ऋषिधन्वन्तरि: ऋषि धन्वन्तरि को आयुर्वेद शास्त्र का देवता माना जाता है। धनतेरस के दिवस को स्वास्थ्य के देवता धन्वन्तरि का दिवस माना जाता है। धन्वन्तरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के देवता हैं। आयुर्वेद की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा के समय से हुई । आदिकाल के सभी ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण के प्रसंग में भगवान धन्वन्तरि का उल्लेख किया है। आयुर्वेद के आदि ग्रंथों ‘सुश्रुत्रसंहिता’, ‘चरकसंहिता’, ‘काश्यप संहिता’ तथा ‘अष्टांग हृदय’ में धन्वन्तरि का विभिन्न रूपों में उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त अन्य आयुर्वेदिक ग्रंथों- भाव प्रकाश, शार्गधरतथा उनके ही समकालीन अन्य ग्रंथों में आयुर्वेदावतरण का प्रसंग उधृत है। महाकवि व्यास द्वारा रचित श्रीमद्भावत पुराण के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का रूप माना गया है। मोहयालों की उपजाति वैद धन्वन्तरि को अपना प्रवर मानने लगी है। कुछ वर्ष पूर्व वैद ऋषि भरद्वाज को ही प्रवर मानते थे। परन्तु अब यह विचार बल पकड़ गया है कि वैद धन्वन्तरि को ही अपना गोत्रकार मानें, ताकि रिश्ते नाते के दायरे में भरद्वाज गोत्र की उपजाति दत्त भी शामिल हो जाए। परन्तु यह अनुचित है, क्योकि प्राचीन ग्रंथों से ज्ञात होता है, कि एक वंश में यदि कोई ऋषि प्रसिद्ध हो जाता है, तो उसके नाम से अलग उपजाति चल जाती थी, और वह उस जाति का प्रवर कहलाता था। यथा शक्ति वसिष्ठ के पुत्र पराशर तथा पराशर के पुत्र व्यास से अलग-अलग उपजातियाँ विकसित हो गई। गुजरात व महाराष्ट्र में वैद्य उपजाति के कई ब्राह्मण हैं, जिनका प्रवर भरद्वाज था। भरद्वाज के वंशज दत्त व वैद दो जातियों में कैसे और कब बंटे, इसका प्रमाण आज उपलब्ध नहीं, केवल अनुमान पर निर्भर किया जा सकता है। राजा भरत ने जिस भरद्वाज को गोद लिया था. उसके का नाम वितथ या विदथिन था, विदथिन को राज्यसिहांसन पर बैठा कर भरद्वाज तपस्या हेतु वन में चले गए थे। विदथिन की सन्तान वैदाथिन कहलाई। विदथिन से ही सम्भवतः वैद उपजाति बनी होगी। मत्स्य पुराण के अनुसार अंगिरस् के वंश में एक वैद्यग ऋषि हुए हैं। क्योंकि भरद्वाज ऋषि अंगिरस गोत्र के ही प्रवर हैं। ऋषि अगिरा भरद्वाज के दादा थे। अतःइन वैद्यग ऋषि से भी वैद्य उपजाति का उद्गम माना जा सकता है। द्यौम्य ऋषि के शिष्य हिरण्य दत्त वैद एक तत्वज्ञानी आचार्य हुए हैं। मानव आत्मा को वे अग्नि अथवा ऊर्जा रूप में स्वीकार करते थे। इनका पैतृक नाम वैद था। सम्भव है ये ही वैद उपजाति के मूल पुरूष हों। भागवत पुराण में धन्वन्तरि के जन्म की कथा इस प्रकार है : हे महाराज, अमृत के इच्छुक, दैवो व दैत्यों द्वारा मथे जाते हुए समुद्र से परम अद्भुत पुरुष प्रकट हुआ। जिसकी लम्बी, मोटी भुजाएं, शंख के समाज ग्रीवा, लाल आंखे, श्याम वर्ण का नवयुवक, माला धारी, आभूषणों से मण्डित, पीत वस्त्रधारी, विशाल वक्ष वाला, चमकते मणिमय कुण्डलों वाला, चिकने धुंधराले बालों वाला, सुन्दर सिंह के समान गतिवाला और हस्ताभूषणों से अंलकृत था। उसने अमृत से पूर्ण कलश उठाया था। साक्षात् भगवान् विष्णु के अंश से उत्पन्न हुआ था। वह आयुर्वेद की दृष्टि वाला अर्थात् ज्ञाता और यज्ञांश का भोक्ता धन्वन्तरि नाम से प्रसिद्ध हुआ। विष्णु पुराण के अनुसार धन्वन्तरि आयुर्वेद शास्त्र के प्रवर्तक देवता और देवताओं के वैद्य थे परन्तु इन्हें देवों की तरह यज्ञांश जन्म सिद्ध न था। यज्ञ के अंश का भाग तथा अष्ट सिद्धियांउन्हें भगवान विष्णु के वरदान से अगले जन्म में प्राप्त हुई। मत्स्य पुराण तथा भविष्य पुराण के नुसार उन्हें आयुर्वेद का ज्ञान इन्द्र के प्रसाद से तथा चिकित्सा ज्ञान भास्कर के प्रसाद से प्राप्त हुआ था। द्वापर युग में धन्वन्तरि ने काशी राज दीर्घतपस् के पुत्र धर्म के घर जन्म लिया। यह इक्ष्वाकु वंशीय राजा बृहदश्व के समकालीन था। धन्वन्तरि के अन्य नाम आदि देव, अमरवर, अमरयोनि ओर अब्ज थे। विष्णु पुराण में उन्हें विष्णु का अवतार कहा गया है। वह बाल्य काल में ही विरक्त रहते थे। बड़े प्रयत्न से उन्हें काशी का राजा बनाया गया था। