अयोध्या के प्रमुख राजा अयोध्या के राजाओं की वंशावलियों के विषय में पुराणकार एक मत नही। ऐसा देखने में आया है कि यदि एक राजा के तीन – चार पुत्र हैं। सभी का उल्लेख “राजा” के रूप में किया गया है। अतः अयोध्या (कौशल साम्राज्य) के राजाओं की संख्या में कुछ परिवर्तन स्वाभाविक है। श्रीरामचन्द्र जी के पश्चात् लगभग छ: सौ वर्षों तक कौशल साम्राज्य समृद्ध और शक्तिशाली रहा। श्री राम व उनके भाइयों के वंशजों ने अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया। समस्त भारत मध्य व दक्षिण-पूर्व ऐशिया में उनका प्रभुत्व था । ‘कुश’ के नाम से कई नगर व क्षेत्र हैं। गोवा में कुशावती तथा महाभारत काल में द्वारका कुशस्थली कहलाती थी जिसे आजकल सुडान कहते है, वह क्षेत्र भी कुश से सम्बंधित था । अफगानिस्तान में हिन्दु कुश पर्वत का नाम कैसे पड़ा। इस पर शोध करना आवश्यक है। फारसी भाषा में कुश का अर्थ हत्या है। हिन्दुकुश का अर्थ हिन्दुओं का कुश भी हो सकता है। सम्भवतः इस पर्वत का नाम श्रीरामचन्द्र के पुत्र कुश के नाम से पड़ा हो । दो सौ ई० पूर्व भी इस पर्वत का नाम हिन्दुकुश था । ( विद्याधर महाजन – प्राचीन भारत का इतिहास ।) विश्व के समस्त हिन्दुओं के हृदयों में भगवान् राम और उनके जन्म स्थान अयोध्या के प्रति अगाध श्रद्धा है। पूर्वी द्वीप समूह में थाई लैण्ड (स्याम), के राजाओं ने अपनी राजधानी का नाम ‘अयुध्या रखा और उपाधि ‘राम’ धारण की । वे ‘राम एक’, राम दो, राम तीन, राम नौ आदि से विख्यात थे। पुराण साहित्य अनन्त कथाओं के भण्डार हैं। आधुनिक युग में पुराणों के असंभाव्य वर्णनों की बहुत आलोचना हुई है। भारतीय संस्कृति के प्राचीन ग्रन्थों में उल्लिखित अनेक आख्यानों को असंभव मानकर देसी तथा विदेशी विद्वान उनका उपहास उड़ाते रहे हैं। किन्तु आजकल के विज्ञान के आश्चर्यजनक अविष्कारों से कुछ आख्यान सच हुए हैं, तो उन तथा कथित विद्वानों का सिर लज्जा से झुक गया हैं। श्री मद् भगवद् गीता में संजय ने दिव्यदृष्टि से धृतराष्ट्र को महाभारत के युद्ध का आँखों देखा हाल सुनाया, यह तथ्य अविश्वसनीय माना जाता था । परन्तु आज कल घर बैठे ही देश-विदेश के समाचार दूरदर्शन के द्वारा देखे जा सकते हैं। अब तो खगोल और भूगोल की ऐसी असंख्य घटनाएं सिद्ध होती जा रही है, जो सभी को यह सोचने पर विवश कर रही हैं कि भारत का उस समय का विज्ञान इतना उच्च था, जितना कि अभी तक विश्व – विज्ञान नहीं पहुंचा है। जिसका विद्धान पुराणों के भीतर हमारा अमूल्य इतिहास संग्रहीत है। भारतीय तथा विदेशी विद्वानों ने गहन अध्ययन किया है। उनके मूल रूप की सीमा वैदिक युग तथा उत्तरी सीमा ईसा की चौथी शताब्दी मानते हैं। परन्तु भविष्यत पुराण के विषय में कहा जा सकता है कि वह अंग्रेजों के भारत-आगमन के समय तक लिखा गया । क्योंकि उसमें छः को सिक्स तथा साठ को सिक्सटी आदि लिखा