ऋषि धौम्य शिव भक्त धौम्य, द्वापरयुग के ऋषि हैं। वह पांडवों के शाही पुजारी और कुलगुरु थे और उपमन्यु, अरुणी, पांचाल और वैद के शिक्षक थे। पांडवों ने अपने निर्वासन के दौरान धौम्य को अपना पुजारी स्वीकार किया था। क्योंकि पांडवों को एक ब्राह्मण द्वारा बताया गया था कि “पांडवों को मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि उनके पास कोई पुजारी नहीं है” धौम्य ने उत्कोचक तीर्थ में व्यापक तपस्या की थी, और भविष्य की घटनाओं की भविष्यवाणी करने के लिए भगवान शिव द्वारा आशीर्वाद लिया था। कश्यप वंशीय धौम्य अयोद ऋषि के पुत्र थे। इसलिए वे आयोद धौम्य प्रसिद्ध हुए। ये देवल ऋषि के छोटे भाई थे। चित्ररथ गंधर्व की प्रेरणा से पाण्डवों ने उन्हें अपना पुरोहित बनाया और वे उनके साथ रहने लगे। उनके सारे धर्मकृत्य यही करने लगे। द्रौपदी व पाण्डवों का विवाह भी उन्होंने किया। पाण्डवों के पुत्रों के उपनयन संस्कार भी उन्हीं द्वारा हुए। युधि ष्ठिर के राजसूय यज्ञ में धौम्य ऋषि ने “होता” अथवा ऋग्वेद पाठी के रूप में कार्य किया। पाण्डवों के वनगमन के समय महर्षि धौम्य हाथ में कुश लेकर यम-साम व रूद्र- साम का गान करते हुए वनगमन के लिए तैयार हुए। युधिष्ठिर दुखी होकर उन्हें वन जाने से रोकने लगा। ऋषि ने कहा, “घबराओ नहीं, सूर्य का अनुष्ठान करो।” तुम्हारी चिन्ता दूर होगी सूर्य से युधिष्ठिर को अक्षय पात्र प्राप्त हुआ, जो उसने द्रौपदी को दिया। अक्षय पात्र में अन्न कभी समाप्त नहीं होता था। वनवास काल में अर्जुन अस्त्र प्राप्ति हेतु इन्द्रलोक चला गया। चिन्ताग्रस्त युधिष्ठिर को धौम्य ने तीर्थ यात्रा का परामर्श दिया। पाण्डवों की अनुपस्थिति में जयद्रथ ने द्रोपदी के अपहरण का प्रयत्न किया, जिसे धौम्य ने विफल कर दिया। बारह वर्ष के वनवास धौम्य ऋषि पाण्डवों के साथ रहे। अज्ञातवास में वे अलग रहे। अज्ञातवास के लिए विदा करते समय दुखी पाण्डवों को ऋषि ने उपदेश दिया कि भाग्य चक्र की उल्टी गति से देव भी नहीं बचे, वे तो मानव मात्र हैं। उन्होंने विराट के राजदरबार में अज्ञातवास के ढंग पर भी अमूल्य उपदेश पाण्डवों को दिया। तत्पश्चात् वे अग्निहोत्र की आग साथ लेकर पांचाल देश चले गए। महाभारत युद्ध में धौम्य ऋषि युधिष्ठिर के साथ भीष्म को मिलने गए। युद्ध में मारे गए पाण्डव पक्ष के सभी लोगों का दाह संस्कार भी उन्हीं के द्वारा हुआं युधिष्ठिर के राज्यारोहण पर महर्षि धौम्य की नियुक्ति धार्मिक कार्यों के लिए की गई। युधिष्ठिर की अनुपस्थिति में राज्य संचालन भी वही करते थे। एक स्थान पर ऋषि धौम्य कहते हैं, “टूटे हुए बर्तन, टूटी खाट, मुर्गी, कुत्ते घर में नहीं रखने चाहिएं टूटे बर्तनों में कलिवास करता है। टूटी खाट में दुर्दशा रहती है। उनके विचार में घर के भीतर वृक्ष लगाना भी ठीक नहीं, क्योंकि वृक्षों के आसपास पशु पक्षी निवास करते हैं। जब युधिष्ठिर तीर्थ यात्रा पर गए तो धौम्य उनके साथ गए। धौम्य ने उन्हें तीर्थयात्रा के बारे में विस्तार से बताया। वनवास काल में धौम्य ने अष्टोम कर्म का अनुष्ठान किया। अपनी सर्वव्यापक उन्नति और राज्य की प्राप्ति के लिए वेदों का जप किया। धौम्य ने कुरुक्षेत्र युद्ध में मृतकों का अंतिम संस्कार किया और उनका अंतिम संस्कार किया। महाराजा युधिष्ठिर के राज्याभिषेक पर धौम्य ने उन्हें राजधर्म का उपदेश दिया। युधिष्ठिर धौम्य के साथ बिस्तर पर लेटे हुए भीष्म से मिलने गए। वे युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उपस्थित थे और उन्होंने वातापी को यज्ञ के लिए उपयुक्त स्थान बताया। धौम्य हुआ करते थे और उन्होंने ही युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया था। English Translation. Rishi Dhaumya Shiva devotee Dhaumya is the sage of Dwaparayuga. He was the royal priest and rajguru of the Pandavas and the teacher of Upamanyu, Aruni, Panchala and the