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उन्हें शिव का उपशिष्य कहा गया है। वे भारद्वाज के शिष्य थे। भारद्वाज प्रणीत आयुर्वेद को उन्होंने निम्नलिखित आठ भागों में विभक्त किया :- काय, बाल (बाल रोग) ग्रह (भूत, प्रेत, विकारादि), उध वांग (शिरोनेत्र विकार), शल्य, दंष्ट्रा (विषचिकित्सा), जरा वृष । धन्वन्तरि के नाम पर निम्नलिखित ग्रन्थ हैं:- (1) चिकित्सा तत्व ज्ञान, (2) चिकित्सा दर्शन (3) चिकित्सा कौमुदी (4) अजीर्णामृत मंजरी, (5) रोग निदान, (6) वैद्य चिन्तामणि, (7) वैद्य प्रकाश चिकित्सा, (8) विद्या प्रकाश चिकित्सा (9) धन्वन्तरि निघण्टु, (10) चिकित्सा सार संग्रह (11) भास्कर संहिता का चि० तत्व विज्ञान तंत्र, ( 12 ) धातु कल्प (13) वैद्यक स्वरोदय । अग्नि पुराण के अनुसार धन्वन्तरि ने वृक्षायुर्वेद, अश्वायुर्वेद और गजायुर्वेद की भी रचना की थी। विश्वामित्र का पुत्र सुश्रुत एवं वृद्ध नामक ब्राह्मण धन्वन्तरि के प्रमुख शिष्य थे। सुश्रुत ने उनके द्वारा रचित कल्पवेद का पठन कर सौ अध्यायों के आश्रुत तंत्र की रचना की। धन्वन्तरि के पुत्र का नाम केतुमत था। इनकी परम्परा में हुए भेल, पालकाप्य आदि भिषम्बर भी धन्वन्तरि नाम से प्रसिद्ध हैं। ब्रह्म वैo पुराण में धन्वन्तरि और मनसा के युद्ध की कथा आती है। धन्वन्तरि अपने शिष्यों के साथ कैलाश की ओर जा रहे थे। मार्ग में तक्षक नाग फुंफकार करता उनकी और दौड़। वह बड़े उनके एक शिष्य को औषधि की जानकारी थी। अभिमान से आगे बढ़ा। उसने तक्षक को पकड़ कर, उसके सिर की मणि निकाल कर जमीन पर फेंक दिया। सर्प राज वासुकि को पता लगा उसने हजारों नाग भेजे, जिनकी विषैली सांस से धन्वन्तरि के शिष्य मूर्च्छित हो गए। धन्वन्तरि ने वनस्पति जन्य औषधि से शिष्यों को सचेत किया और सांपों को अचेत कर दिया। शिव भक्त मनसा ने धन्वन्तरि के शिष्यों को पुनः अचेत कर दिया। वह धन्वन्तरि को भी अचेत करना चाहती थी। शिव द्वारा दिया गया त्रिशूल फेंकने वाली थी कि शिव और ब्रह्मा ने उपस्थित होकर उसको शान्त किया। धन्वन्तरि व मनसा ने एक दूसरे की अराधना की सभी साँप, मनसा आदि, और धन्वन्तरि शिष्यों सहित अपने-अपने स्थानों पर चले गए। काशीराज धन्वन्तरि के अतिरिक्त इसी नाम के कई प्रमुख आचार्य हुए हैं, जिनमें से कुछ का विवरण इस प्रकार है। धन्वन्तरि अमृताचार्य का नाम गालब ऋषि के वरदान से हुआ था। एक बार गालब वन में काष्ठ लेने गए। वे अत्यन्त प्यासे थे। एक सुन्दर युवती ने उन्हें पानी पिलाया। ऋषि ने उसे पुत्र प्राप्ति का वर दिया। बालक का नाम अमृत रखा गया। यह बालक बड़ा होकर धन्वन्तरि अमृताचार्य के नाम से विख्यात हुआ। विक्रमादित्य के नवरत्नों में भी धन्वनतरि नाम के एक भिषम्बर थे। एक अन्य धन्वन्तरि को कृष्ण चैतन्य का शिष्य कहा गया है। दोनों में इस विषय पर विवाद हुआ कि प्रकृति और पुरूष में से श्रेष्ठ कौन है? धन्वन्तरि पुरूष को प्रकृति से श्रेष्ठ मानते थे। कृष्ण चैतन्य ने सिद्ध किया कि दोनों श्रेष्ठ हैं। धन्वन्तरिं कृष्ण चैतन्य के सिद्धान्त से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए। गुरु गोविन्द सिंह ने धन्वन्तरि को चौबीस अवतारों में स्थान दिया है।