है। पुराणों में समय-समय पर प्रक्षेप होते रहें हैं। हजारों वर्षों के बीच में विभिन्न कथा-वाचकों ने अपनी बुद्धि और सुविधा के अनुसार नए – 2 अंश सम्मिलित कर दिए, जिनमें उपयोगी अनुपयोगी, उत्तम, मध्यम, सभी तरह की बातें हैं। तथापि जब हम गंभीरता से मनन करते हैं, तो हमें बहुत से प्रेरणादायक उपदेश मिलते हैं। यदि निरर्थक आलोचना की प्रवृत्ति त्याग कर पौराणिक सामग्री का उचित उपयोग किया जाए तो उससे हमारा हित होगा। पूर्व पुराणों के विषय में कुछ और जानकारी 1. सभी पुराणकार किसी एक विषय पर सहमत नहीं, इनकी अलग-अलग विचारधारा हैं। 2. पुराणों में विभिन्न युगों में देवों और व्यक्तियों के नामों में परिवर्तन आ गया हैं। 3. राजाओं और ऋषियों का नदियों से विवाह करने के विषय में आधुनिक विद्वानों का कहना है कि स्त्रियों के नाम नदियों के नाम पर रखे जाते थे, आज भी स्त्रियों के नाम, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी आदि हैं। 4. पुराणों में ऋषियों और राजाओं की वंशावलियां दी गई हैं, जिनसे प्राचीन इतिहास लिखा जा सकता है। 5. लगभग सभी मुख्य पुराणों का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध है। अयोध्या का वैभव कौशल नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़ा जनपद है, जो सरयु नदी के किनारे बसा है। वह धन-धान्य से सम्पूर्ण सुखी और समृद्धशाली है। उसी जनपद में अयोध्यापुरी नाम की नगरी है, जो समस्त लोकों में विख्यात है। उसे स्वयं मनु ने बनवाया और बसाया था । वह पुरी बारह योजन लम्बी और तीन योजन चौड़ी थी। बाहर के जनपदों में जाने वाला राजमार्ग दोनों ओर से वृक्षावलियों से विभूषित था। राजमार्ग पर प्रतिदिन जल का छिड़काव होता था और फूल बिखेरे जाते थें। वह पुरी बड़े-2 फाटकों और किवाड़ों से सुशोभित थी। उसके भीतर विभिन्न बाजार थे। जिनमें यंत्र तथा अस्त्र शस्त्र संचित थे । अयोध्या में सभी प्रकार के शिल्पी निवास करते थे। वहां ऊँची- 2 अटालिकाएँ थी, जिनके ऊपर ध्वज फहराते थे। सैंकड़ों तोपों के भण्डार थे। गाय-बैल और ऊँट आदि उपयोगी पशुओं से वह भरी – पूरी थी। घोड़े, हाथी, कर देने वाले समस्त नरेशों के समुदाय अयोध्या को सदा घेरे रहते थे। वहां के महलों का निर्माण नाना प्रकार के रत्नों से हुआ था। उसकी शोभा अमरावती के समान थी। वहां का जल ईख के सामान मीठा था । सम्पूर्ण वेदों के पारंगत श्रेष्ठ ब्राह्मणों से अयोध्यापुरी सुशोभित होती थी। राजा दशरथ के समय अयोध्या पूरे वैभव पर थी । राजा अपनी प्रजा का विशेष ध्यान रखते थें। प्रजा भी उनका आदर करती थी। राजा दशरथ इक्ष्वाकुकुल के अतिरथी थे (जो दस हजार महारथियों के साथ अकेले ही युद्ध करने में समर्थ हो) । सभी अयोध् यावासी धर्मशील, संयमी, सदा प्रसन्न रहने वाले, सदाचारी और महात्माओं की तरह निर्मल थे। कोई भी राजऋषि से शून्य नहीं था (वा० रा०) रामावतार के समय अयोध्या जी की शोभा का वर्णन गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में : जद्यपि अवध सदैव सुहावनि, रामपुरी मंगलमय पावनी । तदपि प्रीत कै रीत सुहाई, मंगल रचना रची बनाई ।। सोभा दसरथ भवन की को कवि बरनै पार । जहां सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार ! जनकपुरी से श्री राम जी के बारात लौटते समय अयोध्या की भव्यता विविध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे संवारि 1 सुर ब्रह्मादि सिंराहिं सब रघुवर पुरी निहारि ॥ रामावतार तथा राम विवाह के समय की अयोध्या जी की शोभा का वर्णन, देवता भी करने में असमर्थ थे, आज वही अयोध्या छविहीन हो गई है, राम लल्ला जी अपने ही जन्म स्थान में शरणार्थी बने तम्बू में रहने को विवश हैं। अयोध्या जी की पुरानी भव्यता कब लौटेगी? पुराणों में प्राचीन राजाओं की वंशावलियाँ और उनके साथ मुख्य घटनाएँ वर्णित हैं। इनमें अयोध्या के सूर्यवंशीय तथा हस्तिनापुर के कुरुवंशीय राजाओं की सूचियाँ प्रमुख हैं। इनका इतिहास बहुत रोचक है। इक्ष्वाकु से लेकर महाभारत युद्ध तक अयोध्या के लगभग 95 राजा महाभारत युद्ध से महात्मा बुद्ध तक लगभग 53 राजा है अर्थात इश्वाकु से गौतम बुद्ध तक 148 राजा हुए। श्री रामचन्द्र जी, जिन्हें हम विष्णु का अवतार मानते हैं, इक्ष्वाकु की 65वीं पीढ़ी में हुए हैं। इस वंश के प्रमुख राजा मांधाता, मुचुकुंद, सत्य व्रत त्रिशंकु हरिश्चन्द्र, सगर, अंशुभत, दिलीप, भगीरथ, मित्रसह कल्माषपाद, दिलीप 2, रघु, अज, दशरथ, श्री रामचन्द्र कुश, अतिथि हिरण्य नाभ कौशल, बृहद्बल, प्रसेनजित तृतीय आदि हैं। कौशल जनपद आधुनिक अवध के बराबर था। महाभारत काल में यह कमजोर राज्य हो गया। उसकी राजधानी श्रावस्ती थी।
1. राजा ईक्ष्वाकु : मरीचि के पुत्र कश्यप, कश्यप के विवस्वान, विवस्वान के वैवस्वत मनु थे। मनु सर्वप्रथम प्रजापति थे। मनु के दस पुत्र थे। ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु थे। मनु ने इक्ष्वाकु को सब से पहले इस पृथ्वी का समृद्धशाली राज्य सौंपा था | इक्ष्वाकु अयोध्या का प्रथम राजा माना जाता है। इक्ष्वाकु दुर्जय था। मनु ने इक्ष्वाकु को कहा, “भूतल पर राजवंशों की सृष्टि करना । दुष्टों का दमन करके प्रजा की रक्षा करना। बिना अपराध किसी को दण्ड नहीं देना । परन्तु अपराधी पुरूषों पर जो दण्ड का प्रयोग किया जाता है, वह विधि पूर्वक दिया हुआ दण्ड राजा को स्वर्ग लोक में पहुंचाता है।” विवस्वान का अर्थ सूर्य होता है। इसलिए ईक्ष्वाकु वंश सूर्यवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इक्ष्वाकु के सौ पुत्र थे। सबसे छोटे पुत्र को छोड़ सभी देव कुमारों के समान तेजस्वी थे। छोटा पुत्र मूढ़ और विद्या विहीन था । इक्ष्वाकु को सदैव उसकी चिन्ता लगी रहती थी। यह सोचकर इसके शरीर पर अवश्य दण्डपात होगा। इक्ष्वाकु