ancient indian history

Sikhism An Introduction

सिक्ख पंथ-एक परिचय

“ओंकार ही ब्रह्म हैं”
ओंकार श्रेष्ठ आलम्बन है।
ओंकार जिस का आलम्बन है।
उससे ब्रह्म (अकाल पुरूष) प्रसन्न होता है। (वृहदारण्यक उपनिषद) (शंकर भाष्य)
जब हिन्दु इस्लाम या ईसाई धर्म ग्रहण कर लेता है तो केवल इतना ही नहीं के उसके इष्ट देव हिन्दु देवी-देवता न होकर अन्य हो जाते हैं बल्कि उसकी संस्कृति ही भिन्न हो जाती है। यथा- हिन्दु गाय को माता कहते हैं, मुस्लिम और ईसाई गाय भक्षक हैं। हिन्दु भारत को भारत माता कहकर उसकी वन्दना करते हैं, परन्तु मुस्लिम व ईसाई “वन्दे मातरम” कहना पाप समझते हैं। परन्तु सिक्ख मत में ऐसा नहीं। इस मत का प्रादुर्भाव ही हिन्दु धर्म-संस्कृति के संरक्षण हेतु हुआ था। मुस्लिम आक्रमणकारियों व अत्याचारी शासकों को रोकने के लिए पहले राजपूत सेना संगठित की गई थी जिसमे चार वर्णों के योद्धा शामिल किए गए तत्पश्चात हिन्दु धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए सिक्ख सेना का निर्माण किया गया था। पांचवे गुरू श्री गुरु अर्जुन देव जी को जहांगीर द्वारा अमानवीय यातनाएं दी गई थी जिससे उनका देहान्त हुआ। इसलिए छठे गुरू हरि गोविन्द साहिब को शस्त्र उठाने पड़े और उन्होंने सेना गठित की और वे सभी सैनिक हिन्दु ही थे। बाहर से नहीं आये थे। दशम गुरू गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ का निर्माण भी हिन्दु धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए किया था। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि “वे हिन्दु नहीं है । इसलिए हिन्दु सिक्खों में परस्पर विवाह संबंध होते थे। परन्तु मुसलमानों के साथ विवाह सम्बन्ध दूर, उनके हाथ का हुआ पदार्थ भी हिन्दु नहीं खाता। देश विभाजन के पश्चात सिक्ख पंथ के कुछ अनुयायी बदल गए और खुद को हिन्दू धर्म से अलग मानने लगे। सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह ने स्पष्ट कहा था हिन्दु सिक्ख हिन्दु मोना, एक ही है। यदि मा० तारा सिंह स्वयं को हिन्दु न मानते तो सन् 1964 ई० को संदीपन आश्रम, मुंबई में “विश्व हिन्दु परिषद की स्थापना के समय शामिल न होते। देश विभाजन से पूर्व सिक्खों के दो वर्ग थे। केशधारी व सहजधारी केशधारी सिक्ख पांच ‘कक्के अर्थात कड़ा, केश, कंघा, कृपाण व कच्छा धारण करते थे। सहजधारी सिक्खों के लिए | इनका उपयोग आवश्यक नहीं था। ये गुरुद्वारे जाते. गुरुवाणी का पाठ करते थे। कई हिन्दु परिवारों में खालसा निर्माण के समय से परम्परा चली आ रही थी कि एक बेटा हिन्दु धर्म की रक्षा हेतु सिक्ख बनाना आवश्यक है। विशेषकर छिब्बर व दत्त मोहयाल ब्राह्मण परिवारों में यह प्रथा थी क्योंकि इन मोहयाल उपजातियों ने गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक गुरूओं का पूर्णतः साथ दिया। ये गुरुओं के दीवान, शिक्षक, परामर्शदाता रहे। धर्म के लिए बलिदान दिए। सिक्ख पंथ का प्रचार किया जेहलम, पेशावर, पोठोहार का क्षेत्र (पाकिस्तान), जम्मू कश्मीर में सिक्ख मत के प्रचार का श्रेय अधिकतर मोहयाल ब्राह्मणों को दिया जा सकता है।
