राम काव्य भारतीय संस्कृति का श्री गणेश वैदिक काल से पूर्व हो चुका था। भारत में सूर्य वंश व सोम वंश के राज्यों की स्थापना हो चंकी थी। वे राज्य थे अयोध्या, वैशाली, काशी, पांचाल, कान्यकुब्ज, महिष्मती, तुर्वसु, हस्तिनापुर कधार, तितक्षु (पूर्वी भारत ) तथा कलिंग आदि। उस समय भी राजनैतिक दृष्टि से बटा हुआ भारत सांस्कृतिक दृष्टि से एक था। स्थान-स्थान पर ऋषि मुनियों के आश्रम थे। उनमें वेद वेदांग, उपनिषद, आयुर्वेद, ज्योतिष आदि का अध्ययन तथा अस्त्र-शस्त्रों का प्रशिक्षण दिया जाता था। चार आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास तथा सामाजिक व्यवस्था के लिए चार वर्णों को गठित किया गया था। वेद ऋषि मुनियों द्वारा रचे गये, हजारों वर्षों पश्चात् भी उनमें लेशमात्र परिवर्तन नहीं हुआ। परन्तु राजाओं का इतिहास आरम्भ में लिखित नहीं था। कथा वाचक मौखिक रूप से ही जन साधारण को कथायें सुनाते थे वे अपनी रूचि व सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार कथाओं में परिवर्तन व परिवर्द्धन करते रहे। भारत लगभग 12 सौ वर्ष दासता की जंजीरो में जकड़ा रहा, परन्तु हिन्दू जाति का मनोबल व नैतिक साहस कायम रहा। इस काल में भी राम कथा पर आधारित साहित्य की निरन्तर रचना होती रही हैं। इस साहित्य से पता चलता है कि पराधीन हिन्दू जाति का मनोबल बढ़ाने में इसका कितना योगदान रहा है। धर्म संस्कृति व साहित्य के क्षेत्र में ऐसे महापुरूषों का उदय हुआ जिन्होंने अपने धर्म, संस्कृति की रक्षा हेतु शक्तिशाली आंदोलनों का नेतृत्व किया, बलिदान दिए परन्तु अपनी संस्कृति पर आंच नहीं आने दी। आज स्वतन्त्र भारत में यदि कोई हिन्दू धर्म रक्षा के लिए आवाज उठाता है तो उसे कट्टरपंथी कहकर चुप ही नही करा दिया जाता बल्कि उसे इतना प्रताड़ित किया जाता है कि वह अपनी आवाज बुलंद कर ही नहीं सकता। क्या विश्व में अन्य कोई ऐसा देश है जिसके बहुसंख्यक लोगों को पग पग पर अपमानित होना पड़े। स्वामी विवेकानन्द ने भारत की खोई हुई प्रतिष्ठा को विश्व में पुनः उजागर किया। परिणामतः कई विदेशी विद्वानों की रुचि हमारे प्राचीन साहित्य के अध्ययन की ओर बढ़ी। एफ० ई० पार्जीटर आई० सी० एस० उच्च अधिकारी ने संस्कृत भाषा सीखी और पुराण साहित्य पर गहन शोध करने के पश्चात अमूल्य ग्रन्थों की रचना की। फा० कामिल बुल्के इसाई धर्म के प्रचार हेतु भारत में आया था, परन्तु हिन्दु धर्म संस्कृति से इतना प्रभावित हुआ कि उस ने हमारे धर्म और प्राचीन ग्रन्थों का अवलोकल किया और राम कथा उत्पति और विकास ग्रन्थ लिख कर पी०एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। परन्तु अफसोस है उन अधर्मी हिन्दुओ पर जिन की भ्रष्ट बुद्धि अपने पूर्वजो का अपमान करने पर तुली है। वे अपने और अपनी सन्तानों के नाम तो श्री राम, सीता व श्री कृष्ण रखते हैं परन्तु कहते हैं ये सभी मिथ हैं स्वतन्त्रता के बाद भारतीय रामायण के आदर्शों को भूल गए। परिणामतः लूट खसूट, हत्याएं, भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी आदि का बोल बाला हो