Vedas. The Pandavas had accepted Dhaumya as their priest during their exile. Because the Pandavas were told by a Brahmin that “the Pandavas are facing difficulties as they have no priest” Dhaumya did extensive penance at Utkochaka Tirtha, and was blessed by Lord Shiva to predict future events. Dhaumya belonged to Kashyap dynasty. He was the son of Ayod Rishi. That’s why he became famous as Ayod Dhaumya. He was the younger brother of Deval Rishi. With the inspiration of Chitraratha Gandharva, the Pandavas made him their priest and he started living with them. He performed all religious deeds of Pandavas. He also performed the marriage of Draupadi with five Pandavas. The upnayan rites of the sons of the Pandavas were also performed by him. Sage Dhaumya acted as the “hota” or Rigveda reader in Yudhisthira’s Rajasuya Yagya. At the time of Pandavas’ exile, Maharishi Dhaumya prepared them for exile by singing Yama-Sama and Rudra-Sama with Kush in his hand. Yudhishthira was saddened and didn’t want the sage to go to forest for penance. The sage advised yudhishthira to not to panic, perform the rituals of the sun in his absence. He assured Yudhishthira that his worries will go away. Yudhishthira received Akshaya Patra from Surya, which he gave to Draupadi. Akshaya Patra, was a utensil, from which food would never ran out. During the exile, Arjun went to Indralok to get weapons. Worried Yudhishthira was advised by Dhaumya to go on a pilgrimage. In the absence of the Pandavas, Jayadratha tried to kidnap Draupadi, which was thwarted by Dhaumya. Dhaumya Rishi stayed with the Pandavas for twelve years of exile. They remained separated in exile. While leaving for an unknown place, the sage preached to the sorrowful Pandavas that even the gods would not be spared from the motion of the wheel of fortune and they all are only human beings. He also gave invaluable advice to the Pandavas, on the method of exile, in Virat’s court. After that he went to Panchal country taking the holi fire of Agnihotra with him. In the Mahabharata war, Dhaumya accompanied sage Yudhishthira to meet Bhishma. The cremation of all the people of the Pandava side, who died in the Mahabharata war was also performed by him. On the ascension of Yudhishthira, Maharishi Dhaumya was appointed for religious works. In the absence of Yudhishthira, he also used to run the religious operations of the kingdom. At one place Rishi Dhaumya says, “Broken utensils, broken cots, hens, dogs should not be kept in a house. In his view, it is also not good to plant trees inside the house, Because animals and birds live around trees. When Yudhishthira went on pilgrimage, Dhaumya accompanied him. Dhaumya told him about the pilgrimage in details. During the period of exile, Dhaumya performed the ritual of Ashtom Karma. He chanted the Vedas for the universal progress and attainment of the kingdom. Dhaumya cremated the dead in the Kurukshetra war. On the coronation of Maharaja Yudhishthira, Dhaumya preached Rajdharma to him. Yudhishthira, along with Dhaumya, went to meet Bhishma lying on the bed of arrows and comforted him. He was present at Yudhishthira’s Rajasuya Yagya and suggested Vatapi as a suitable place for the Yagya. He had also carried out Rajya Abhishek of Yudhishthira.