अयोध्या के प्रमुख राजा राजा कुश राजा कुश भगवान राम के बड़े पुत्र थे और लव छोटे पुत्र थे। कुशवाहा, कुशवंशी वंश की शुरुआत कुश से हुई थी लव और कुश ने बचपन के दौरान, एक बार राम के अश्वमेध घोड़े को पकड़कर भगवान राम को युद्ध के लिए ललकारा था। दोनों भाइयों ने अयोध्या की शक्तिशाली सेना को हराया। कुश ने अयोध्या के राजा को अपनी माता सीता को न्याय दिलाने के लिए विवश किया था। बार-बार की अग्निपरीक्षा से व्यथित माता सीता ने अपनी पवित्रता सिद्ध करते हुए धरती माता से अपने को अपनी गोद में स्थान देने का अनुरोध किया तब धरती माता प्रकट हुईं और सीता माता को अपनी गोद में बिठाकर धरती में समाहित कर लिया था। लक्ष्मण के द्वारा बड़े भाई राम की प्रतिज्ञा को सत्य करने के लिए सरयु में शरीर त्याग देने के पश्चात् राम ने कुश को कुशावती तथा लव को शरावती ( श्रावस्ती) में स्थापित कर दिया। (लव अपने वचनों से सज्जनों की आंखों में आंसू लाने वाले थे।) स्थिर बुद्धि वाले राम अग्नि को आगे लिए हुए गृह त्याग कर उत्तर दिशा की ओर चले । उनके पीछे-2 वानर राक्षस भी चल पड़े। इसके पश्चात् रघुवंश श्रेष्ठ सातों लव भरतपुत्र — तक्ष और पुष्कल; शत्रुघ्न पुत्र – सुबाहु और बहुश्रुत, लक्ष्मण पुत्र अंगद और चन्द्रकेतु ने पहले जन्म लेने वाले श्रेष्ठ कुश को उत्तमोत्तम रथ दिए । क्योंकि रघुवंशियों का भ्रातृभाव कुलक्रमागत (खानदानी) होता है । राम आदि से उत्पन्न यह वंश आठ भागों में विभक्त होकर बढ़ने लगा। एक रात्रि को कुश ने प्रोषित पति वाली स्त्री के वेश को धारण किए एक अपरिचित स्त्री को देखा। उस स्त्री ने ‘जय’ करते हुए कुश के आगे हाथ जोड़े। कुश ने कहा, “हे शुभे तुम कौन हो? और किसकी पत्नी हो? मेरे पास आने का क्या कारण है। जितेन्द्रिय रघुवंशियों के मन को पर स्त्री से विमुख व्यवहार वाला मान कर कहो ।” उस स्त्री ने कुश से कहा, “हे राजन, तुम्हारे पिता अयोध्या नगरी के पुरवासियों को अपने साथ वैकुण्ठ में ले गए हैं । उस नगरी की अनाथ अधिष्ठात्री देवी मुझे समझो।” सम्पूर्ण शक्ति शाली सूर्यवंशी तुम्हारे जैसे राजा होने पर भी मैं इस दीनावस्था को प्राप्त हो गई हूँ। स्वामी (राम) के बिना सैकड़ों अटालिकाएं ध्वंस हो गई है। वानरियों के जल में अब भैंसे, पशु आदि नहाते हैं। जहां पहले रमणियां नहाती थी। जिन सीढ़ियों पर रमणियों महावर लगे पैरों को रखती थी। अब वहां हिरणों को मारने वाले शिकारी रक्त रंजित पैर रख रहे हैं। अधिष्ठात्री देवी ने कहा, “तुम इस कुशावती को छोड़कर कुल राजधानी अयोध्या को प्राप्त करो।” श्रेष्ठ कुश ने कहा, “वैसा ही हो।” इतना सुनने पर प्रसन्न मुखवाली अधिष्ठात्री देवी अन्तर्घान हो गई। प्रातःकाल कुश ने अपना स्वप्न ब्राह्मणों को सुनाया। उन्होंने कुल राजधानी अयोध्या का पति कुश को मान कर उसका अभिन्नदन किया। कुश कुशावती को विद्वानों के अधीन कर सेना लेकर द्रुतगति से अयोध्या को चले। विंध्य पर्वत के मध्य भाग में मार्ग खोजती हुई अनेक टुकड़ियों में विभक्त सेना, कई दिनों के बाद सरयु नदी के तट पर पहुंच गई। कुश ने बड़े-2 यज्ञ करने वाले रघुवंशियों द्वारा बनाए कई यज्ञ स्तम्भ देखे। अयोध्या की वायु और सरयु की तरंगों ने कुश की अगवानी की। कुश ने उजड़ी हुई अयोध्या को ऐसी नई बना दिया जैसे गर्मी से सूखी हुई पृथ्वी को मेघ नई कर देते हैं। एक बार सरयु में स्नान करते हुए कुश के हाथ से वह मणि जड़ित आभरण गिर गया, जिसे राम को अगस्त ऋषि ने दिया था और राम ने कुश को पहना दिया था। कुश ने उस दिव्य कंगन से सूना हाथ देखा। वह बहुत दुःखी हुआ। इसलिए नहीं कि वह कंगन बहुमूल्य था बल्कि इसलिए कि उसे पिता राम ने दिया था। उसने नदी में जाल डाल कर उसे ढूंढ़ने में कोई कसर न छोड़ी पर कंगन नहीं मिला अतः छीवरों ने राजा को बताया कि छन्द में स्थित कुमुद नामक नाग ने वह कंगन लोभवंश ले लिया होगा। क्रोध से लाल नेत्रों वाले कुश ने सरयु तट पर नाग को मारने के लिए धनुष चढ़ाकर गारूड अस्त्र को ग्रहण किया। तभी कुमुद ने अपनी बहिन को आगे करते हुए विनय युक्त स्वर में कहा. गेंद से खेलती हुई इस कन्या के हाथ में आपका यह आभरण आ गया, आप इस आभूषण को पहन लीजिए। आप मेरे स्वजन है” यह कहते हुए अपने बंधु बांधवों को साथ लेकर उसने कुमुदवती का हाथ उसके हाथ में थमा दिया। कुमुदवती से कुश को अतिथि नामक पुत्र हुआ अतिथि जो सुशिक्षित और अनुपम कान्ति वाला था, उसने माता-पिता के वंश को इस प्रकार पवित्र किया जैसे सूर्य उत्तर और दक्षिण मार्ग पवित्र करते हैं । उत्तरायण और दक्षिणायन होने पर कुश ने अतिथि को पहले राजनीति विद्या पढ़ाई और बाद में राजकुमारियों से उसका पाणि ग्रहण कराया। कुछ समय पश्चात् कुश इन्द्र की सहायता के लिए दुर्जय के साथ युद्ध के लिए गया । उसे कुश ने जीत लिया, पर वहीं उसकी मृत्यु हो गई। कुमुंदवती उसके साथ सती हो गई।