English Translation Rishi Dhanvantari Rishi Dhanvantari is considered as the deity of Ayurveda Shastra. The day of ‘Dhanteras’ is considered to be the day of Dhanvantari, the god of health. Dhanvantari is the god of health, longevity and brightness. Ayurveda originated from the time of Lord Brahma. Lord Dhanvantari has been mentioned in the context of Ayurvedavataran in all the ancient texts. Dhanvantari is mentioned in various forms in the ancient texts of Ayurveda, ‘Sushrutrasamhita’, ‘Charaksamhita’, ‘Kashyap Samhita’ and ‘Ashtang Hridaya’. Apart from this, the context of ‘Ayurvedavataran’ is quoted in other Ayurvedic texts – ‘Bhav Prakash’, ‘Shargadhar’ and other contemporary texts. According to ‘Shrimadbhavat Purana’ composed by great poet Vyas, Dhanvantari is considered as the form of Lord Vishnu. One sub-caste of Mohayals has started considering Vaid Dhanvantari as their leader. A few years ago, the Vedas used to consider Rishi Bhardwaj as the best. But now the idea has caught hold that the Vaidyas consider Dhanvantari as their gotrakar, so that the sub-caste Dutt of Bhardwaj gotra is also included in the ambit of kinship. But this is unfair, because it is known from ancient texts, that if a sage became famous in a clan, then a separate sub-caste used to go by his name, and he was called Pravara of that caste. For example, Parashara, the son of Shakti Vasistha, and Vyasa, the son of Parashara, developed different sub-castes. There are many Brahmins of the Vaidya sub-caste in Gujarat and Maharashtra, whose gotra was Bhardwaj. The proof of how and when the descendants of Bhardwaj were divided into two castes, Dutt and Vaid, is not available today, it can only be relied upon, with the available texts. The Bhardwaj was adopted by King Bharat. His name was Vitath or Vidathin, after placing Vidathin on the throne, Bhardwaj went to the forest for penance. The children of Vidthin were called Vaidathin. Vaid sub-caste might have been formed from Vidthin itself. According to the Matsya Purana, there was a Vaidyag Rishi in the lineage of Angiras. Because Bhardwaj Rishi is the leader of Angiras gotra. Sage Agira was the grandfather of Bharadwaja. Therefore, the origin of the Vaidya sub-caste can also be considered from these Vaidyag Rishis. Hiranya Dutt Vaid, the disciple of Dayumya Rishi, has become a philosopher teacher. They accepted the human soul as fire or energy. His ancestral name was Vaid. It is possible that these are the original men of the Vaid sub-caste. The story of the birth of Dhanvantari in the Bhagavata Purana is as follows: Oh king, desirous of nectar, this supreme wonderful man appeared from the ocean, being churned by gods and demons. One who has long, thick arms, neck of conch shell, red eyes, young man of dark complexion, garlanded, adorned with ornaments, wearing yellow clothes, huge chest, shining gem earrings, smooth gray hair, beautiful lion’s movements and hand was decorated with, ornaments. He had raised the urn full of nectar. Sakshat was born from the part of Lord Vishnu. He became famous by the name of Dhanwantari, who has the vision of Ayurveda, that is, the knower and the enjoyer of the sacrifice. According to the Vishnu Purana, Dhanvantari was the originator of Ayurveda Shastra and the physician of the gods, but he was not born like other gods. Part of the Yajna and Ashta Siddhis were received by him in the next birth by the boon of Lord Vishnu. According to Matsya Purana and Bhavishya Purana, he got the knowledge of Ayurveda from the Prasad of Indra and medical knowledge from the Prasad of Bhaskar. In Dwapar Yuga, Dhanvantari was born in the house of Dharma, the son of King Dirghatapas of Kashi. He was a contemporary of Ikshvaku