गया। ‘पब’ संस्कृति भी राक्षस वृति की देन है जो लोग पब संस्कृति का समर्थन करते हैं वे भी अपनी बहु बेटियों को पब में मन्दिरा पान करने व उन्मुक्त प्रेम की अनुमति नहीं देगें, परन्तु दूसरों की बहू बेटियों की मस्ती पर आनन्द लेना चाहेंगे। वाल्मीकि ऋषि के अनुसार रामायण काल भारत का स्वर्ण युग था। रामायण विश्व के समस्त साहित्य में सर्वोत्तम ग्रन्थ है । इस का प्रभाव भारतीय जन-जीवन पर गहरा अंकित हुआ है माता पिता गुरू का आदर बंधुत्व, भावना, तप-त्याग, समाज संगठन, सर्वोत्तम शासन के आदर्श स्वरूप श्री राम चन्द्र माने जाते हैं। विवाह के समय मांगलिक गीतों में भी कन्या पिता से कहती है : सास होवे मात कौश्ल्या, ससुर हो दशरथ पति होवे राम जिहा, छोटा देवर लक्ष्मण होवे।। (पंजाबी गीत) पराधीन भारत में भी गावं की चौपालों में राम कथा सुनाई जाती थी। बच्चा-बच्चा रामायण के आदर्शों पर चलना चाहता था । सरकारी स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी रामायण का स्थान था। राम-चरित मानस के दोहे सस्वर गाए जाते थे। स्वतन्त्रता के बाद धर्म निरपेक्ष सरकारों ने पाठ्यक्रम से ही राम-कथा को नहीं निकाला अपितु रामायण के आदर्श पात्रों पर कीचड़ उछालना शुरू कर दिया। यह असहनीय है। हमारे धर्म-संस्कृति को समाप्त करने का षडयन्त्र है। कोई भी स्वाभिमानी अपने पूजनीय महापुरूषों पर लांछन पंसद नही करेगा। अतः हिन्दु धर्म विरोधी विवरण स्कूलों के स्लेबस में से तत्काल निकाल देना चाहिए। यदि हम आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते है तो रामायण के आदर्शों पर चलना होगा। घर-घर में रामायण का प्रतिदिन पाठ हो। अयोध्या से श्री लंका तक राम वन गमन मार्ग का विकास किया जाए। राम नवमी, सीता नवमी, दशहरा दिवाली आदि त्यौहारों पर यात्राएं सगठित की जाएं। हमारे महापुरूषों, अवतारों तथा हमारे धार्मिक ग्रन्थों को मिथ कहने वालों को हमने सबक सिखाना है। हम अधिक से अधिक राम कथा साहित्य रचें । हिन्दुओं जागो, अपने पूर्वर्जों का अपमान सुनना घोर अपराध है। यदि तुम चुप रहे तो भगवान् तुम्हें माफ नही करेगा और आने वाली पीढ़िया तुम्हे धिक्कारेगीं। ‘मिथ व माईथौलोजी” के विषय में आदरणीय विद्वान पं० भगवत दत्त के निम्नलिखित विचार हैं । मिथ : किसी प्राकृतिक अथवा ऐतिहासिक घटना के विषय में जन साधारण का विचार जो शुद्ध कल्पित कथानक हो और जिस में लोकोत्तर व्यक्तियों, कार्यों अथवा घटनाओं का समिश्रण हो । माईथोलोजी : पश्चात्य शिक्षा प्राप्त वर्तमान लेखक हजारों पुरातन बातों को माईथोलौजी कह कर संतुष्ट हो जाते है। माईथोलौजी के इस मूलभूत ने जो यवन देश से योरुप में गया और वहां से भारत में आया । पुरातन इतिहास का अधिकांश नाश किया है। माईथोलोजी रुपी ज्वर के कारण त्रिकालज्ञ ऋषियों के लेख असत्य माने जा रहे हैं। इसी की रट लगा कर अनेक अल्प पठित अपने को पंडित मान रहे है। और भारत का उद्धार पश्चिम अनुकरण में मानते हैं।” स्वामी सत्यानन्द जी महाराज का वानर जाति के विषय में कथन : ‘‘रामायण पर एक ऐतिहासिक दृष्टि विंध्याचल