दिलीप (द्वितीय) खटवांग राजा दिलीप ईक्ष्वाकु वंश के 61वें राजा हुए हैं। इनके पिता का नाम विश्व सह और माता यशोदा थी। यशोदा पितृ की बेटी थी। दिलीप का विवाह मगध देश की राजकुमारी सुदक्षिणा से हुआ था । विवाह को हुए कई वर्ष बीत गए, परन्तु इन्हें सन्तान प्राप्ति नहीं हुई। राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा सन्तान प्राप्ति हेतु गुरु वसिष्ठ का आशीर्वाद लेने, उनके आश्रम में गए। आश्रम पहुंचने से पहले ही उन्होंने अपने सैनिकों को कहा कि वे घोड़ों को विश्राम कराएँ। दोनों रथ से उतर कर पैदल ही चल पड़े। मुनि-शिष्यों ने उनकी पूजा की। दम्पति ने गुरू और गुरू पत्नी को प्रणाम किया। उनकी थकावट दूर हो गई तो गुरू वसिष्ठ ने राजा से राज्य के सातों अंगों- स्वामी, मंत्री, मित्र, कोष, राष्ट्र, किला, सेना आदि का कुशल पूछा। राजा ने कहा, “हे गुरूदेव, मेरे राज्य के सातों अंगों में कुशल क्यों न हो, जिसके दैवी अग्नि, जल, रोग, दुर्भिक्ष और मरण) तथा मानुषी ( ठग, चोर, शत्रु, राजा का लोभ और राजा के कृपापात्र) आपत्तियों के नाश करने वाले आप स्वयं विद्यमान हैं। मेरी प्रजा सौ वर्ष तक जीने वाली और आठ ईतियों (अतिवृष्टि, अनावृष्टि, चूहा, टिड्डी, शुक, पक्षी, शत्रुओं का आक्रमण आदि) से बची हुई है। इसका कारण आप का ब्रह्म तेज है। जब आप मेरे गुरू हैं, सदैव मेरे कल्याण की चिन्ता करते हैं, फिर आपत्ति से रहित मेरी सम्पत्ति निरन्तर अविच्छिन्न क्यों न रहे। आपकी शिष्या वधु सन्तानहीन होने के कारण उदास रहती है। तप और दान के कारण जो पुण्य मिलता है । वह परलोक में सुख देने वाला होता है। परन्तु पवित्र वंश में उत्पन्न हुई सन्तान इस लोक और परलोक दोनों में सुख देने वाली होती है । ऋषि वसिष्ठ कुछ देर आंखें मूंद बैठे रहे, फिर एकाग्रचित हो उन्होंने कहा, “राजा दिलीप तुम्हें कामधेनु ने शाप दिया हुआ है। तुम उसकी पुत्री नंदिनी की सेवा करो। तुम्हें पुत्र प्राप्ति होगी। दोनों कुछ समय आश्रम में रहो। रानी सुदक्षिणा आश्रम के भीतर उसकी सेवा करे और तुम्हें गाय के पीछे-2 जाना होगा। ऋषि ने वनवासियों के उपयोग योग्य सामग्री का राजा के लिए प्रबन्ध कर दिया। राजा और रानी के लिए पर्ण कुटी, व कुश शय्या तैयार की गई । मुनि के आदेशानुसार राजा और रानी ने नंदिनी की सेवा का व्रत धारण किया । राजा दिलीप धेनु के पीछे-2 वन में चलते रहते। एक दिन नंदिनी पर एक मायावी सिंह ने आक्रमण कर दिया। राजा ने स्वयं को अर्पण कर नंदिनी की रक्षा की। राजा गाय की सेवा का व्रत पूरा कर चुका तो गुरू वसिष्ठ ने उसे और रानी को अयोध्या नगरी में भेज दिया। यथा समय दिलीप के घर पुत्र रत्न