ancient indian history

Vasishtha Lineage

देवराज वसिष्ठ
अयोध्या के तीन राजाओं वैक्यारुण, सत्यव्रत विशकु तथा हरिश्चन्द्र के गुरु वसिष्ठ देवराज थे। राजा सत्यव्रत का आचरण निंदनीय था। उसने विवाह मण्डप से ब्राह्मण कन्या का अपहरण किया था। पिता राजा त्रैय्यारुण तथा गुरु वसिष्ठ का अपमान किया था। इसलिए गुरु वसिष्ठ के शाप के कारण यह त्रिशंकु कहलाने लगा। | सत्यव्रत त्रिशंकु से विरोध होने के कारण देवराज वसिष्ठ का विश्वामित्र के साथ झगड़ा चलता रहा यह संघर्ष देवराज वसिष्ठ से लेकर मैत्रावरुण वसिष्ठ तक अथवा सत्य व्रत के पुत्र हरिश्चन्द्र एवं पौत्र रोहित तक चलता रहा। विश्वामित्र ने देवराज वसिष्ठ को हराने के लिए कई अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग किया, परन्तु वह सफल न हो सका। अतः उसने अनुभव किया कि क्षात्र बल से ब्रह्मवल श्रेष्ठ है। ब्रह्मवल प्राप्त करने के लिए वह अपने परिवार को असहाय छोड़ कर तपस्या हेतु वनों में चला गया।
सत्यव्रत त्रिशंकु को उसके दुष्कृत्यों के लिए कठोर दण्ड वनवास मिला। देश में कई वर्ष अकाल पड़ा। वनवासी त्रिशंकु ने विश्वामित्र के परिवार की सहायता की, और उसे भूखे मरने से बचाया। विश्वामित्र तपस्या से लौटे। उन्होंने अपनी अनुप स्थिति में त्रिशंकु द्वारा उसके परिवार को दी गई सहायता की प्रशंसा की और वसिष्ठ द्वारा राज्य-सिहासन से वंचित किए त्रिशंकु को पुन: गद्दी पर बैठाया तथा स्वयं उसका पुरोहित वन गया। कुछ समय तक विश्वामित्र सत्यव्रत के पुत्र हरिश्चन्द्र का भी पुरोहित रहा। हरिश्चन्द्र द्वारा राजसूय यज्ञ के समय गुरु, वसिष्ठ को ही पुरोहित पद पर उसने सुशोभित किया। हास्यव्रत त्रिशंकु के वनवास काल में हरिश्चन्द्र गुरु वसिष्ठ के ही मार्ग दर्शन में बड़ा हुआ था। अयोध्या के ब्राह्मण विश्वामित्र के विरुद्ध थे। राजसूय यज्ञ के समय हरिश्चन्द्र ने विश्वामित्र को दक्षिणा न देकर गुरु वसिष्ठ को दी।तत्पश्चात् विश्वामित्र दुःखी होकर पुष्कर चला गया। परन्तु कुछ समय पश्चात् उसका प्रभुत्व बढ़ गया और उसने हरिश्चन्द्र को राज्यच्युत करवा दिया। पौराणिक साहित्य में इसे विश्वामित्र द्वारा त्रस्त कराने की कई कथाएं है, मार्कण्डेय पुराण के अनुसार गुरु वसिष्ठ बारह वर्ष जलायास करने के पश्चात् लौटे