से दक्षिण की भूमि विस्तृत और विशाल वन से घिरी थी। वह भूभाग सूर्यवंशियों का सुरक्षित भूभाग था। इस भूभाग में कहीं-कहीं ऋषियों के आश्रम बन गये थे। वहां एक पिछडा हुआ आर्य वंश भी बसता था। जो वानर नाम से प्रसिद्ध था । वे जन चतुर, चपल व सुवीर थे । ” “शाक्यमुनि के समय भी रामायण विद्यमान थी। अतः यह कहना झूठ है कि शाक्य मत के हास के पश्चात रामायण की काल्पनिक कथा का निर्माण हुआ।” “जैन मुनि महावीर के समय जैन मत से भिन्न अन्य धर्म के 24 ग्रन्थ विद्यमान थे, उन में रामायण और महाभारत भी गिने जाते थे।” वानर एक जाति थी। कई लोग कहते है कि क्या हनुमान वानर थे। मै कहती हूँ “नहीं” आज भी मध्यप्रदेश, उडीसा आदि प्रान्तों के आदिवासी लोगों की जातियां सिंह, मृग, रीछ, कछुआ भालु आदि हैं। जंगली जानवरों से अपनी रक्षा के लिए ये लोग वैसा ही अपना रूप बना लेते होगें। राक्षस पूजा नोएडा के पास विसरवा गांव में रावण का मन्दिर बन रहा है। यह गांव रावण के पिता विश्रवा की तपस्थली था। जयपुर में रावण की मूर्ति तैयार हो रही है। रामत्व के स्थान पर रावणत्व की पूजा अर्थात राक्षसवृति का बोलबाला । रावण महाज्ञानी व शिव भक्त था । परन्तु उसके कुकृत्यों के कारण उसके दादा पुलस्त्य ऋषि व अन्य सभ्य समाज ने उस का बहिष्कार कर दिया। वह और उस के वंशज ब्रह्म राक्षस कहलाने लगे। 21 वीं सदी के हिन्दुओं पर राक्षस वृति इतनी हावी हो रही है कि प्राचीन संस्कृति को नष्ट कर नवीन संस्कृति का श्री गणेश किया जा रहा है। ( देखिए साप्ताहिक पत्रिका “प्रघात” 26 अप्रैल, 2009, अम्बिका पुर, उ० प्र०) प्रस्तुत पुस्तिका में मैने आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण से लेकर 1962 ई० तक के भारत में लिखित या अनुवादित राम कथा संबंधित साहित्य का अति संक्षिप्त परिचय दिया है। राम कथा संबधी साहित्य का निमार्ण विश्व की प्रमुख भाषाओं में भी हुआ है। तथा भारत की प्रान्तीय भाषाओं व बोलियों में भी राम कथा पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए है। उन सब का विवरण जुटाना मैरे लिए असभव है। वस्तुतः श्री राम कथा साहित्य इतना विशाल है कि उस की सूची तैयार करना सरल कार्य नहीं क्योंकि : राम अन्नत अन्नत गुन, अमित कथा विस्तार सुनि आसचरज न मानहहिं, जिन के विमल विचार ।। सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुणगान । सादर सुनहि ते तरहिं, भव सिंधु बिन जलयान ।। मैं उन अनेक विद्वान लेखकों की आभारी हूँ जिन की रचनाओं से मैंने सामग्री प्राप्त की है। मेघदूत प्रिंटिगं प्रेस के स्वामी श्री भीम सेन बतरा जी व उनके कर्मचारियों का भी धन्यवाद करती हूँ। लज्जा देवी मोहन राम कथा प्राचीन काल से लेकर अब तक राम कथा हमारे जन जीवन को प्रभावित करती आ रही है। यह कथा विभिन्न युगों एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित तथा परिवद्धिंत होती रही है। यह संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रशं से होती हुई भारत की आधुनिक भाषाओं के साहित्य को परिपूर्ण कर रही है, “मानव हृदय को आकर्षित