हुआ जिसका नाम रघु रखा 1 रघु बालपन से ही असाधारण प्रतिभा सम्पन्न था। उसने शीघ्र ही अस्त्र शस्त्र आदि क्षत्रियोंचित सभी विधाएं सीख लीं। किशोर अवस्था में ही उसने पिता द्वारा आरम्भ किंए अश्वमेघ यज्ञ-अश्वों की रक्षा का भार अपने उपर ले लिया था । चक्रवर्ती राजा दिलीप ने 99 अश्वमेघ यज्ञ किए। उनमें से अधिकतर यज्ञ-अश्वों की रक्षा राजकुमार रघु ने की । सौवें अश्वमेघ के यज्ञ के घोड़े को इन्द्र ने पकड़ लिया। क्योंकि उसे अपने पद की चिन्ता पड़ गई। रघु ने इन्द्र को कहा, “हे त्रिलोक के स्वामी, धर्म पर आचरण करने वाले सज्जनों के यज्ञादि कर्म में आप स्वयं विघ्न डाल रहे हैं। इससे यज्ञादि सत्कर्म नष्ट हो जाएगे । वेद मार्ग दिखाने वाले बड़े लोगों को ऐसे निन्दित कर्म शोभा नहीं देते।” रघु के धृष्ट वचन सुनकर इन्द्र बोला, “हे क्षत्रिय कुमार, तुम ठीक कह रहे हो। परन्तु मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य अपने यश की रक्षा करना है। यज्ञ के द्वारा तुम्हारा पिता मेरे यश का उल्लंघन कर रहा है। जैसे हरि अकेला पुरुषोत्तम कहलाता है। अकेला शिव महेश्वर कहलाता है। इसी प्रकार सौ यज्ञ करने वाला ‘शतक्रतु’ मुझे कहते हैं । यह शब्द दूसरे के पास जाने वाला नहीं है। अतः तुम्हारे द्वारा घोड़ा छुड़ाने का प्रयत्न व्यर्थ है। तुम महाराजा सगर के पुत्रों के पगचिन्हों पर मत चलो।” राजकुमार रघु ने इन्द्र से कहा, “यदि आप ने घोड़ा न छोड़ने का निश्चय कर लिया है, तो अपने शस्त्र धारण करो। मुझे जीते बिना आप घोड़ा नहीं ले सकते।” दोनों का घमासान युद्ध हुआ। घायल रघु नीचे गिर कर फिर उठ खड़ा हुआ। उसके शौर्य से प्रसन्न इन्द्र ने कहा, “वीर राजकुमार, घोड़े के बिना और जो चाहो मांग लो, “रघु बोला”, देवेन्द्र, मेरे पिता यज्ञ की दीक्षा में लगे हैं। उनके कर्म की समाप्ति विधि पूर्वक हो जाए और उन्हें यज्ञ का फल मिले ।” रघु विजयी हो गया पर घोड़े के बिना अप्रसन्न सा राजा दिलीप के सभा भवन में लौटा। दिलीप को पुत्र का समाचार पहले ही प्राप्त हो गया था। उसने घायल पुत्र का अभिनंदन किया और उसे सांत्वना दी। सम्राट दिलीप के राज्य काल में वेद घोष, धनुष की रस्सी की टंकार, खाओ, पियो और उपभोग इन पांच शब्दों का उपयोग निरन्तर होता था । ईक्ष्वाकु वंशीय राजाओं का यह कुलागत नियम है कि वे योग्य पुत्रों को राज्य – सिहांसन पर बैठा कर स्वयं वानप्रस्थ आश्रम ले लेते हैं । राजा दिलीप भी रघु को राज्य चिन्ह श्वेतच्छत्र देकर महारानी सुदक्षिणा के साथ तपोवन में निवास करने लगे। वाल्मीकि रामायण में भगीरथ के पिता दिलीप और दिलीप खटवांग एक ही माने गए है। परन्तु दोनों अलग हैं।