Sanatana Sanskriti Sarankshan

Written by Alok Mohan on April 8, 2023. Posted in Uncategorized

धर्म और संस्कृति के संरक्षण का इतिहास

जितनी प्राचीन हमारी संस्कृति, उतना ही पुराना उसके संरक्षण का इतिहास है। समय-समय पर ऐसे लोग भी हुए, जिन्होंने इस संस्कृति को नष्ट करने के भरसक प्रयास किए, परन्तु प्राणों की आहूतियाँ देकर कुछ महान् विभूतियों ने इसकी रक्षा का बीड़ा उठाया। यही कारण है कि विश्व की कई संस्कृतियाँ पनपी और समाप्त हो गई, परन्तु हमारी संस्कृति आज भी अक्षुण्ण है। प्रत्येक हिन्दू को उन महान् आत्माओं के विषय में पूरी जानकारी होनी चाहिए।


परशुराम-हैहेय युद्ध :

धर्म और संस्कृति सुरक्षा के लिए परशुराम-हैहेय का संघर्ष चला। जिस मान सामाजिक-व्यवस्था के निर्माण के लिए ऋषि-मुनियों ने अपने जीवन लगा दिए थे, उन्हें नष्ट करने पर हैहेय राजे तुले हुए थे। वायु पुराण के अनुसार भृंगु वंशी ऋषि च्यवन का आश्रम गया (बिहार) के पास था। भृंगु वंशी या भार्गव ऋषि हैहेय राजाओं के राज पुरोहित थे। च्यवन ऋषि के वंशज ऋषि ऋचीक को हैहेय राजा कृतवीर्य ने बहुत सी सम्पत्ति दान दे दी थी, जिस से राजा का पुत्र कार्तवीर्य अर्जुन अप्रसन्न था। उसने सिहांसन पर बैठते ही भार्गवों पर अत्याचार आरम्भ कर दिए। उसकी सेना ने गर्भवती स्त्रियों, बच्चों और ऋषि-मुनियों को भी नहीं बरख्शा। कई लोगों ने हिमालय में शरण ली। ऋषि ऋचीक आश्रम त्याग कर कान्यकुब्ज में बस गए। कान्य कुब्ज के राजा ने अपनी बेटी सत्यवती का विवाह ऋषि ऋचीक से कर दिया। उनका पुत्र जमदग्नि हुआ। जमदग्नि का विवाह अयोध्या के राजा प्रसेनजित की बेटी रेणुका कामली से हुआ। इन के बेटे परशुराम हुए। हैहेय क्षत्रिय भारतीय संस्कृति को समाप्त करने पर तुले थे उन्होंने जमदग्नि वसिष्ठ आदि ऋषियों के आश्रम जलाने आरम्भ कर दिए। उनकी बढ़ती शक्ति को देखकर विभिन्न क्षत्रिय राजा संगठित हुए। अयोध्या, कान्यकुब्ज, काशी, वैशाली व विदेह के राजाओं ने परशुराम का साथ दिया। परशुराम को इन राजाओं की सहायता के अतिरिक्त ब्रह्मा, शंकर व कई ऋषियों का व समर्थन भी प्राप्त था। ऋषि अगस्त्य ने उन्हें उत्तम रथ व आयुध दिए तथा जविभिन्न अस्त्र-शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया। परशुराम हैहेय युद्ध कई वर्ष चला। परशुराम ने अधर्मी हेहेय राजाओं को समाप्त किया। वे विष्णु के. अवतार माने जाने लगे।
आधुनिक विद्वानों ने परशुराम का समय ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पूर्व माना है।
राम-रावण युद्ध
रामायण काल में भारत राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से संगठित तथा विश्व भर में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित था। श्री रामचन्द्र इक्ष्वाक की 65वीं पीढ़ी में अयोध्या के सम्राट हुए है। एक बार ऋषि बाल्मीकि ने नारद मुनि से पूछा, “सर्व गुण सम्पन्न व्यक्ति संसार में कौन है?” नारद ने कहा, ’इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न श्री रामचन्द्र बलवान, कान्तिमान, धैर्य-सम्पन्न, बुद्धिमान, नीतिज्ञ, वक्ता, शत्रुनाशक, धर्मज्ञ, यशस्वी, ज्ञानवान, इन्द्रिय निग्रही और तत्वज्ञानी हैं। वे सदा सज्जनों से घिरे रहते हैं, जैसे नदियों से सागर । खर, दूषण, रावण तथा अन्य राक्षसों द्वारा ऋथियों के यज्ञ ध्वस करना, उनके आश्रम जलाना, भारतीय संस्कृति को नष्ट करना था। श्री राम बनवास जाते समय ऋषियों के अस्थि समूह को देखकर व्याकुल हो उठते हैं। वे हाथ उठाकर प्रण करते हैं. इस धरती को निशाचर हीन करूंगा। उन्होंने ऐसा ही किया। अपने राज्य से दूर राम लक्ष्मण दोनों भाइयों ने सग्रीव को उसका खोया