गुरु नानक देव जी से गुरू गोबिंद सिंह जी तक लगभग दो सौ वर्षों के काल की ओर ध्यान दें तो देखते है कि उत्तरी पश्चिमी सीमान्त प्रान्त पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) जम्मू-कश्मीर में सिक्ख मत का प्रचार-प्रसार का बीड़ा क्षत्रिय व ब्राह्मणों ने उठाया हुआ था। जबकि पूर्वी पंजाब के जालंधर, लुधियाना, अम्बाला, होशियारपुर में क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि की सिक्ख मत में संख्या न के बराबर है। जट्ट व अन्य कुछ जातियां सिक्ख है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब केन्द्र की मुगल सरकार दुर्बल हो गई थी। पंजाब में विभिन्न मिसले अस्तित्व में आ गई थी। उन्होंने अपने स्वतन्त्र छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। इन सभी राजाओं में राजा रणजीत सिंह अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ जिसने जमरूद के किले पर अपना झण्डा लहरा दिया था। परन्तु उसका राज्य उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया। राजा रणजीत सिंह भी स्वयं को हिन्दु ही मानता था। काशी के मन्दिर में उसने सोने का छत्र चढ़ाया था। महाराजा रणजीत सिंह की जगन्नाथपुरी यात्रा के विषय में लिखा है :
श्री राम जी
“सं० 1898 माफीक सन् 1841 ई० दरवाजा पदमी नदील श्रीन्तरात्मा क शमी का महाराजि रनजीत सीध बहादुर वाली लाहौर के, ने भारफत गणेश राम मिसीर (मिश्र) परोहित अपने के बनवाया।”
वीदेल सिंह ए तिवाड़ी
श्री हरि मंदिर साहिब के निर्माण में अमृतसर के व्यापारियों का योगदान था। अमृतसर उत्तरी भारत का प्रमुख औद्योगिक नगर था। हरि मन्दिर साहिब में श्री गुरुग्रंथ साहिब के अतिरिक्त हिन्दु धार्मिक ग्रन्थ रामायण, उपनिषद, महाभारत आदि भी रखे हुए थे। दीवारों पर श्री राम, श्री कृष्ण आदि के चित्र भी थे। सन् 1905 तक श्री गुरु ग्रंथ साहिब के साथ-साथ श्री दशम ग्रन्थ साहिब का पाठ भी गुरुद्वारों में होता था। प्रथम भक्ति ग्रंथ था तो दूसरा इतिहास पुराण माना जाता था। आधुनिक सिक्ख इतिहासकार श्री दशम ग्रंथ साहिब को दशम गुरु द्वारा रचित नहीं मानते हैं।
गुरू साहिबान ने कहा था, कि
“मानस की जाति सभ एको पहिचानों।”
उनके शिष्य जातिवाद के घोर जंजाल में जकड़े हैं।
विशेष समुदाय के कुछ सिक्ख लेखकों का कथन है “एन्हां वेदियां ते सोढ़ियां ने सिक्ख पंथ नु नुकसान पहुंचाया ए।
“गुरु नानक देव जी वेदी थे और गुरु गोविन्द सिंह जी सोढ़ी”
युवा पीढ़ी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है। कुछ सिक्ख युवा वर्ग क्यों गुमराह हुआ। इसका अधिकतर दोष उन पंजाबी लेखकों को जाता है जिन्होंने ज़हरीला साहित्य युवा पीढ़ी को दिया। जो लोग राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने के लिए जेलो में गए। फाँसी पर झूले, मातृभूमि की रक्षा हेतु जिन्होंने बलिदान दिए, उन्हीं के पोते, दोहते आतंकवाद में घिरकर मिट गए। एक ओर छोटे-छोटे हिंदु बच्चों को पाकों में खेलते हुए आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया तो दूसरी ओर होनहार सिक्ख युवकों के शरीर पुलिस की गोलियों के शिकार हो गए। कुछ जाने-पहचाने युवक जिन्हें बचपन में देखा था। उनकी मृत्यु पर उतना ही दुख हुआ, जितना उनके सम्बन्धियों को हुआ होगा। क्यों ऐसा साहित्य लिखा गया, जिससे भाई-भाई को शत्रु बना दिया। युवा वर्ग को गुमराह किया। दूसरों की भावनाओं को आहत करना बुद्धिमत्ता नहीं छोटी-छोटी बात पर जो लोग सड़कों पर उतर आते हैं। उन्हीं की आवाज सरकार सुनती है। दूसरों की नहीं। उन्हें कायर समझा जाता है। जो अपने धर्म व इष्ट देय के प्रति कहे अपशब्दों को चुपचाप सहन करता है। भाषा विभाग पंजाब, पटियाला द्वारा प्रकाशित तवारीख गुरु खालसा” दोनों भागों में हिन्दुओं व उनके आराध्य देवों के प्रति कई अशोभनीय बातें लिखी हैं ज़िनका व्रणन करना उचित नही है। भगवान कृष्ण माता वैष्णो देवी श्री राम भाषा विभाग पंजाब, पटियाला