प्रत्येक राष्ट्र की एक संस्कृति होती है. इसे ही राष्ट्र का प्राण तत्व या आत्मा कहते हैं। संस्कृति ही ऐसी आन्तरिक शक्ति होती है जो राष्ट्र को युगों तक अपनी विशेष स्वतन्त्र सत्ता बनाए रखने में सहायता करती है। भारत हजार वर्ष तक परतन्त्र व अशक्त रहा, परन्तु उसके वासियों अर्थात् हिंदुओं ने अपनी संस्कृति को किसी न किसी प्रकार जीवित रखा। विश्व में अनेक संस्कृतियां पनपी और नष्ट हो गई. परन्तु यह स्थायी रही। युग के अनुकूल इसका विकास तो हुआ, पर विनाश नहीं। यह सनातन और गतिशील है, जड़ नहीं। ऋषि-मुनियों ने समय-2 पर समाज की आवश्यकता अनुसार इसमें सुधार किए हैं. मनु स्मृति, वसिष्ठ स्मृति, पराशर स्मृति नारद स्मृति आदि इसके उदाहरण हैं। संस्कृति का क्षेत्र अति व्यापक है। उसे परिभाषा में बांधना असम्भव है। सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि समस्त मानव समाज के विकास की व्यष्टिमय व समष्टिमय उपलब्धियाँ ही संस्कृति है। अर्थात् उत्तम चेष्टाएं या उत्तम अभिव्यक्ति ही संस्कृति है। भारतीय संस्कृति के मूलभूत आदर्श या आधार तत्व अनेक हैं यथा-अव्यक्त शक्ति के प्रति विश्वास, अध्यात्म भावना, व धर्म, त्याग की भावना, जननी जन्मभूमि का महत्व, प्रकृति-पूजा, समन्वय की भावना, गाय माता की रक्षा, सहिष्णुता, कर्मवाद. शिक्षा पद्धति, आदर्श परिवार। ब्रह्माण्ड को देखकर मानव ने सोचा कि सृष्टि का निर्माता कोई अवश्य है। उस अव्यक्त शक्ति की सता में विश्वास, समय, स्थान, परिस्थिति और स्वभाव के अनुरूप उसके नाम बदलते रहे। सम्पूर्ण जड़ चेतन एक विशेष नियम में उत्पन्न होते. विकसित होते. और क्षय होते हैं। इस अटल प्राकृतिक नियम को ऋषियों द्वारा “ऋत” नाम दिया गया व उस अव्यक्त शक्ति को ‘ब्रह्म’ कहा गया। पश्चिमी जगत की तरह हिन्दुओं ने अपने आप को केवल इस जगत तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि पार लौकिक जीवन को भी समझा। हिन्दू अधर्मी होकर अपना परलोक नहीं बिगाड़ना चाहता। भारतीय संस्कृति का आधार अध्यात्म है जिसका प्रतिपादन संस्कृत भाषा में हुआ। प्रकृति और ब्रह्म के साथ जीव के सम्बंध का विश्लेषण तथा इन तीनों तत्वों के भूत और भविष्य पर चिन्तन अध्यात्म ग्रन्थों का विषय है। ब्रह्म परमात्मा है, और हम सभी जीवात्माएँ उसी का ही अंश है अर्थात् सभी प्राणियों में आत्म तत्व विद्यमान है। भारतीय संस्कृति के अनुसार, “आत्म वत सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः” यह कथन है। प्रत्येक व्यक्ति में ‘ब्रह्म’ का अंश ही उन्हें एक-दूसरे के प्रति खींचता है। दुःखी दीनों की सहायता के लिए प्रेरित करता है। धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है धारण करना। अथर्व वेद में, पृथ्वी सूक्त में पृथ्वी को ‘धर्मण धृता’ अथवा ‘धर्म से धारण की हुई कहा गया है। इसी युग में र्मिक विश्वासों और मान्यताओं के लिए भी धर्म शब्द का प्रयोग होने लगा है। जीवन