तो हरिश्चन्द्र के विषय में दुःखद वृतान्त सुनकर बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने कहा, “देव ब्राह्मणों की पूजा करने वाले राजा को भार्या, पुत्र और सेवकों सहित राज्यच्युत करके विश्वामित्र ने मुझे बहुत कष्ट पहुंचाया है।” गुरु देवराज वसिष्ठ ने हरिश्चन्द्र को पुनः राज्य सिंहासन पर बैठाया।
आपव अथवा वारूणि वसिष्ठ :
यह वसिष्ठ वरुण नामक वसिष्ठ का पुत्र था। क्योंकि वरुण नामक एक देवता भी है जो आप् अर्थात् जल का अधिष्ठातृ देव है. अतः पुराणकारों ने भ्रम से इस वसिष्ठ को आपव भी कहना शुरू कर दिया। यह कृतवीर्य-पुत्र राजा अर्जुन का तथा अयोध्या के राजा त्रिशंकु का समकालीन था। इसे मत्स्य पुराण में ‘ब्रह्मवादी’ अर्थात वेदों का व्याख्याता कहा गया है। कार्त्तवीर्य अर्जुन ने इसका आश्रम जला दिया था। अत: इसने उसे शाप दे दिया था कि किसी ऋषि द्वारा तुम्हारा अन्त होगा। उसकी भविष्यवाणी सत्य हुई। परशुराम ने कार्तवीर्य को समाप्त किया।
था।
अथर्व निधि वसिष्ठ (प्रथम) :
अथर्व निधि वसिष्ठ दो हुए हैं। प्रथम बाहु राजा के समकालीन और द्वितीय इक्ष्वाकु राजा दिलीप द्वितीय के समय ! राजा हरिश्चन्द्र की आठवीं पीढी में उत्पन्न बाहू राजा का राज पुरोहित अथर्व निधि वसिष्ठ थां। हैहय तालजंघ राजाओं ने कंबोज यवन, पारद आदि उत्तर पश्चिमी प्रदेश के रहने वाले लोगों की सहायता से बाहू राजा को राज्यच्युत कर दिया था। बाहू राजा के पुत्र संगर ने इन शत्रुओं को पराजित किया। सगर इन लोगों का संहार करना चाहता था, परन्तु गुरु वसिष्ठ ने उसे परशुराम की कथा सुनाकर पाप कर्म से रोक दिया। इस ऋषि ने सगर के पौत्र अंशुमत का यौवराज्य अभिषेक किया था। रघुवंश तथा पद्म पुराण में इसे दिलीप का समकालीन कहा है। इसकी सलाह से दिलीप ने नंदिनी नामक कामधेनु की उपासना की। जिसकी कृपा से इसे रघु पुत्र हुआ। महाभारत में नंदिनी नामक गाय के द्वारा शंक, कंबोज, पारद आदि जातियों के निर्माण होने और उनकी सहायता से विश्वामित्र की पराजय का उल्लेख है। इतिहासकारों के अनुसार राजा दिलीप का समकालीन अन्य अथर्वनिधि है। क्योंकि राजा बाहू और रघु के पिता दिलीप में लगभग बीस पीढ़ियों का अन्तर है।
श्रेष्ठ भाग वसिष्ठ :
यह वसिष्ठ अयोध्या के राजा मित्रसह कल्माषपादं का पुरोहित था। महाभारत में इसे ब्रह्म कोष की उपाधि प्रदान की। गई है। एक बार कल्माषपादं ने इसे मांस युक्त भोजन खिलाने का प्रयास किया था (विरोधियों के षड्यंत्र के कारण)। ऋषि ने राजा को नर मांस भक्षक होने का शाप दिया। बारह वर्ष के बनवास के बाद राजा शाप मुक्त हुआ। तत्पश्चात् ऋषि ने रानी को पुत्र प्राप्ति का वर दिया। उस बच्चे का नाम अश्मक रखा गया।