को पर्याप्त बुधी प्रदान करें ब्राह्मणों के विषय में ‘तवारीख गुरू खालसा’ में अधिक विष उगला है। पण्डित वर्ग को भीखमंगे, धोखेबाज, बेईमान आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है। परन्तु जिन ब्राह्मणों ने सिक्स पंथ के लिए बलिदान दिए, सिक्ख मत का प्रचार किया, उन्हें आजकल के सिक्ख इतिहासकार ब्राह्मण नहीं मानते। भाई परागा उनके भाई पेरा की कई पीढ़ियों ने गुरू परिवार की सेवा की। भाई मतिदास, भाई सतीदास, साहब चंद, गुरबख्श सिंह आदि बलिदानियों को पुराने इतिहासकार भार्गव ब्राह्मण कहते हैं। भट्ट वहियों में भी ऐसा ही लिखा है, परन्तु आज का पंजाबी लेखक ऐसा नहीं मानता। (देखिए सुरजीत सिंह गांधी हिस्ट्री ऑफ सिक्ख गुरू)।
यदि सिक्ख तीर्थ स्थानों की बहियों पर ध्यान लगाएं तो ये जानेंगे कि उनके गोत्रकार भी वही ऋषि है, जो हिन्दुओं के हैं। उदाहरणतः अगस्त ऋषि, मान्य और मान कहलाता था। ब्राह्मणों के विषय में त०गु०खा०, भाग 1, पृष्ठ 23-24 में बहुत बेहुदा लिखा है जो यहां व्रणन नही किया जा सकता देश विभाजन के बाद हिंदु सिक्खों में दूरियां अधिक होती गई। इस का कारण सिक्खों द्वारा हिन्दु-विरोधी साहित्य की संरचना है। स्वतन्त्रता से पूर्व हिंदु सिक्ख नेताओं का प्रमुख उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था। सम्भवतः इसलिए भी परस्पर द्वेष भावना नहीं पनपी। देश विभाजन के बाद रचे गए साहित्य का उदाहरण देखिए :- की अगस्त, 1953 ई० के गुरुद्वारा गजट, अमृतसर/प्रस्तुत कर रही हूं : पंक्तियां “गुरुद्वारे विच राम, कृष्ण दी मूर्तिया रखना, पुराणां दीयां कथा कहानिया दी धर्चा, सारे हिन्दु त्यौहार मनाने, गुरू ग्रन्थ साहिब नूं पत्थर दी मूर्ति चांगु मत्था ठेकना, सिक्ख गुरुओं नूं हिन्दुयां दे तेतीस करोड़ देवतायं दे विच शामिल करना, विवाह-मरण संस्कार हिन्दुओं दी तरह करने, समूची फ ई । इ ब अभ तक स ख यह लिखता है कि हम हिन्दु धर्म की अपेक्षा इस्लाम के अधिक निकट हैं। शिवस पंथ के अनुयायियों से मेस ना निवेदन है कि वे जिस मत के करीब होना चाहे, बेशक होते, परन्तु बहुसंख्यक हिन्दुओं की सहनशीलता का मजाक न उड़ाएं व घृणित साहित्य न रखें और उनके देवी-देवताओं, अवतारों का अपमान ना करें।
देश विभाजन के बाद रचे गए साहित्य का उदाहरण देखिए :- की अगस्त, 1953 ई० के गुरुद्वारा गजट, अमृतसर की पंक्तियां प्रस्तुत हैं :
“गुरुद्वारे विच राम, कृष्ण दी मूर्तिया रखना, पुराणां दीयां कथा कहानिया दी चर्चा, सारे हिन्दु त्यौहार मनाने, गुरू ग्रन्थ साहिब नूं पत्थर दी मूर्ति वांगु मत्था ठेकना, सिक्ख गुरुओं नूं हिन्दुयां दे तेतीस करोड़ देवतायं दे विच शामिल करना, विवाह-मरण संस्कार हिन्दुओं दी तरह करना , समूची सिख कौम दल दल विच फस गई है इसके बाद यह लेखक लिखता है कि हम हिन्दु धर्म की अपेक्षा इस्लाम के अधिक निकट हैं। देश विभाजन के बाद , इन लेखकों को भारत के दुश्मन देशों ने हिन्दू विरोधी साहित्य लिखने को प्रोत्साहित किया
सिक्ख पंथ के अनुयायियों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे जिस मत के करीब होना चाहे, बेशक हो, परन्तु बहुसंख्यक हिन्दुओं की सहनशीलता का मजाक न उड़ाएं व घृणित साहित्य न रखें और उनके देवी-देवताओं, अवतारों का अपमान ना करें।
आज के सिक्ख लेखक लिखते हैं गुरू तेग बहादुर साहिब ने कश्मीरी पंडितों के लिए बलिदान दिया। विश्व में यह अद्भुत घटना है जब एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म के लोगों के लिए बलिदान दिया है।
