अयोध्या के प्रमुख राजा राजा हरिश्चन्द्र हरिश्चन्द्र का पालन-पोषण और शिक्षा दीक्षा गुरू देवराज वसिष्ठ की देख-रेख में हुई। अतः यह गुरू के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् यह गद्दी पर बैठा। इसने विश्वामित्र के स्थान पर पुनः गुरु वसिष्ठ को प्रतिष्ठित किया । इससे ऋषि विश्वामित्र और मुनि वसिष्ठ का विरोध बढ़ गया। विश्वामित्र ने इसे राज्यच्युत करवा दिया। पौराणिक साहित्य में इसे विश्वामित्र द्वारा त्रस्त करने की कई कथाएं हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए इसने पत्नी तारा (शैब्या) और पुत्र रोहित को एक ब्राह्मण के पास बेच दिया। स्वयं शमशान अधिकारी के पास चण्डाल का कार्य करने लगा। रोहित को सर्पदशं के कारण मृत समझकर तारा उसके अन्तिम संस्कार के लिए शमशान घाट ले गई। वहां पति-पत्नी ने एक दूसरे को पहचान लिया । वे दोनों पुत्र के साथ चिता में जलने वाले थे, कि गुरू वसिष्ठ ने समय पर आकर उन्हें बचा लिया । मार्कण्डेय पुराण के अनुसार गुरू वसिष्ठ 12 वर्ष जलावास करके निकले और हरिश्चन्द्र के विषय में दुखद वृत्तान्त सुना। उन्हें विश्वामित्र पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने कहा, “इतना दुख मुझे अपने पुत्रों की मृत्यु पर भी नहीं हुआ, जितना देव ब्राहमणों की पूजा करने वाले राजा का राज्य भ्रष्ट होने पर, सत्यवादी निरपराधी और धर्मात्मा राजा को भार्या, पुत्र और सेवकों सहित राज्यच्युत करके विश्वामित्र ने मुझे बहुत कष्ट पहुॅचाया है।” गुरू वसिष्ठ ने इसकों पुनः राज्य-सिहांसन पर बैठाया। विद्वानों का विचार है कि इस कथन के साथ कई काल्पनिक कथाएं जोड़ दी गई हैं। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की मृत्यु के पश्चात् इसका पुत्र रोहित गद्दी पर बैठा। इसकी पत्नी का नाम चन्द्रवती था, जिससे इसे हरित पुत्र हुआ। रोहित ने अयोध्या के पास रोहितपुरी नगरी बसाई और एक दुर्ग बनाया | लम्बी अवधि तक राज्य करने के पश्चात् इसने रोहितपुरी दान में दे दी और विरक्त हो गया। तत्पश्चात् हरित ने अयोध्या का राज्य सिंहासन संभाला। हरित का पुत्र वृक तथा उसका पुत्र बाहु असित हुआ ।