dynasty king Brihadashva. Other names of Dhanvantari were Adi Dev, Amarvar, Amarayoni and Abaj. In the Vishnu Purana, he has been called an incarnation of Vishnu. He used to remain disinterested in his childhood. With great effort, he was made the king of Kashi. In the Brahmavaivarta Purana, he has been called a disciple of Shiva. He was a disciple of Bhardwaj. He divided Bhardwaj Pranit Ayurveda into the following eight parts :- Kay, Bal (Child Disease), Graha (Bhoot, Pret, Vikaradi), Udha Wang (Shironetra Disorder), Shalya, Danshtra (Poisoning), Jara Vris. The following texts are on the name of Dhanvantari:- (1) Chikitsa Tatva Gyan, (2) Chikitsa Darshan (3) Chikitsa Kaumudi, (4) Ajirnamrit Manjari, (5) Rog Nidana, (6) Vaidya Chintamani, (7) Vaidya Prakash Chikitsa. , (8) Vidya Prakash Chikitsa, (9) Dhanvantari Nighantu, (10) Medical Abstract Collection, (11) Bhaskar Sanhita’s Chi Tatva Vigyan Tantra, (12) Metal Kalp (13) Vaidyak Swarodaya. According to Agni Purana, Dhanvantari also composed Vrikshayurveda, Ashwayurveda and Gajayurveda. Vishwamitra’s son Sushruta and a Brahmin named Vriddha were the chief disciples of Dhanvantari. Sushruta read the Kalpaveda composed by him and composed the Ashrut Tantra of hundred chapters. Dhanvantari’s son’s name was Ketumat. Bhel, Palakapya etc. Bhishambar in his tradition are also famous by the name Dhanvantari. The story of the war between Dhanvantari and Manasa comes in the Brahma Vaio Purana. Dhanvantari was, once, going towards Kailash with his disciples. Takshak snake used to hiss on the way and ran towards him. That elder one of his disciples knew about medicine. Move forward with pride. He caught Takshak, took out the gem from his head and threw it on the ground. The snake king Vasuki came to know about this incident and got annoyed. He sent thousands of snakes, whose poisonous breath made the disciples of Dhanvantari unconscious. Dhanvantari treated his disciples with herbal medicines and made the snakes unconscious. Shiv bhakt Manasa again made the disciples of Dhanvantari unconscious. She also wanted to stun Dhanvantari. She was about to throw the trishul given by Shiva that Shiva and Brahma intervened and pacified. Dhanvantari and Manasa again treated all the snakes & disciples. Apart from Kashiraj Dhanvantari, there have been many prominent Acharyas with the same name, some of whom are described as follows. The name of Dhanvantari Amritacharya was derived from the boon of Rishi Galab. Once Galab went to the forest to collect wood. He was very thirsty. A beautiful girl gave him water. The sage gave her the boon of having a son. The child was named Amrit. This child grew up and became famous by the name of Dhanvantari Amritacharya. There was also a Bhishambara named Dhanvantari among the Navaratnas of Vikramaditya. Another Dhanvantari is said to be a disciple of Krishna Chaitanya. There was a dispute between both of them on the subject that who is the best among Prakriti and Purush? Dhanvantari considered man superior to nature. Krishna Chaitanya proved that both are superior. Impressed by the principles of Krishna Chaitanya, Dhanvantar became his disciple. Guru Gobind Singh Jee has also given Dhanvantari a place in twenty four incarnations, in the religious texts of Sikhism.