हुआ राज्य दिलाया और उसकी सहायता से बलशाली रावण से टककर ली। कोई साधारण व्यक्ति ऐसा कठिन कार्य नहीं कर सकता था
पर श्री राम की विजय बुराई पर भलाई की विजय है।श्री राम चाहते तो लंका का राजा बन सकते थे परन्तु वे दूरदर्शी थे। उन्हो ने विभीषन को सिहांसन पर बैठाकर उसे मित्र बना लिया। श्री रामचन्द्र व उनके भाइयों को राज्य लिप्सा छुई नहीं थी। उनके गुरू सुयज्ञ वसिष्ठ, जो नीति विशारथ, प्रमुख ज्ञानी, क्षमाशील थे। उन्होंने श्री राम जी को उपदेश देने के लिए योग वसिष्ठ ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में ज्ञान और कर्म का उपदेश है गुरु जी के अनुसार ज्ञान-प्राप्ति के लिए दैनिक व्यवहार और कर्तव्य छोड़ने की आवश्यकता नहीं। जीवन सफल बनाने के लिए कर्तव्य निभाने की उतनी जरूरत है जितनी आत्मज्ञान प्राप्त करने की। जिस तरह पंक्षी दो पंखों से आकाश में उड़ता है, उसी प्रकार ज्ञान और कर्म के समन्वय से मनुष्य के जीवन में परमपद की प्राप्ति होती है ।
श्री राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न चारों भाइयों के आठ पुत्र हुए। राम के कुश को कुशावती (गोवा), लव को श्रावस्ती में बसा दिया गया था। भरत ने अपने मामा की सहायता से गधर्व देश जीत लिया।
उसने अपने पुत्र तक्ष को तक्षशिला तथा पुष्कल को पुष्कलावती में स्थापित किया। लक्ष्मण के पुत्र अगंद ने अंगदीया और और चन्द्रकान्त ने चन्द्रावती राजधानियों का निर्माण किया। शत्रुघ्न ने मथुरा को लवणासुर से मुक्त करा कर अपने पुत्र सुबाहु को वहां का शासक बनाया तथा दूसरे पुत्र शत्रुघाती को विदिशा का राज्य सौंपा। इस प्रकार चारों भाईयों का वंश आठ भागों में विभकत होकर बढ़ने लगा।
श्री राम जी व उनके भाईयों के पश्चात् सातों भाईयों ने पहले जन्म लेने वाले कुश को अपना सम्राट माना। उसने पुनः अपनी राजधानी अयोध्या बना ली और कुशावती को अपने विश्वास पात्र व्यक्तियों के हाथों सौंप दिया। श्री रामचन्द्र की पच्चीस पीढ़ियों ने भारत पर एकच्छत्र राज्य किया। उसके पश्चात यह साम्राज्य पहले जैसा शक्तिशाली नहीं रहा। महाभारत काल में युधिष्ठर द्वारा राजसूय यज्ञ तथा भीम द्वारा दिग्विजय के समय अयोध्या के राजा युहवल की हार हुई थी। इसलिए महाभारत युद्ध में बृहद्बल ने कौरवों का साथ दिया। ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ विश्व का अद्वितीय ग्रन्थ है। इस महान् ग्रन्थ का, विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। श्री रामचन्द्र जी विष्णु के अवतार हैं।
महाभारत युद्ध –