के जो नीति सम्बंधी नैतिक नियम हैं, वे धर्म शब्द के अन्तर्गत आते हैं। मनु ने इसी दृष्टिकोण को सामने रखकर अथवा धर्म को सामाजिक रचना का आधार मानकर इसके दस लक्षण बताएं हैं-धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध। इन सभी गुणों को प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में ढाल ले, तो एक आदर्श समाज की स्थापना हो सकती है। धर्म सदैव भारतीय जीवन का आधार रहा है। धर्म लोक कल्याण और लोक मर्यादा की नियामक शक्ति है। प्राचीन काल में भारतीय जीवन में धर्म का विशेष महत्व रहा है। मानव जीवन का लक्ष्य चतुर्वर्ग-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति निर्धारित किया गया है। उसकी अर्थ तथा काम परक लिप्साओं को धर्म और मोक्ष नियन्त्रित करते है. यदि धर्म के अनुसार अर्थ कमा कर कामनाओं की पूर्ति की जाए तो परिणाम स्वतः मोक्ष-प्राप्ति है। यदि कामनाओं की पूर्ति के लिए मनुष्य अधर्म से कमाई करेगा तो उसे मोक्ष रूपी चरम लक्ष्य प्राप्त नहीं होगा और वह अनन्त काल तक जन्म और जरा की विपत्ति के चक्र से मुक्ति नहीं पा सकेगा। इसलिए हमारी संस्कृति में जहां धन कमाना आवश्यक माना गया है, वहां एक बात पर बल दिया गया है कि धन का अर्जन न्याय-संगत ढंग से हो। यदि समाज के प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में यह सच्चाई बैठा दी जाए तो न केवल व्यक्ति का उद्धार होगा. अपितु समाज में लूट-खसूट, हिंसा, दुःख दरिद्रता सब समस्याएँ मिट जाएंगी। आदर्श समाज का अगर धर्म है। धर्म और अध्यात्म से संयत समाज ही सुखी समाज है। अधर्मी, आत्मघातक कभी सुखी नहीं रह सकता। मार्कण्डेय ऋषि के अनुसार भौतिक सुखों के लिए धन इक्ट्ठा करने में बुराई नहीं जब राष्ट्र पर आपत्ति आए तो संचित धन राष्ट्र कल्याण के लिए दान कर देना चाहिए। हमारी संस्कृति में धर्म और समाज का अटूट सम्बंध है। हमारी सम्पूर्ण सामाजिक मर्यादाएं धर्म द्वारा शासित होती है। हमारा धर्म मानव प्रेम, अहिंसा, शिष्टाचार, त्याग, विश्वबन्धुत्व सिखलाता है। शरीरिक बल से आत्मिक बल श्रेष्ठतर माना जाता है। प्राचीन काल में राजनैतिक सत्ता राजाओं के हाथों में थी, परन्तु जनता का नैतिक नेतृत्व साधु-सन्तों और गुरुओं के हाथों में था। परिणाम स्वरूप राज सत्ता नैतिक मूल्यों की अवहेलना नहीं कर सकती थी। भारतीय संस्कृति में जननी व जन्मभूमि का सदैव महत्व रहा है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी हिन्दुओं के लिए भारतवर्ष न केवल एक सत्ता में शासित होने वाली इकाई है। बल्कि वह उनकी अध्यात्म संस्कृति का मूर्तरूप अथवा मातृदेवी है। धरती माता इस पर स्थित वन, पर्वत, नदियाँ सभी हमारे लिए पूजनीय हैं। हमारे मनीषियों ने कहा है- इसकी प्रत्येक वस्तु ब्रह्ममय है। इसलिए सभी मिलजुल कर उसका उपभोग करो, परन्तु उसका शोषण न करो। उसके शोषण से मानव विकास न कर पाएगा। हमारी परम्पराओं, प्रथाओं में पीपल, केला, तुलसी