करने की जो शक्ति राम कथा में है। वह अन्यत्र दुलर्भ है ।” राम कथा की विकास यात्रा का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । वैदिक साहित्य राम कथा के पात्रों के अतिरिक्त वैदिक साहित्य में इक्ष्वाकु वंशीय अन्य राजाओं का भी उल्लेख हैं। ऋगवेद में इक्ष्वाकु को धनी और तेजस्वी राजा कहा गया है। अथर्व वेद में लिखा है “हे कुष्ठ (औषधि) तुम्हे प्राचीन इक्ष्वाकु राजा जानता था।” इक्ष्वाकु वंश के पच्चीसवें राजा मंधाता का ॠग्वेद में कई बार उल्लेख हुआ है। उसे अंगिरा ऋषि जैसा पवित्र कहा गया है। वैदिक साहित्य में भगेरथ राजा का उल्लेख है। समझा जाता है कि भगेरथ और भगीरथ एक ही थे। ऋगवेद में रघु का वर्णन भी है। रघु का अन्य अर्थ तीव्र गति भी है। इसी वेद में दशरथ का भी नाम है। “दशरथ के चालीस भूरे रंग वाले घोड़े एक हजार घोड़ों वाले दल का नेतृत्व कर रहें है।” ऋगवेद में राम का उल्लेख यजमान राजा के रूप में आया है। “मैनें दुशीम, पृथवान, वैन और बलवान राम इन यजमानों के लिए यह सूक्त गाया है।” वैदिक साहित्य में राजा जनक का नाम कई बार आया है शतपथ ब्राह्मण में जनक को इतना महान तत्वज्ञ और विद्वान कहा है कि वे ऋषि याज्ञवल्क्य को भी शिक्षा देते थे। ऋगवेद में सीता कृषि की अधिष्ठात्री देवी है। सीता का अर्थ “लांगल पद्धति भी है। अन्य कृषि सम्बन्धी देवों के साथ सीता के प्रति भी प्रार्थना की गई है। (हल चलाते हुए जो पंक्ति बनती है उसे लांगल पद्धति कहते है।) पंजाबी भाषा में यह “सियाड़” कहलाती है। वैदिक साहित्य धार्मिक था, इतिहास नही। इसलिए इस साहित्य में राम कथा का अभाव है, परन्तु राम कथा के पात्रों का यत्र तत्र उल्लेख है। वाल्मीकि रामायण विद्वानों का विचार है कि वाल्मीकि रामायण से पूर्व राम सम्बंधी स्फुट आख्यान प्रसिद्ध थे। इनमें अयोध्या काण्ड से लेकर युद्ध काण्ड तक की कथा विद्यमान थी । यह अख्यान केवल कौशल में ही नही, अपितु दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये थे। वाल्मीकि ऋषि ने इन अख्यानों को प्रबंध काव्य में संकलित कर के रामायण की रचना की। आज कल वाल्मीकि रामायण के तीन पाठ पश्चिमोत्तसरीय, गौड़ीय और दक्षिणात्य प्रचलित है। इन पाठों की तुलना करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि वाल काण्ड और उत्तर काण्ड बाद के लिखें है। ये विचार आधुनिक इतिहासकारों और विदेशी लेखकों के है। भारत के प्राचीन इतिहास के अनुसार वाल्मीकि ऋषि राजा दशरथ के समकालीन व उन के मित्र थे। वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में सीता के बच्चों का पालन पोषण व शिक्षा दीक्षा हुई थी। इसी ऋषि ने आदि रामायण की रचना की थी। सम्भवतः इस गद्दी पर प्रतिष्ठित अन्य वाल्मीकि ऋषि ने इस कथा में संशोधन किया हो । और सीता बनवास बाद में शामिल किया हो । वाल्मीकि रामायण में सात काण्ड हैं। बाल कांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा कांड, सुन्दर कांड, युद्ध कांड व उत्तर कांड। वाल्मीकि रामायण को आदि रामायण भी कहते हैं। To be continued —