ने उसका नाम दण्ड रखा । और उसे विन्ध्य और शैवल पर्वत के बीच का राज्य दे दिया। दण्ड ने वहाँ मधुमन्त नामक एक सुन्दर नगर बसाया । और को अपना राज पुरोहित बनाया । एक दिन राजा दण्ड गुरू शुक्राचार्य के आश्रम में गया और उसकी अति सुन्दरी पुत्री को आश्रम में विचरती देखा। कामातुर राजा ने उसका परिचय पूछा। मुनि कन्या ने कहा, “मेरा नाम अरजा है। मेरे पिता तुम्हारे गुरू हैं। इस नाते मैं तुम्हारी गुरू-बहिन हूँ” राजा को अपनी ओर बढ़ते हुए देख अरजा ने अनुनय विनय की “राजन तुम्हारा कर्त्तव्य प्रजा की रक्षा करना है, यदि तुम ही रक्षक की जगह भक्षक हो जाओगे तो प्रजा का क्या होगा? बलपूर्वक मेरा स्पर्श करने की धृष्टता मत करना । यदि मेरे पिता कुपित हो गए तो तुम्हें भारी विपत्ति में डाल सकते हैं। यदि तुम मुझे भार्या बनाना चाहते हो तो मेरे पिता को आने दो। धर्मशास्त्रोक्त सन्मार्ग पर चलकर, पिता से मुझे मांग लेना । वे मुझे अवश्य तुम्हारे हाथ सौंप देंगे।” अरज़ा ने अपना सतीत्व बचाने का भरसक प्रयत्न किया पर राजा ने उसकी एक न सुनी, वह अबला चीरवती चिल्लाती रही, पर उस दुष्ट से स्वयं की रक्षा न कर सकी। कुछ समय पश्चात् ऋषि उशनस आश्रम में आए। बेटी को शारीरिक और मानसिक रूप से आहत देख क्रुद्ध ऋषि ने कारण पूछा। अरजा ने बिलखते हुए दण्ड द्वारा किए गए कुकर्म के विषय में बताया ऋषि ने आग बगूला होते राजा को शाप दिया,” दण्ड, एक सप्ताह के भीतर तुम्हारा ऐश्वर्य समाप्त हो जाएगा। राजा इन्द्र रज (धूल) की वर्षा करेगा। सभी ओर धूल ही धूल होगी। ऋषि उशनस् ने दण्डक वन के सभी निवासियों को इकठा करके कहा,” दुष्ट राजा के राज्य में रहना पाप है। अतः इस स्थान को यथा शीघ्र त्याग देना चाहिए।” कुछ दिनों में सारा इलाका उजड़ गया । अरजा को सरोवर के तट पर कई वर्ष तपस्या करने का दण्ड मिला। तपस्या की अवधि समाप्त होने के पश्चात् वह पवित्र मानी गई । अतः समाज ने उसे अपना लिया । प्रजा–रक्षक ईक्ष्वाकु के लिए पुत्र दण्ड के ऐसे कुकर्म असहनीय थे। उसकी मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि अयोध्या का राजा बना। इसके कई पुत्र थे, जिनमें ककुत्स्थ प्रमुख था । ककुत्स्थ का नाम सम्भवतः आर्डिनक था । उसका तब इसने इन्द्र को वृषभ बनाया और तभी इसे ककुत्स्थ उपाधि मिली थी । इसके इन्द्रवाह तथा पुरंजय नाम भी व्रत किए थे। ककुत्स्थ का वास्तविक इन्द्र के साथ युद्ध हुआ था। उसके ऊपर चढ़कर युद्ध जीता। वह महावली, का पराक्रमी राजा था।
ककुत्स्थ ककुत्स्थ का वास्तविक नाम सम्भवतः आर्डिनक था। इन्द्र के साथ युद्ध हुआ था। तब इसने इन्द्र को वृषभ बनाया और उसके ऊपर चढ़कर युद्ध जीता। तभी इसे ककुत्स्थ उपाधि मिली थी। वह महावली, पराक्रमी राजा था। इसके इन्द्रवाह तथा पुरंजय नाम भी हैं इसने पाप नाशिन एकादशी व्रत किए थे।
