल्लों के बीच एक यहूदी बस्ती थी जो एक यहूदी के अधीन थी, पर वह हिन्दू राजा को टैक्स देता था। एक दिन कालीकट से आठ किलोमीटर दूर कपुकाड गांव वासियों ने तीन जहाजों के साथ गोरे पूर्तगाली लोगों को देखा तो वे हैरान हो गए। वे नहीं जानते थे कि आने वाले वे लोग उनके तथा उनके देश के लिए मुसीबत बन कर आ रहे हैं। कालीकट के राजा ने वास्को द गामा का स्वागत किया और उसे सारी सुविधाएँ दी। राजा के इस व्यवहार से मुस्लिम व्यापारी दुखी हुए। पुर्तगालियों और अरब व्यापारियों का परस्पर संघर्ष आरम्भ हुआ। परन्तु वास्को ने राजा के साथ मित्रता रखी। वास्को-द-गामा महत्वपूर्ण जानकारी यथा-भारत का समुद्री मार्ग, व्यापार, हिन्दू राजाओं की परम्पर खींचा तानी आदि लेकर 28 जुलाई 1498 ई0 को पुर्तगाल के लिए चल पड़ा। वास्को की सफलता को देखकर पुर्तगाल के राजा ने 1500 ई० में | पैडरों-अलवरेज- सैन्टल के नियंत्रण में 13 जहाजों का बेड़ा भारत भेजा। परन्तु वह केवल 6 जहाजों के साथ 13 सितम्बर 1500 ई० को कालीकट पहुंचा। कालीकट के राजा ने उसका स्वागत किया। दोनों में मित्रता हो. गई। सैब्रल ने कालीकट में एक फैक्ट्री स्थापित कर ली। अरब के मुस्लिम व्यापारियों और पुर्तगालियों में बेर बढ़ गया था। अरबों ने फैक्ट्री को आग लगा दी कई लोग जल गए। सैब्टल की रिपोर्ट पर पुर्तगाल के राजा ने अरबों से सारा व्यापार अपने हाथ में लेने का दृढ़ निश्चय किया तथा इसाई धर्म को भी भारत में स्थापित करने का संकल्प लिया। अंत उसने 1502 ई0 में 22 जहाजों का बेड़ा वास्कों के नेतृत्व में भारत भेजा। वास्कों इतिहास में विशेष स्थान रखता है-समुद्री मार्ग की खोज अरब ने व्यापार अपने नियन्त्रण में लेना तथा इसाई धर्म को भारत में स्थापित करना आदि के लिए। उसने भारतीयों के साथ जैसा अमानवीय दुर्व्यवहार किया, वैसा शायद अत्याचारी मुस्लिम बादशाहों ने भी नहीं किया होगा। उसके भारत में घुसते ही कालीकट के राजा ने क्षतिपूर्ति के लिए धन राशि तथा कुछ लोग जिन्होंने पुर्तगाली फैक्ट्री जलाई थी. उनके साथ एक ब्राह्मण राजदूत भेजा। वास्को ने राजा को कहा कि वह शान्ति-बातों के लिए तब तैयार होगा यदि सभी मुसलमानों का अपने राज्य से बाहर निकाल दो। राजा को यह शर्त स्वीकार नहीं थी। वास्कों ने ब्राह्मण राजदूत के हाथ, नाक, कान काट कर उन्हें अच्छी प्रकार पैक करके राजा को भेजे, यह कहकर कि इनको पका कर खा लो। वास्को ने जहाजों के 8 सौ चालकों को फूंस से ढककर, उन्हें आग लगा दी। सभ्य समाज में ऐसे घृणित कार्यों का कोई उदाहरण नहीं देखा गया। सन् 1502 में ही अलफैंसो अल्बुकर्क न कोचीन को अपने अधिकार में करके वहां पहला किला बना लिया। 1505 ई० में पुर्तगाली राजा ने नई नीति अपनाई। प्रतिवर्ष जहाज भेजने के स्थान पर उसने तीन वर्ष के लिए एक वायसराय नियुक्त कर दिया। पहला वायसराय फ्रांसिसों अलमेडा सितम्बर 1505 में आया। नवम्बर 1509 ई० में अल अल्बुकर्क वायसराय बना। 