अयोध्या के प्रमुख राजा राजा त्रसदश्व, यह ईक्ष्वाकु वंश का 31वां राजा था । इसका पिता त्रैय्यारूण था। इसका मूल नाम सत्यव्रत था । परन्तु गुरु वसिष्ठ के शाप के कारण यह त्रिशंकु कहलाया । सत्यव्रत के पिता त्रैय्यारूण व पुत्र हरिश्चन्द्र, इन तीनों राजाओं का गुरू देवराज वसिष्ठ था । कान्यकुन्ज का राजा देवरथ, जो तपस्या करके ब्राह्मण बन गया था, त्रिशंकु का मित्र था। त्रिशंकु के कारण ही ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र अथवा देवरथ का झगड़ा हुआ । “देवी भागवत” के अनुसार त्रिशंकु शुरू से ही दुराचारी था। उसने विवाह वेदी पर बैठी ब्राह्मण कन्या का अपहरण किया और कहा, “सप्तपदी होने से पूर्व मैंने उस का अपहरण किया है अतः में दोषी नहीं हूँ।” इसकी बात न सुनकर गुरू वसिष्ठ ने इसके पिता को सलाह दी कि उसे राज्य से निकाल दिया जाएं कई ग्रन्थों में लिखा है कि वह स्वयं वनों में चला गया, ताकि तप करके वह अच्छा बन सके। त्रिशंकु के पिता वृद्ध थे। वे राज्य कार्य करने में असमर्थ थे। गुरू वसिष्ठ राज्य – कार्य चलाने लगे। लगभग 9 वर्ष देश में अकाल रहा। जिस वन में त्रिशंकु रहता था, वहीं विश्वामित्र का आश्रम था । विश्वामित्र तप हेतु बाहर गया हुआ था। उसकी पत्नी व तीन पुत्र आश्रम में रहते थे। अकाल के कारण उनकी भूखे मरने की नौबत आ गई थी । विश्वामित्र की पत्नी छोटे बच्चे को नगर में बेचने चली। त्रिशंकु को दया आ गई। वह प्रतिदिन कुछ कंद मूल खाद्य सामग्री पेड़ पर रख जाता क्योंकि वनवासी व्यक्ति का नगर या आश्रम में जाना वर्जित होता है। इस प्रकार विश्वामित्र के परिवार का भरण-पोषण होने लगा । गुरू वसिष्ठ सत्यव्रत त्रिशंकु से पहले ही दुःखी थे । त्रिशंकु ने उनकी गाय चुराकर एक और अपराध किया । गुरु देवराज वसिष्ठ ने उसे शाप दिया, ” तुम्हारे सिर पर तीन शंकु निर्माण होंगे। स्त्री हरण, पिता और गुरु का अपमान ।” उस दिन से लोग उसे त्रिशंकु कहने लगे । गुरु वसिष्ठ और त्रिशंकु का वैर और बढ़ गया । विश्वामित्र तप के पश्चात् लौटा। उसे ज्ञात हुआ कि अकाल के दिनों में सत्यव्रत ने उसके परिवार की सहायता की है। वह त्रिशंकु के प्रति कृतज्ञ हुआ और उसके पिता को किसी प्रकार मनाकर उसे ( सत्यव्रत त्रिशंकु ) राज्य – सिहांसन पर बैठाया तथा उससे यज्ञ कर इस यज्ञ में सभी राजाओं और ऋषियों को आमंत्रित किया गया । गुरु वसिष्ठ ने साफ उत्तर दिया,” जहाँ यज्ञ करने वाला चण्डाल हो। उपाध्याय विद्वान न हो, वहाँ जाने का क्या लाभ | ” सुनकर विश्वामित्र अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । यह सन्देश सत्यव्रत त्रिशंकु की धार्मिकता के विषय में विश्वामित्र ने कहा है,” उसने सौ यज्ञ किए। क्षत्रिय धर्म की शपथ लेकर उसने कहा थामैंने कभी असत्य भाषण नहीं किया । प्रजा का पालन किया है। गुरु को शील से सन्तुष्ट करने का प्रयास किया है, परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे यश नहीं मिलता। कहीं-कहीं गुरु वसिष्ठ भी कहते हैं,” वह उच्छृंखल है, बाद में सुधर जाएगा । राजा सत्यव्रत की पत्नी का नाम सत्यरथा था। उससे हरिश्चन्द्र पुत्र हुआं उसका पालन-पोषण शिक्षा-दीक्षा आदि गुरु वसिष्ठ ने ही सम्पन्न की।