अननस् अनेनस् नाम के दो राजा हुए हैं। एक पुरू वंशीय व दूसरा इक्ष्वाकु वंशीय। यह अनेनस् ककुत्स्थ राजा का पुत्र था।
पृथु या पृथु रोमन
पृथु नामक दो राजा हुए हैं, एक वेण का पुत्र पृथु और दूसरा इक्ष्वाकु वंशी पृथु या पृथु रोमन। यह पृथु राजा अनेनस का पुत्र था। इसने सौ यज्ञ किये। रामायण में इसे अनरण्य राजा का पुत्र कहा है और इसके पुत्र का नाम त्रिशंकु दिया गया है। चन्द्र राजा चन्द्र के तीन अन्य नाम इन्दु, आन्ध्र और आर्ट है। भागवत पुराण में इसे विश्वरधि का पुत्र कहा है। युवनाश्व (प्रथम) यह राजा चन्द्र का पुत्र था। इसका पुत्र श्रावस्त था। श्रावस्त राजा श्रावस्त का कहीं-कहीं श्राव नाम दिया गया है। इस राजा ने श्रावस्ती नगर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया। इसके तीन पुत्र- बृहद्रव, वंशक तथा वत्सक थे। कुवलयाश्र्व राजा कुवलयाश्व वृहदश्व का पुत्र था। वन में जाते समय इसके पिता ने उत्तक को पीड़ा देने वाले धुंधू नामक दैत्य को मिटाने के लिए कहा “यह उत्सक को साथ लेकर के स्थान पर पहुंचा। धुंधू अपने अनुयायियों सहित उज्जालक नामक बालुकामय सागर के तल में सोया हुआ था। कुवलयाश्व ने अपने पुत्र दृढाश्व तथा अन्य सौ पुत्रों को बालू हटाने के लिए कहा (भागवत पुराण में पुत्रों की संख्या इक्कीस हजार है) बालू हटते ही धुंधू के मुंह से ज्वाला निकलने लगी दृढाव, कुवलयाश्व कपिलाश्व और मदाश्व के अतिरिक्त सभी मारे गए। कुवलयाश्व स्वयं लड़ने गया। विष्णु ने उत्तक ऋषि के दिए वरदान के अनुसार अपना तेज उसे प्रदान कर दिया। इस प्रकार धुंधू नष्ट हुआ और इस राजा का नाम धुंधू मार पड़ा। इसके देहान्त के पश्चात् इसका पुत्र दृढ़ाश्व सिहांसन पर बैठा। दृढाश्व, प्रमोद, हर्याश्व, निकुम्भ, संहिताश्व, कृशाश्व आदि राजाओं के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं। प्रसेनजित रेणु (प्रथम) यह राजा कृशाश्व का पुत्र था। इस की बेटी रेणुका परशुराम की मां थी। युवनाश्व (द्वितीय) युवनाश्व अयोध्या का चौबीसवां राजा था। विष्णु व वायु पुराण के अनुसार युवनाश्व द्वितीय प्रसेनजित का पुत्र था। इसकी सौ रानियाँ थीं। पटरानी का नाम गौरी था। पुत्र-प्राप्ति के लिए इसने मृगु ऋषि को अध्वर्यु बना कर यज्ञ किया। नर्मदा की सहायक नदी कावेरी है। नाम पर इस राजा ने अपनी बेटी का नाम कावेरी रखा। अपने पूर्ववर्ती राजा रेवत से युवनाश्व को एक दिव्य खड्ग प्राप्त हुई थी, जिसका उपयोग इसके वंशज रघु ने किया था। यह राजा बहुत दानी था। इसने अपनी साम्राज्य ब्राह्मणों को दे दिया था। समस्त सम्पत्ति रानियों को और ऋषि-आश्रमों में दान दे दी थी मांधाता इक्ष्वाकु वंश का पच्चीसव राजा मांधाता हुआ है। इस का समय लगभग तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है ऋग्वेद में इस का कई बार उल्लेख आया है। वहां मांधाता को ऋषि अगिरा की तरह पवित्र कहा गया है। मांधाता के