ऐसे लेखक प्राचीन सिक्ख इतिहास का अवलोकन करें, तो उन्हें पता चलेगा कि गुरू-साहबान ने यह कभी नहीं कहा था कि “वे हिन्दु नहीं हैं।” गुरू तेगबहादुर जी के बलिदान से पूर्व भाई मतिदास, भाई सतिदास छिब्बरों (भृगु गोत्रीय ब्राह्मण) व भाई दयाला आदि ने असहनीय यातनाए सही व शहीद हुए। वे सभी हिंदु थे। आलोचना करते समय लेखक को तत्कालीन परिस्थितियों का ध्यान रखना चाहिए। जिस काल की ये आलोचना कर रहे हैं।
सिक्ख पंथ का धर्म-ग्रंथ “श्री गुरु ग्रंथ साहिव” है। जिसे ‘आदि ग्रंथ’ भी कहते है। इसका मूल मंत्र निम्न है : “१ ओंकार सत्तिनाम, कर्ता पुरुख, निर्भय, निर्वैर, अकाल मूर्ति, अजूनि सैभं गुर प्रसाद।”
अर्थात परमात्मा सत्य स्वरूप, जगत का कर्ता पुरुष, निर्भय, निर्वैर, कालातीत, अजन्मा, स्वयंभू है। (वह) गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।
ओंकार की उत्पत्ति :
छांदोग्य उपनिषद के शंकर भाष्य में कहा गया है ‘ओ३म् अमृत और अभय है। जो इसकी स्तुति करता है. यह अमृत रूपी अक्षर में प्रवेश कर जाता है। इसकी स्तुति करके देवगण अमर हो गए। तैतरीय उपनिषद के अनुसार ‘ओ३म् का उपासक ब्रहम को प्राप्त होता है। उपनिषद भाष्यकार श्री आयु मुनि जी के अनुसार ‘अ’ का अर्थ ‘कर्म ‘उ’ का अर्थ उपासना और भ का अर्थ ज्ञान है। (प्रश्न उप०) तीनो वर्णों के समुदाय का नाम ओ३म है। यह परमात्मा का वाचक शब्द है। कठ उपनिषद मे ओ३म् तत सत इन नामों से परमात्मा का निर्देश किया है। मण्डूक उपनिषद के अनुसार रक्षक होने से परमात्मा का नाम ‘ओ३म’ है। ओंकार ब्रह्म है। सभी वैदिक कर्म इसके द्वारा आरम्भ किए जाते हैं। ओंकार का उच्चारण करके गुरू शिष्य को वेद का आरम्भ कराता है। ओंकार का ज्ञान ब्रहम ज्ञान है। ओंकार अनुज्ञा
| (अनुमति सूचक) अक्षर है। मनुष्य किसी को अनुमति देता है तो ‘ॐ’ (हाँ) कहता है। ओंकार को ‘प्रणव’ भी कहते हैं।
ब्रह्म निराकार है, पूजा अर्चना की सुविधा के लिए हमने उसके तीन रूप निर्धारित कर लिए हैं –
नामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-अंग्रेजी शब्द कोष के अनुसार ओ३म् की व्याख्या इस प्रकार है।
अ वैष्वान विष्णु
उ तेजस्. शिव
म् प्रज्ञा ब्रह्मा
अर्थात विष्णु, शिव, ब्रह्मा को ‘ओ३म्’ कहते हैं।
सिक्ख मान्यताएं वास्तव में परम्परागत हिन्दु विचारधारा का ही अंग है। परमात्मा को निराकार, सर्व व्यापक, शाश्वत, सचिदानन्द मानते हुए भी हिन्दु दर्शन में उसका सगुण रूप में अवतरण स्वीकार किया जाता है। सिक्ख दर्शन में स्थिति विशेष भिन्न नहीं है। निर्गुणवाद पर अधिक बल देते हुए इसमें वेद और अवतारों के लिए स्थान-स्थान पर श्रद्धा प्रकट की गई है। यथा : हरि का नाम सदा सुखदई।
पंचाली कउ राज सभा में राम नाम सुधि आई। ताको दुख हरियों करुणामय अपनी पैज बढ़ाई
(वाणी गु० ते० बहादुर जी)
सति जुग से माणियों छलियों बलि यावन भइयो । त्रेते ते माणियां सम रघुवंश कहायो।। दुआपरि कृसन मुरारी कसं किरतार्थ कीओ। उग्रसेन कल राज अझै भगतह जन दीओ। कलजुग प्रमाण नानक गुरु अंगद अमर कहाईयो।।
(आदि प्रथ सा०)
वेद पुरान जास गुन गावत ताको नाम हिय में धरूरे। वेद पुरान सिमृति के मत सुनि निमख न हिए विसारे।।
(वाणी गु०ते०बहादुर जी) गुरू तेगवहादुर की समस्त वाणी उपनिषदों से अनुप्राणित हैं कहीं-कहीं तो अक्षरक्षः अनुवाद ही प्रतीत होता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने भी ब्रह्म के दोनो रूपों को उल्लेख किया है। गुरु जी के काव्य की निम्न पंक्तियां एक साकार उपासक की दिखाई देती हैं :