4 मार्च, 1510 ई0 को बीजापुर के बादशाह आदिलशाह से गोवा को इसने अपने अधिकार में कर लिया। सन् 1546 ई0 और 1569 ई० में देव और दमन पर भी पुर्तगालियों ने कब्जा किया। दादर और नगर हवेली पहले ही वे ले चुके थें। मंगेश मंदिर का इतिहास गोवा का पहला नाम गोवापुरी या गोवकापुर था। इस प्रान्त के सासष्टी तालुक्के में अघनाशिनी नदी के पवित्र तट पर कुशस्थली, जिसे आजकल कुट्ठाल कहते हैं। मंगेश, मन्दिर पहले वहा था। प्राचीन काल में इसका बहुत महत्व व वैभव था। इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। श्री रामचन्द्र के पुत्र कुश ने कुछ समय के लिए इसे अपनी राजधानी बनाया था। चार सौ वर्ष पूर्व के पुर्तगाली सरकारी रिकार्ड से पता लगता है कि इस देवालय में सोने के आभूषण, रेशम दस्त्र, नाना प्रकार की अमूल्य वस्तुएं तथा घण्टे की चांदी की श्रृंखला थी। इसके साथ बहुत सी जमीन थी। फरवरी, 1510 ई0 को अलफंसों अल्बुकर्क द्वारा भेजे सैनिकों ने गोवा पर आक्रमण कर दिया। पहले उन्होंने कहा, ‘हम हिन्दुओं के धर्म में हस्ताक्षेप नहीं करेंगे। परन्तु 12 जनवरी, 1522 को आदेश हुआ कि सभी हिन्दू मंदिर नष्ट कर दिए जाएंगे। जिसने इधर रहना है, वह इसाई बन कर रहे, अन्यथा चला जाए। 1540 ई0 में पुर्तगाल सरकार ने गोवा के हिन्दू मंदिर, जमीन आदि सभी अपने अधिकार में ले लिये। 26 मार्च, 1559 को पुर्तगाल की रानी लिस्वानल ने घोषणा की कि 6 अक्तूबर, 1559 तक शहर के भीतर कोई मन्दिर न रहे। हिन्दू घर के भीतर या बाहर कोई धार्मिक कृत्य न करे। आज्ञा भंग करने वाले को कारावास होगा तथा उसकी जमीन, जायदाद जब्त कर ली जाएगी। अप्रैल 2 1560 ई० को वायसराय की आज्ञा हुई कि सारस्वत ब्राह्मणों को सीमा से बाहर निकाल दिया जाए। हिन्दुओं के सामने दो मार्ग थे, इसाई बनें या सर्वस्व त्याग कर चले जाए। कुछ ब्राह्मणों ने दूसरा मार्ग अपनाया। जो वहां रह गए. उनका अघनाशिनी जिसे अब जुआरी कहते हैं, के तट पर संहार कर दिया गया उसी रात्रि को गुप्त बैठक करके मंगेश मंदिर की मूर्तियों पालकी में रखकर अंधेरी रात में कुछ भक्त भूखे प्यासे निकल पड़े। जिस स्थान पर अब मंगेशी मंदिर हैं। वहां मूर्तियों को प्रतिष्ठित करके पूजा-अर्चना होने लगी। सन् 1566 में कुशावती के भवन को तोड़कर चर्च बना लिया गया। सेंट फ्रांसिस —- पुर्तगालियों द्वारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारी व हिन्दुओं द्वारा धर्म के लिए मर मिटने वालों की व्यथा गाथा बहुत लम्बी है। इसके साथ सेंट फ्रांसिस, की जानकारी भी पाठकों के लिए आवश्यक है। सेंट फ्रांसिस का जन्म 7 अप्रैल, 1506 ई0 में स्पेन के किले में हुआ था। शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वह इसाई धर्म का प्रचारक बन गया। सन् 1542 ई० में यह गोवा पहुंचा और बिशुप अल्बुकर्क को मिला वह प्रथम बिशुप था, जिसने भारत पर शासन किया। हिन्दुओं को इसाई बनाने के लिए फ्रांसिस कई हथकन्डो का उपयोग करता। हाथ में घण्टी लेकर बजाता. इसाई धर्म के गीत गा-गा कर बच्चों को सुनाता, भीड़ इक्ट्टी हो जाती। मछुवारे अपनी नौकाओं के साथ बाहर गए होते थे। उनकी स्त्रियाँ, बच्चे इन गीतों में रुचि लेते और फ्रांसिस के साथ गाने का प्रयास करते फ्रांसिस उनको. क्रास बांटता। उसे अपने कार्य में बहुत बड़ी सफलता दिखाई दे रही थी। एक रिपोर्ट में वह लिखता है “मेरा प्रभु पर विश्वास है में इसी साल एक लाख से अधिक लोगों को इसाई बना लूंगा” लोगों का धर्मान्तरण कराने के लिए स्थानीय पादरियों की आवश्यकता थी। फ्रांसिस ने “न्यू सोसायटी ऑफ जीसस” का गठन किया। इसके द्वारा ट्रावन कोर की राजधानी में पादरी तैयार करने के लिए कॉलेज खोला गया। उसमें