पिता युवनाश्व (द्वितीय) थे। वह बहुत दानी राजा थे, उन्होंने अपनी अपार सम्पति ऋषि-आश्रमों में दान दे दी थी मांधाता की माता गौरी मतिनार की पुत्री थी। उसकी बहिन कावेरी कान्याकुब्ज को ब्याही गई थी। मांधाता ने ऋषी उतथ्य से राज धर्म का का उपदेश प्राप्त किया। यह उपदेश उतथ्य-गीता से संग्रहित है ऋषी वसूदण्ड से इसने दण्ड नीती सीखीं अन्य कई ऋषियों से इसने विभिन्न विद्यायें सीखी तथा दिव्यास्त्रों का प्रशिक्षण लिया राजा मांधाता का विवाह यादव राजा शशविन्दु की बेटी बिन्दुमति से हुआ। इसके तीन पुत्र पुरुकुत्स, अम्बरीश और मुचुकुंद थे। इसने यादव राजाओं के अतिरिक्त हैहय दह्यु, आनव आदि को जीत लिया था। हैहय राजा दुर्दम बहुत पराक्रमी था। उसने मध्य भारत में धाक जमा रखी थी। मांधाता ने उसे परास्त करने के पश्चात् मरूत, गय और वृहद्रथ राजाओं की विशाल सेनाओं को नष्ट कर के उन पर विजय पाई। दह्यु राजा रिपु निरन्तर चौदह मास युद्ध करने के पश्चात् उसके हाथों मारा गया। समस्त पृथ्वी को जीतने के पश्चात् गुरु वशिष्ठ के आदेशानुसार इसने सौ राजसूय तथा सौ अश्वमेघ यज्ञ किए। विष्णु पुराण में इस की वीरता का उल्लेख इस प्रकार है – “जहाँ तक सूर्य उदय होता है और जहाँ तक ठहरता है, वह सारा भू-भाग युवनाश्व पुत्र मांधाता का क्षेत्र है। पद्य पुराण में राजा मांधाता को दयालु और प्रजापालक कहा गया है। एक बार इसके राज्य में अकाल पड़ गया। सब और हाहाकर मच गया। वर्षा न होने का कारण एक वृषल द्वारा तपस्या करना कहा गया और इसे सुझाव दिया गया कि उस तपस्वी का वध कर दिया जाए तो वर्षा हो सकती है. परन्तु मांधाता ने कहा, “प्रत्येक व्यक्ति को तपस्या का अधिकार है। | अतः तपस्वी का वध अनुचित है।” उसने एकादशी व्रत रखने आरम्भ कर दिए। वर्षा होने पर अकाल समाप्त हो गया। समस्त प्रजा पुनः सम्पन्न हो गई। वह मांस भक्षण के बहुत विरुद्ध था। |ऋषि-मुनियों की गोष्ठियों में राजा मांधाता सदैव भाग लेता था. वायु पुराण के अनुसार वह क्षत्रिय था, परन्तु बिद्वता के कारण ब्राह्मण कहलाने लगा। विदेशी विद्वान लुडविग ने धार्मिकता के कारण इसे राजर्षि कहा है । सभी राजाओं को जीतने के पश्चात मांधाता ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया। इन्द्र स्वयं युद्ध में शामिल नहीं हुआ उसने इसका सामना करने के लिए लवणासुर को भेज दिया, लवणासुर के हाथों सम्राट मांधाता की मृत्यु हो गई।
पुरुकुत्स सम्राट मांधाता की मृत्यु के पश्चात् उस का ज्येष्ठ पुत्र पुरुकुत्स गद्दी पर बैठा। उस ने पिता के राज्य का और विस्तार किया। नर्मदा नदी के तट पर रहने वाली नागजाति की कन्या नर्मदा से उसने विवाह किया और नागजाति के शत्रु मौनेय गंधवों को उसने पराजित किया। इसके तीन पुत्र-वसुद, त्रसदस्यु, और अनरण्य थे। विरक्त होने पर वह कुरुक्षेत्र के वन में तपस्या करने चला गया। राजा मुचुकुंद