नीलकंठ नर हरि नारायण नील दसन बनवारी। | माधव महाजोति मधु मर्दन मान मुकुन्द मुरारी।। (श्री दशम ग्रंथ, शब्द हजारे)


सिक्ख पंथ-एक परिचय

“ओंकार ही ब्रह्म हैं”
ओंकार श्रेष्ठ आलम्बन है।
ओंकार जिस का आलम्बन है।
उससे ब्रह्म (अकाल पुरूष) प्रसन्न होता है। (वृहदारण्यक उपनिषद) (शंकर भाष्य)
जब हिन्दु इस्लाम या ईसाई धर्म ग्रहण कर लेता है तो केवल इतना ही नहीं के उसके इष्ट देव हिन्दु देवी-देवता न होकर अन्य हो जाते हैं बल्कि उसकी संस्कृति ही भिन्न हो जाती है। यथा- हिन्दु गाय को माता कहते हैं, मुस्लिम और ईसाई गाय भक्षक हैं। हिन्दु भारत को भारत माता कहकर उसकी वन्दना करते हैं, परन्तु मुस्लिम व ईसाई “वन्दे मातरम” कहना पाप समझते हैं। परन्तु सिक्ख मत में ऐसा नहीं। इस मत का प्रादुर्भाव ही हिन्दु धर्म-संस्कृति के संरक्षण हेतु हुआ था। मुस्लिम आक्रमणकारियों व अत्याचारी शासकों को रोकने के लिए पहले राजपूत सेना संगठित की गई थी जिसमे चार वर्णों के योद्धा शामिल किए गए तत्पश्चात हिन्दु धर्म संस्कृति की रक्षा के लिए सिक्ख सेना का निर्माण किया गया था। पांचवे गुरू श्री गुरु अर्जुन देव जी को जहांगीर द्वारा अमानवीय यातनाएं दी गई थी जिससे उनका देहान्त हुआ। इसलिए छठे गुरू हरि गोविन्द साहिब को शस्त्र उठाने पड़े और उन्होंने सेना गठित की और वे सभी सैनिक हिन्दु ही थे। बाहर से नहीं आये थे। दशम गुरू गोबिन्द सिंह जी ने खालसा पंथ का निर्माण भी हिन्दु धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए किया था। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि “वे हिन्दु नहीं है । इसलिए हिन्दु सिक्खों में परस्पर विवाह संबंध होते थे। परन्तु मुसलमानों के साथ विवाह सम्बन्ध दूर, उनके हाथ का हुआ पदार्थ भी हिन्दु नहीं खाता। देश विभाजन के पश्चात सिक्ख पंथ के कुछ अनुयायी बदल गए और खुद को हिन्दू धर्म से अलग मानने लगे। सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह ने स्पष्ट कहा था हिन्दु सिक्ख हिन्दु मोना, एक ही है। यदि मा० तारा सिंह स्वयं को हिन्दु न मानते तो सन् 1964 ई० को संदीपन आश्रम, मुंबई में “विश्व हिन्दु परिषद की स्थापना के समय शामिल न होते। देश विभाजन से पूर्व सिक्खों के दो वर्ग थे। केशधारी व सहजधारी केशधारी सिक्ख पांच ‘कक्के अर्थात कड़ा, केश, कंघा, कृपाण व कच्छा धारण करते थे। सहजधारी सिक्खों के लिए | इनका उपयोग आवश्यक नहीं था। ये गुरुद्वारे जाते. गुरुवाणी का पाठ करते थे। कई हिन्दु परिवारों में खालसा निर्माण के समय से परम्परा चली आ रही थी कि एक बेटा हिन्दु धर्म की रक्षा हेतु सिक्ख बनाना आवश्यक है। विशेषकर छिब्बर व दत्त मोहयाल ब्राह्मण परिवारों में यह प्रथा थी क्योंकि इन मोहयाल उपजातियों ने गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिंद सिंह जी तक गुरूओं का पूर्णतः साथ दिया। ये गुरुओं के दीवान, शिक्षक, परामर्शदाता रहे। धर्म के लिए बलिदान दिए। सिक्ख पंथ का प्रचार किया जेहलम, पेशावर, पोठोहार का क्षेत्र (पाकिस्तान), जम्मू कश्मीर में सिक्ख मत के प्रचार का श्रेय अधिकतर मोहयाल ब्राह्मणों को दिया जा सकता है।
