ancient indian history

Guru Ram Dass

गुरु राम दास
“गुरू राम दास जी सिखों के चौथे गुरु थे और उन्हें गुरु की उपाधि 9 सितंबर 1574 को मिली थी। उन दिनों जब विदेशी आक्रमणकारी एक शहर के बाद दूसरा शहर तबाह कर रहे थे, तब ‘चौथे नानक’ गुरू राम दास जी महाराज ने एक पवित्र शहर रामसर, जो कि अब अमृतसर के नाम से जाना जाता है, का निर्माण किया”
गुरू रामदास जी का जन्म लाहौर में 20 कार्तिक बदी द्वितीया सं० 1591 वि० को हरदास मल्ल सोढ़ी खत्री के घर हुआ। उनकी माता का नाम दया कौर था। रामदास जी का मूल नाम जेठा था। गुरू जी अति सुन्दर, गौर वर्ण, चौडा मस्तक वाले तथा उनके हाथ-पैरो के लक्षण अवतारों जैसे थे। बचपन से ही वे साधु-संतों की सेवा करते और भक्ति में लीन रहते। सात वर्ष की आयु में उनके पिता का देहान्त हो गया। उनका पालन-पोषण ननिहाल में हुआ।
16 फाल्गुन, 1599 वि० में उनका विवाह गुरु अमरदास जी की पुत्री बीबी भानी से हुआ। सं० 1605 मे पृथ्वीचन्द, सं० 1608 में महादेव तथा 1610वि० में गुरु अर्जुन देव जी का जन्म हुआ।
गुरू रामदास बहुत नरम स्वभाव के थे। गुरूनानक देव के सुपुत्र य उदासी पंथ के संस्थापक बाबा श्रीचन्द उन्हें मिलने आए। गुरु जी ने उनका आदर सत्कार किया तथा पांच सौ रूपये और एक घोड़ा उन्हें भेंट किया। बाबा श्रीचन्द ने गुरूजी से पूछा लम्बी दाढ़ी क्यो रखी है। गुरू जी ने कहा “आप जैसे संतो के चरण पोंछने के लिए और वे दाढ़ी से चरण पोंछने लगे। ““श्रीचन्द खुश होई उचारा। इसी तौर पर घर लुटियो हमारा।
तीनों भाईयो मे से गुरु रामदास जी को अर्जुन देव ही गुरु गद्दी के योग्य लगते थे। गुरु बनने के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। पृथ्वी मल्ल को अर्जुन देव फूटी आँख नहीं सुहाते थे। उसकी कोशिश होती थी कि अर्जुन देव गुरु जी से दूर ही रहे। वे सदा कोई न कोई बहाना बनाकर उन्हें गुरु जी से दूर रखते। यहां तक कि अर्जुन देव के पत्र भी गुरू जी तक नहीं पहुंचने देते थे। गुरु रामदास जी ने गुरु अर्जुन देव को बाये बुड्डे के हाथ से भादो सुदि एक. सं० 1638 वि० को तिलक लगाकर गुरू रामदास जी ने उनकी तीन परिक्रमा करके पांच पैसे और नारियल आगे रखकर प्रणाम किया। सभी सिक्खों को वचन किया कि गुरू जी को सभी गुरुओ का स्वरूप मानकर मत्था टेको।” पृथ्वी चन्द जल-भुन कर वहां से चला गया। गुरूजी पृथ्वी के आचरण से बहुत दुखी हुए। गोंयदवाल के स्थान पर 47 वर्ष, 10 मास और 16 दिन की आयु में उन्होंने भादो सुदि तृतीय, सं० 1638 वि० को संसार से विदा ली।
गुरु रामदासपुर, जहां अब हरि मन्दिर साहिब है, एक छोटा सा जल स्रोत था। एक बार एक कुष्ट रोगी वहां स्नान करके स्वस्थ हो गया। उस दिन से वह स्थान तीर्थ बन गया। दूर-दूर से लोग आने लगे। अमावस, पूर्णिमा व संक्रान्ति को विशेष भीड़ लगने लगी। पंजाब में इन दिनों का विशेष महत्व होता है। गुरु रामदास जी ने लंगर की प्रथा भी चला दी थी, जो लोग स्नान करने आते वे अपने साथ दूध, घी, अनाज आदि ले आते।

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