पुरूकुत्स के विरक्त होने के पश्चात् सम्राट मांधाता के द्वितीय पुत्र मुचुकुंद ने नर्मदा के तट पर ऋक्ष और पारियात्र पर्वतों के बीच एक नगर बसाया और वहीं रहने लगा। एक बार राजा मुचुकुंद ने कुबेर पर आक्रमण कर दिया। कुबेर ने राक्षसों की सहायता से इस की सारी सेना नष्ट कर दी। इस ने अपनी हार का दोष गुरूओं पर लगाया गुरु वशिष्ठ ने घोर परिश्रम के पश्चात् राक्षसों की समाप्ति की। कुबेर ने ताना देते हुए मुचुकुंद से कहा, “अपने शौर्य से मुझे जीतों, ऋषियों की सहायता क्यों लेते हो? मुचुकुंद ने तर्क पूर्ण उत्तर दिया, तप और मंत्र का बल ब्राह्मणों के पास है। | शस्त्र विद्या क्षत्रियों के पास राजा का कर्तव्य है कि वह दोनों शक्तियों का उपयोग करके राष्ट्र का कल्याण करें। देवासुर संग्राम में राजा मुचुकुंद ने देवों का साथ दिया। दैत्य हार गए। इस की वीरता से प्रसन्न होकर देवों ने इसे वर मांगने को कहा। वह थकावट के कारण एक गुफा में सोया हुआ था। निद्रित अवस्था में ही इसे ने कहा, “मुझे नींद से जो जगाए, वह भस्म हो जाए।” कुछ समय पश्चात् कृष्ण काल यवन संस से बचा हुआ गुफा में आ गया। उसने अपना उत्तरीय मुचुकुंद पर डाल दिया, और स्वयं एक ओर छिप गया। काल यवन भी कृष्ण का पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा उसने पूरे बल से कृष्ण समझकर, मुचुकुंद को टांग मारी। मुचुकुंद क्रोध से आग बगूला हो गया, ज्योंही उसने काल यवन को देखा वह खत्म हो गया। । कृष्ण ने उसे क्षत्रिय धर्म निबाहने तथा अपनी नगरी में जाने को कहा। इस की अनुपस्थिति में हैहय राजा ने इस की नगरी पर अधिकार कर लिया था। वहां जाकर इसने देखा कि प्रजा भ्रष्ट हो गई। वह बहुत दुःखी हुआ तथा हिमालय में बदरिका आश्रम में तपस्या करने लगा। वहीं उसने अपना शरीर त्याग दिया। मुचुकुंद के साथ श्री कृष्ण की घटना काल्पनिक लगती है, क्योंकि श्री कृष्ण महाभारत काल में हुए हैं। उस समय ईक्ष्वाकु वंश का राजा वृहद्बल अयोध्या का राजा था। मुचुकुंद वृहदूबल से कई पीढ़ियाँ पहले हुआ है। त्रसदस्यु यह राजा पुरुकुत्स व रानी नर्मदा का पुत्र था त्रसदस्यु का पुत्र संभूत था। अनरण्य यह राजा संभूत का पुत्र था। इसके शासन काल में रावण ने अयोध्या पर आक्रमण कर दिया था। | इसने रावण के अमात्य मरीच, शुक सारण तथा प्रहस्त को पराजित कर दिया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार अनरण्य युद्ध त्याग कर तप करने लग गया। उस समय रावण ने उसे मार दिया। अनरण्य ने रावण को शाप दिया। “यदि मेरा तप, दान, यश आदि सच्चा है तो मेरा वंशज श्री राम तेरा कुलनाश करेगा उपरोक्त कथन काल्पनिक है क्योंकि दशस्थ सुत श्रीराम चन्द्र अनरण्य से लगभग 35 पीढ़ियों बाद हुए हैं। अनरण्य के पश्चात् अयोध्या के निम्न राजा हुए त्रसदश्व, हर्यश्व, वसुमत, विधन्वम्, रुण आदि आदि। सत्यव्रत त्रिशंकु Continued –