English Translation 
Devaraja Vasishta.
Vasishta was the guru of the three kings of Ayodhya, Traiyyarun, Satyavrata, Trishanku and Harish-chandra. King Satyavrata’s behaviour was condemnable. He had once kidnapped a Brahmin girl from the wedding pavilion. He had also insulted his father i.e the King Traiyyarun and his teacher, Vasishta. That’s why, due to the curse of Guru Vasishtha, he was known as Trishanku. Due to opposition from Satyavrat Trishanku, Devraj Vasishtha’s quarrel with Vishwamitra continued. Vishwamitra used many weapons to defeat Devraj Vasishtha, but he could not succeed. So he realized that Brahm’s force is superior to the Kshatriya force. To get Brahm force, he left his family and went to the forests for penance. Satyavrat Trishanku got harsh punishment of exile for his misdeeds. There was famine in the country for many years. The forest dweller Trishanku, helped Vishwamitra’s family, and saved them from starvation. Vishwamitra returned from penance. He praised the help given by Trishanku, to his family in his difficult situation and reinstated Trishanku, who was deprived of the kingdom, by Vasishtha. He, himself became his priest. For some time, Vishwamitra was also the priest of Satyavrat’s son Harishchandra. At the time of Rajasuya Yagya, by Harishchandra, he adorned Guru Vasishtha as the priest. Harishchandra grew up under the guidance of Guru Vasishtha, during the exile of Hasyavarta Trishanku. The Brahmins of Ayodhya were against Vishwamitra. At the time of Rajasuya Yajna, Harishchandra did not give Dakshina to Vishwamitra and gave it to Guru Vasishtha. After that Vishwamitra got disappointed and went to Pushkar. But after some time his influence got increased and he got Harishchandra deposed. In mythological literature, there are many associated stories of Vishwamitra. According to Markandeya Purana, Guru Vasishtha returned after twelve years for Jalayas. So he was very angry when he heard the sad story about Harichandra. He said, “Vishvamitra has caused me great distress by dethroning a king, who worships gods and Brahmins, along with his wife, sons and servants.” Guru Devaraj Vasishta seated Harichandra on the throne of the kingdom of Nah. Apava or Varuni Vasishta: This Vasishta was the son of Vasishta named Varuna. Because there is also a deity named Varuna, who is the god of water. Therefore, the Purana writers mistakenly started calling this Vasishta Apav. He was a contemporary of King Arjuna, son of Kritavirya, and King Trishanku of Ayodhya. It is called ‘Brahmavadi’ in the Matsya Purana, meaning the interpreter of the Vedas. Karttavirya Arjuna had burnt its ashram. Therefore, it had cursed him that by a sage you would end. His prediction came true. Parasurama finished Kartavirya. was. Atharva Nidhi Vasishta. Atharva Nidhi Vasishta had been two. Contemporary of King Bahu 1, and Ikshvaku King Dilip 2. Born in the eighth generation of King Harishchandra, the royal priest of King Bahu was Atharva Nidhi Vasishta. The Haihaya Taljangh kings had deposed the Bahu king with the help of the Kambojas, Yavanas, Pardas and others living in the northwestern region. Sangar, son of King Bahu, defeated these enemies. Sagara wanted to destroy these people, but Guru Vasishta stopped him from sinful deeds by telling him the story of Parasurama. This sage had consecrated Sagara’s grandson Anshumat as prince. In the Raghuvansha and Padma Purana, it is a contemporary of Dilip. With its advice, Dilip worshiped Kamdhenu named Nandini. By whose grace, he had a son Raghu. In the Mahabharata, there is mention of the creation of castes like Shank, Kamboj, Parad etc. by a cow named Nandini and the defeat of Vishwamitra with their help. In the Mahabharata, there is mention of the creation of castes like Shank, Kamboj, Parad etc. by a cow named Nandini and the defeat of Vishwamitra with their help. According to historians, another contemporary of King Dilip is Atharvanidhi. Because there is a difference of about twenty generations between Raja Bahu and Raghu’s father Dilip.

Shreshth Vasistha: This Vasistha was the priest of King Mitrasah Kalmashpadam of Ayodhya. In Mahabharata, it was given the title of Brahma Kosh. Once Kalmashapada tried to feed it, a meal containing meat. (due to the conspiracy of the opponents). The sage cursed the king to be a male flesh eater. After twelve years of exile, the king was freed from the curse. After that the sage gave the queen, the boon of having a son. That child was named Ashmak.

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