आधुनिक इतिहासकारों ने महाभारत के युद्ध का समय महात्मा बुद्ध से लगभग 600 वर्ष पूर्व माना है। इस युद्ध में विश्व के सभी राजाओं ने भाग लिया था। कुछ पाण्डव पक्ष में शामिल हुए और कुछ कौरव पक्ष में। यह विश्व का प्रथम महायुद्ध माना जाता है। यह युद्ध भी संस्कृति संरक्षण का युद्ध था। अस्त्र-शास्त्रों के विषय में कहा जाता है कि महाभारत काल की सभ्यता किसी अन्य सभ्यता से कम नहीं थी। उस समय अति आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण हो चुका था। परन्तु सत्ताधारियों का नैतिक पतन हो चुका था। वृद्धजनों, गुरुओं और अन्य महान् विभूतियों से भरे दरबार में एक राजपुत्री और कुल वधु को निर्वस्त्र करने की चेष्टा करना संस्कृति का घोर पतन था। इस काल में ऋषि-मुनियों का बर्चस्व कम होता दिखाई देता है। उनके आश्रम तो पहले की तरह ही चलते थे, परन्तु राजसता पर उनका प्रभुत्व कम हो गया था। कौरव-पाण्डव युद्ध को रोकने का श्री कृष्ण ने भरसक प्रयत्न किया, परन्तु वे सफल नहीं हुए। युद्ध हुआ, श्रीकृष्ण दुष्ट सहारक रूप में उमरे। हताश अर्जुन को उन्होंने अपना कर्तव्य निभाने का उपदेश दिया। गीता मानव इतिहास की महान दार्शनिक और धार्मिक वार्ता है, इसका अनुवाद विश्व की कई भाषाओं में हो चुका है। इस काल में कृष्ण द्वैपायन अठाइसवें वेद व्यास थे जिन्होंने वेदों का सम्पादन किया तथा भारत का इतिहास लिखा। भगवान कृष्ण विष्णु के अवतार हैं।
जैन बौद्ध मत :
ईसा के लगभग 600 वर्ष पूर्व महात्मा महावीर द्वारा जैन और गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध मत की स्थापना की गई। इन दोनों मतों ने अहिंसा पर बल दिया। मौर्य काल में बौद्धमत का बहुत विस्तार हुआ। वैष्णव धर्म के अनुयायी भारतीयों ने महात्मा बुद्ध को विष्णु का अवतार माना। विदेशों में प्रचार हेतु सम्राट अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को भेजा। सम्राट अशोक के भाई महेन्द्र और बहिन संघ मित्रा ने देश-विदेशों में बौद्धमत के लिए प्रचार किया। परिणामतः बौद्ध मत मध्य एशिया चीन जापान, बाली, जावा. सुमात्रा आदि में फैल गया।
बौद्धकाल में कश्मीर, तक्षशिला, नालन्दा आदि शिक्षा केन्द्र थे। जहाँ विश्व से हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते थे। चीनी यात्री ह्यूनसांग ज्ञान अर्जन के लिए भारत में कई वर्ष रहा। उसका कथन है. इन विश्वविद्यालयों में बौद्धमत के विभिन्न सिद्धान्त ग्रन्थों के अतिरिक्त वेद उपनिषद् दर्शन की शिक्षा दी जाती थी। बौद्धमत ने अहिंसा पर बल दिया था। इसलिए उन्होंने ऋषि-मुनियों द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्र जिनमें शास्त्रों के अतिरिक्त अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा भी दी जाती थी बन्द करा दिए।
राजा पोरूस
सिकन्दर से लगभग दो सौ वर्ष पहले अर्थात् 530 ई0 पूर्व पार्शियनस और – यूनानियों ने भारत के सुन्दर नगरों और खुशहाल गांवों को देखकर भारत पर आक्रमण किए थे। पशियन सम्राट सयरूस ने कांधार तक का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया था जो बाद में मुक्त करवाया गया जेहलम और चुनाव के बीच के क्षेत्र पर राजा पोरूस का अधिकार था। तक्षशिला का राजा अम्बी था। मकदूनिया के जनरल फिलिप के पुत्र सिकन्दर ने मई, 326 ई0 पूर्व भारत की पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। अम्बी और “कुछ अन्य हिन्दू राजा सिकन्दर के साथ मिल गए। पोरुस यह सुनकर बड़ा “दुःखी हुआ। उसने अपनी परम्परा और संस्कृति की रक्षा हेतु सिकन्दर के साथ युद्ध की ठाना। उसके साथ पंजाब के कुछ कबीले भी मिल गए।

Alok Mohan

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