गुरु नानक देव जी से गुरू गोबिंद सिंह जी तक लगभग दो सौ वर्षों के काल की ओर ध्यान दें तो देखते है कि उत्तरी पश्चिमी सीमान्त प्रान्त पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) जम्मू-कश्मीर में सिक्ख मत का प्रचार-प्रसार का बीड़ा क्षत्रिय व ब्राह्मणों ने उठाया हुआ था। जबकि पूर्वी पंजाब के जालंधर, लुधियाना, अम्बाला, होशियारपुर में क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि की सिक्ख मत में संख्या न के बराबर है। जट्ट व अन्य कुछ जातियां सिक्ख है। उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में जब केन्द्र की मुगल सरकार दुर्बल हो गई थी। पंजाब में विभिन्न मिसले अस्तित्व में आ गई थी। उन्होंने अपने स्वतन्त्र छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिए। इन सभी राजाओं में राजा रणजीत सिंह अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ जिसने जमरूद के किले पर अपना झण्डा लहरा दिया था। परन्तु उसका राज्य उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो गया। राजा रणजीत सिंह भी स्वयं को हिन्दु ही मानता था। काशी के मन्दिर में उसने सोने का छत्र चढ़ाया था। महाराजा रणजीत सिंह की जगन्नाथपुरी यात्रा के विषय में लिखा है :
श्री राम जी
“सं० 1898 माफीक सन् 1841 ई० दरवाजा पदमी नदील श्रीन्तरात्मा क शमी का महाराजि रनजीत सीध बहादुर वाली लाहौर के, ने भारफत गणेश राम मिसीर (मिश्र) परोहित अपने के बनवाया।”
वीदेल सिंह ए तिवाड़ी
श्री हरि मंदिर साहिब के निर्माण में अमृतसर के व्यापारियों का योगदान था। अमृतसर उत्तरी भारत का प्रमुख औद्योगिक नगर था। हरि मन्दिर साहिब में श्री गुरुग्रंथ साहिब के अतिरिक्त हिन्दु धार्मिक ग्रन्थ रामायण, उपनिषद, महाभारत आदि भी रखे हुए थे। दीवारों पर श्री राम, श्री कृष्ण आदि के चित्र भी थे। सन् 1905 तक श्री गुरु ग्रंथ साहिब के साथ-साथ श्री दशम ग्रन्थ साहिब का पाठ भी गुरुद्वारों में होता था। प्रथम भक्ति ग्रंथ था तो दूसरा इतिहास पुराण माना जाता था। आधुनिक सिक्ख इतिहासकार श्री दशम ग्रंथ साहिब को दशम गुरु द्वारा रचित नहीं मानते हैं।
गुरू साहिबान ने कहा था, कि
“मानस की जाति सभ एको पहिचानों।”
उनके शिष्य जातिवाद के घोर जंजाल में जकड़े हैं।
विशेष समुदाय के कुछ सिक्ख लेखकों का कथन है “एन्हां वेदियां ते सोढ़ियां ने सिक्ख पंथ नु नुकसान पहुंचाया ए।
“गुरु नानक देव जी वेदी थे और गुरु गोविन्द सिंह जी सोढ़ी”
युवा पीढ़ी पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है। कुछ सिक्ख युवा वर्ग क्यों गुमराह हुआ। इसका अधिकतर दोष उन पंजाबी लेखकों को जाता है जिन्होंने ज़हरीला साहित्य युवा पीढ़ी को दिया। जो लोग राष्ट्र को स्वतन्त्र कराने के लिए जेलो में गए। फाँसी पर झूले, मातृभूमि की रक्षा हेतु जिन्होंने बलिदान दिए, उन्हीं के पोते, दोहते आतंकवाद में घिरकर मिट गए। एक ओर छोटे-छोटे हिंदु बच्चों को पाकों में खेलते हुए आतंकवादियों ने गोलियों से भून दिया तो दूसरी ओर होनहार सिक्ख युवकों के शरीर पुलिस की गोलियों के शिकार हो गए। कुछ जाने-पहचाने युवक जिन्हें बचपन में देखा था। उनकी मृत्यु पर उतना ही दुख हुआ, जितना उनके सम्बन्धियों को हुआ होगा। क्यों ऐसा साहित्य लिखा गया, जिससे भाई-भाई को शत्रु बना दिया। युवा वर्ग को गुमराह किया। दूसरों की भावनाओं को आहत करना बुद्धिमत्ता नहीं छोटी-छोटी बात पर जो लोग सड़कों पर उतर आते हैं। उन्हीं की आवाज सरकार सुनती है। दूसरों की नहीं। उन्हें कायर समझा जाता है। जो अपने धर्म व इष्ट देय के प्रति कहे अपशब्दों को चुपचाप सहन करता है। भाषा विभाग पंजाब, पटियाला द्वारा प्रकाशित तवारीख गुरु खालसा” दोनों भागों में हिन्दुओं व उनके आराध्य देवों के प्रति कई अशोभनीय बातें लिखी हैं ज़िनका व्रणन करना उचित नही है। भगवान कृष्ण माता वैष्णो देवी श्री राम भाषा विभाग पंजाब, पटियाला को पर्याप्त बुधी प्रदान