वास्तविकता बताएं बिना कई छात्र दाखिल किए गए। कॉलेज के खर्च के लिए धन की आवश्यकता थी। इसाईयों द्वारा हिन्दू तथा उनके धार्मिक स्थलों में हस्ताक्षेप होना आरम्भ हो गया था। इसाईयों के अत्याचारों से बचने के लिए तीन ब्राह्मण कृष्ण, लोक, कोपू तथा कुछ गांवों के मुख्य प्रतिनिधि दो हजार सिक्के वार्षिक देने को तैयार हो गए. इस शर्त पर कि उनके धार्मिक स्थानों को क्षति न पहुंचाई जाए। कॉलेज में दाखिल हुए छात्रों को पता चला कि उन्हें पादरी बनाने की शिक्षा दी जा रही है तो उन्होंने वहां से भागने का निश्चय किया। कॉलेज की दीवारें ऊँची थी। थोड़े से युवक उस केंद से निकलने में सफल हुए। शेष को पीट-2 कर अपंग बना दिया गया ताकि वे भाग न सकें फ्रांसिस भारत से जापान गया। वहाँ उसे सफलता नहीं मिली जापानियों ने उसे अपने धर्मगुरुओं से संवाद करने को कहा और यह कहा कि यदि तुम्हारा धर्म हमारे धर्म से श्रेष्ठ हुआ तो अपनायें गे अन्यथा नहीं। चीन में उसे घुसने नहीं दिया गया। फ्रांसिस लगभग 10 वर्ष दक्षिण भारत, विशेष कर गोवा में रहा। इस अवधि में उसने साम, दाम, दण्ड, भेद से लाखों लोगों का धर्मान्तरण किया। वह अपने कारनामों की जो रिपोर्टस पोप को, भेजता है, पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 1 दिसम्बर 1552 को लगभग 46 वर्ष आठ मास की आयु में उसका सैंसीवन के स्थान पर देहान्त हो गया। सन् 1662 ई० में उसे ‘सेंट हुड’ की पदवी दी गई। कुछ वर्षों बाद उसके शव को गोवा के चर्च में लोगों के दर्शनार्थ रखा गया। शवक्षय हो रहा है। लोगों को अब दिखाया नहीं जा रहा। फ्रांसिस इसाईयों के लिए सेंट अथवा सन्त अवश्य था। परन्तु क्या हिन्दुओं के लिए भी महात्मा था। हिन्दू पर्यटक गोवा के चर्च में जाते हैं और यह सोचते हैं कि वे महान आत्मा के सूखे हुए शव की ही एक झलक पाकर “धन्य हो जाएंगे। उन्हें पूछना चाहिए उन गोवा बासियों से, जिनके पूर्वजों ने अपने धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए असहनीय अत्याचार सहे हैं। पुर्तगाल योरूप का ऐसा देश था, जिसने ऐशिया में सबसे पहले प्रवेश किया और सबसे बाद यहाँ से गया। भारत की स्वतन्त्रता के बाद यह आशा की जा रही थी कि पुर्तगाल सरकार ‘गोवा’ को स्वतन्त्र कर देगी। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। गोवा पर पुर्तगाल का अधिकार भारत की मान-मर्यादा पर गहरा आघात था। भारत सरकार ने गोवा को स्वतन्त्र कराने के भरसक प्रयास किए। परन्तु सफलता नहीं मिली। गोवा राष्ट्र: समिति नामक एक संख्या का गठन, इसी उद्देश्य से किया गया। 15 अगस्त 1955 ई0 को हजारों स्वतन्त्रता सेनावियों ने गोवा, दमन देव में प्रवेश किया। इन पर अत्याचार हुए। लगभग दो सौ लोग शहीद हुए। उनमें अधिकतर राष्ट्रीय स्वयं सेवक के थे। इस संहार के विरुद्ध भारत के सभी नगरों में हडताल की गई। पुर्तगालियों द्वारा सिंहली मछआरों पर अत्याचार होते रहे । भारत कब तक यह अमानविय कृत्य देखता रहता। अन्त में 17 -18 दिसम्बर 1961 ई. को जनरल जे एन चौधरी के नेतृत्व में ऑपरेशन विजय आरम्भ हुआ और 19 दिसम्बर दोपहर 2. बजकर 25 मिनट पर समाप्त हुआ। भारतीय सेना ने गोवा, दमन देव पर तिरंगा लहराया। भारत से विदेशी सत्ता का अन्त हुआ। भारत माता का एक भाग जो दासता की जंजीरों से जकडा था, मुक्त हुआ।