करें ब्राह्मणों के विषय में ‘तवारीख गुरू खालसा’ में अधिक विष उगला है। पण्डित वर्ग को भीखमंगे, धोखेबाज, बेईमान आदि विशेषणों से विभूषित किया गया है। परन्तु जिन ब्राह्मणों ने सिक्स पंथ के लिए बलिदान दिए, सिक्ख मत का प्रचार किया, उन्हें आजकल के सिक्ख इतिहासकार ब्राह्मण नहीं मानते। भाई परागा उनके भाई पेरा की कई पीढ़ियों ने गुरू परिवार की सेवा की। भाई मतिदास, भाई सतीदास, साहब चंद, गुरबख्श सिंह आदि बलिदानियों को पुराने इतिहासकार भार्गव ब्राह्मण कहते हैं। भट्ट वहियों में भी ऐसा ही लिखा है, परन्तु आज का पंजाबी लेखक ऐसा नहीं मानता। (देखिए सुरजीत सिंह गांधी हिस्ट्री ऑफ सिक्ख गुरू)।
यदि सिक्ख तीर्थ स्थानों की बहियों पर ध्यान लगाएं तो ये जानेंगे कि उनके गोत्रकार भी वही ऋषि है, जो हिन्दुओं के हैं। उदाहरणतः अगस्त ऋषि, मान्य और मान कहलाता था। ब्राह्मणों के विषय में त०गु०खा०, भाग 1, पृष्ठ 23-24 में बहुत बेहुदा लिखा है जो यहां व्रणन नही किया जा सकता देश विभाजन के बाद हिंदु सिक्खों में दूरियां अधिक होती गई। इस का कारण सिक्खों द्वारा हिन्दु-विरोधी साहित्य की संरचना है। स्वतन्त्रता से पूर्व हिंदु सिक्ख नेताओं का प्रमुख उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति था। सम्भवतः इसलिए भी परस्पर द्वेष भावना नहीं पनपी। देश विभाजन के बाद रचे गए साहित्य का उदाहरण देखिए :- की अगस्त, 1953 ई० के गुरुद्वारा गजट, अमृतसर/प्रस्तुत कर रही हूं : पंक्तियां “गुरुद्वारे विच राम, कृष्ण दी मूर्तिया रखना, पुराणां दीयां कथा कहानिया दी धर्चा, सारे हिन्दु त्यौहार मनाने, गुरू ग्रन्थ साहिब नूं पत्थर दी मूर्ति चांगु मत्था ठेकना, सिक्ख गुरुओं नूं हिन्दुयां दे तेतीस करोड़ देवतायं दे विच शामिल करना, विवाह-मरण संस्कार हिन्दुओं दी तरह करने, समूची फ ई । इ ब अभ तक स ख यह लिखता है कि हम हिन्दु धर्म की अपेक्षा इस्लाम के अधिक निकट हैं। शिवस पंथ के अनुयायियों से मेस ना निवेदन है कि वे जिस मत के करीब होना चाहे, बेशक होते, परन्तु बहुसंख्यक हिन्दुओं की सहनशीलता का मजाक न उड़ाएं व घृणित साहित्य न रखें और उनके देवी-देवताओं, अवतारों का अपमान ना करें।
देश विभाजन के बाद रचे गए साहित्य का उदाहरण देखिए :- की अगस्त, 1953 ई० के गुरुद्वारा गजट, अमृतसर की पंक्तियां प्रस्तुत हैं :
“गुरुद्वारे विच राम, कृष्ण दी मूर्तिया रखना, पुराणां दीयां कथा कहानिया दी चर्चा, सारे हिन्दु त्यौहार मनाने, गुरू ग्रन्थ साहिब नूं पत्थर दी मूर्ति वांगु मत्था ठेकना, सिक्ख गुरुओं नूं हिन्दुयां दे तेतीस करोड़ देवतायं दे विच शामिल करना, विवाह-मरण संस्कार हिन्दुओं दी तरह करना , समूची सिख कौम दल दल विच फस गई है इसके बाद यह लेखक लिखता है कि हम हिन्दु धर्म की अपेक्षा इस्लाम के अधिक निकट हैं। देश विभाजन के बाद , इन लेखकों को भारत के दुश्मन देशों ने हिन्दू विरोधी साहित्य लिखने को प्रोत्साहित किया
सिक्ख पंथ के अनुयायियों से मेरा नम्र निवेदन है कि वे जिस मत के करीब होना चाहे, बेशक हो, परन्तु बहुसंख्यक हिन्दुओं की सहनशीलता का मजाक न उड़ाएं व घृणित साहित्य न रखें और उनके देवी-देवताओं, अवतारों का अपमान ना करें।
आज के सिक्ख लेखक लिखते हैं गुरू तेग बहादुर साहिब ने कश्मीरी पंडितों के लिए बलिदान दिया। विश्व में यह अद्भुत घटना है जब एक धर्म के लोगों ने दूसरे धर्म के लोगों के लिए बलिदान दिया है।
ऐसे लेखक प्राचीन सिक्ख इतिहास का अवलोकन करें, तो उन्हें पता चलेगा कि गुरू-साहबान ने यह कभी नहीं कहा था कि “वे हिन्दु नहीं हैं।” गुरू तेगबहादुर जी के बलिदान से पूर्व भाई मतिदास, भाई सतिदास छिब्बरों (भृगु गोत्रीय ब्राह्मण) व भाई दयाला आदि ने असहनीय यातनाए सही व शहीद हुए। वे सभी हिंदु थे। आलोचना करते समय लेखक को तत्कालीन परिस्थितियों का ध्यान रखना चाहिए। जिस काल की ये आलोचना कर रहे हैं।
सिक्ख पंथ का धर्म-ग्रंथ “श्री गुरु ग्रंथ साहिव” है। जिसे ‘आदि ग्रंथ’ भी कहते है। इसका मूल मंत्र निम्न है : “१ ओंकार सत्तिनाम, कर्ता पुरुख, निर्भय, निर्वैर, अकाल मूर्ति, अजूनि सैभं गुर प्रसाद।”
अर्थात परमात्मा सत्य स्वरूप, जगत का कर्ता पुरुष, निर्भय, निर्वैर, कालातीत, अजन्मा, स्वयंभू है। (वह) गुरु की कृपा से प्राप्त होता है।
ओंकार की उत्पत्ति :
छांदोग्य उपनिषद के शंकर भाष्य में कहा गया है ‘ओ३म् अमृत और अभय है। जो इसकी स्तुति करता है. यह अमृत रूपी अक्षर में प्रवेश कर जाता है। इसकी स्तुति करके देवगण अमर हो गए। तैतरीय उपनिषद के अनुसार ‘ओ३म् का उपासक ब्रहम को प्राप्त होता है। उपनिषद भाष्यकार श्री आयु मुनि जी के अनुसार ‘अ’ का अर्थ ‘कर्म ‘उ’ का अर्थ उपासना और भ का अर्थ ज्ञान है। (प्रश्न उप०) तीनो वर्णों के समुदाय का नाम ओ३म है। यह परमात्मा का वाचक शब्द है। कठ उपनिषद मे ओ३म् तत सत इन नामों से परमात्मा का निर्देश किया है। मण्डूक उपनिषद के अनुसार रक्षक होने से परमात्मा का नाम ‘ओ३म’ है। ओंकार ब्रह्म है। सभी वैदिक कर्म इसके द्वारा आरम्भ किए जाते हैं। ओंकार का उच्चारण करके गुरू शिष्य को वेद का आरम्भ कराता है। ओंकार का ज्ञान ब्रहम ज्ञान है। ओंकार अनुज्ञा
| (अनुमति सूचक) अक्षर है। मनुष्य किसी को अनुमति देता है तो ‘ॐ’ (हाँ) कहता है। ओंकार को ‘प्रणव’ भी कहते हैं।
ब्रह्म निराकार है, पूजा अर्चना की सुविधा के लिए हमने उसके तीन रूप निर्धारित कर लिए हैं –
नामन शिवराम आप्टे के संस्कृत-अंग्रेजी शब्द कोष के अनुसार ओ३म् की व्याख्या इस प्रकार है।
अ वैष्वान विष्णु
उ तेजस्. शिव
म् प्रज्ञा ब्रह्मा
अर्थात विष्णु, शिव, ब्रह्मा को ‘ओ३म्’ कहते हैं।
सिक्ख मान्यताएं वास्तव में परम्परागत हिन्दु विचारधारा का ही अंग है। परमात्मा को निराकार, सर्व व्यापक, शाश्वत, सचिदानन्द मानते हुए भी हिन्दु दर्शन में उसका सगुण रूप में अवतरण स्वीकार किया जाता है। सिक्ख दर्शन में स्थिति विशेष भिन्न नहीं है। निर्गुणवाद पर अधिक बल देते हुए इसमें वेद और अवतारों के लिए स्थान-स्थान पर श्रद्धा प्रकट की गई है। यथा : हरि का नाम सदा सुखदई।
पंचाली कउ राज सभा में राम नाम सुधि आई। ताको दुख हरियों करुणामय अपनी पैज बढ़ाई
(वाणी गु० ते० बहादुर जी)
सति जुग से माणियों छलियों बलि यावन भइयो । त्रेते ते माणियां सम रघुवंश कहायो।। दुआपरि कृसन मुरारी कसं किरतार्थ कीओ। उग्रसेन कल राज अझै भगतह जन दीओ। कलजुग प्रमाण नानक गुरु अंगद अमर कहाईयो।।
(आदि प्रथ सा०)
वेद पुरान जास गुन गावत ताको नाम हिय में धरूरे। वेद पुरान सिमृति के मत सुनि निमख न हिए विसारे।।
(वाणी गु०ते०बहादुर जी) गुरू तेगवहादुर की समस्त वाणी उपनिषदों से अनुप्राणित हैं कहीं-कहीं तो अक्षरक्षः अनुवाद ही प्रतीत होता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने भी ब्रह्म के दोनो रूपों को उल्लेख किया है। गुरु जी के काव्य की निम्न पंक्तियां एक साकार उपासक की दिखाई देती हैं :
नीलकंठ नर हरि नारायण नील दसन बनवारी। | माधव महाजोति मधु मर्दन मान मुकुन्द मुरारी।। (श्री दशम ग्रंथ, शब्द हजारे)

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