आदि की पूजा करना शामिल है। आयूर्वेद में ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका मानव हित में उपयोग न हो। हमारी संस्कृति पशु, पक्षियों, कीड़ों आदि के प्रति भी दया भावना सिखाती है। कीड़ों और पक्षियों के लिए दाना डालना, पशुओं को आटे का पेड़ा खिलाना इस का उदाहरण है। प्रकृति की गोद में हमारे पूर्वजों ने सादा जीवन व्यतीत किया इससे उन्हें आनन्द मिला व उनका शरीर और मस्तक पूरी तरह सृजन कार्य में लगे रहें तथा वे विभिन्न विषयों पर शोधकार्य करते रहे। भारद्वाज और भृगु संवाद से ज्ञात होता है उन्होंने सिद्ध किया था, कि वनस्पति में चेतनता है। जलवायु से वृक्ष फलते-फूलते हैं, फल लगते है। नए पते निकलते है। मेघ-गर्जन, बिजली, व गर्मी के कारण फल-फूल मुख्झा जाते हैं, सूख जाते है, व रोगी हो जाते है, उपचार से पुनः स्वस्थ हो जाते है। पर्व-त्यौहारों की सृजना भी हिन्दू संस्कृति की विशेषता है वैसाखी, शरद पूर्णिमा, दशहरा, दीपावली, मकर संक्रान्ति आदि त्यौहार, कुछ मौसम के अनुसार, कुछ फसल काटने के समय के तथा कुछ महान् विभूतियों के नामों के साथ जुड़े होने के कारण उनका अपना अपना महत्व है। भारतीय संस्कृति की अन्य विशेषता अनेकता में एकता लाना है। यह विशाल है, संकुचित नहीं। भारतीय मनीषियों में संकुचित सम्प्रदायवाद का अभाव रहा है। उन्होंने समस्त विश्व के साथ एकता का अनुभव किया और ‘विश्व बंधुत्व” का प्रचार किया। हिन्दू संस्कृति दूसरों के लिए जीना सिखाती है। “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित दुःख भाग भवेत।।” हमारी संस्कृति और धर्म में ईश्वर के अस्तित्व को मानने वाला भी ऋषि है और ईश्वर के अस्तित्व को न मानने वाला भी ऋषि है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता है। हिन्दु संस्कृति में ऐसा कुछ नहीं कि इस संस्कृति के अनुसार विचार न मिलते हों तो उसे फांसी पर लटका दिया जाए। हमारे समाज ने कपिल को भी ऋषि माना है। जिन्हें ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह था। वे प्रमाण के अभाव में ईश्वर की सत्ता को मानने को तैयार नहीं थे जबकि सभ्य कहलाने वाले लोगों ने सुकरात, प्लैटो, अरस्तु तथा गैलीलियों को सख्त सजाएँ दी थी। हमारी संस्कृति की प्रमुख विशेषता सहिष्णुता की भावना मानी जाती है। परन्तु इस भावना के हमें कटु अनुभव हुए हैं। वस्तुतः हमने अपने ग्रन्थों का पूर्णतया अवलोकन नहीं किया। हमारे ग्रन्थों में यह भी लिखा है कि अत्यधिक सहनशीलता कायरता को जन्म देती है। अत: दुष्टों को दण्ड देना भी आवश्यक होता है। परशुराम कार्तवीर्य के कुकृत्यों से तंग आकर उसे दण्ड देना चाहते थे, परन्तु उनके पिता जमदग्नि ऋषि उनसे सहमत नहीं थे। तब परशुराम जी ने पिता को कहा था. दुष्टों को दण्ड देना ही चाहिए, अन्यथा भंयकर परिणाम निकलते हैं। ” और उनका कथन सत्य हुआ। परशुराम की अनुपस्थिति में कार्तवीर्य ने जमदग्नि ऋषि के आश्रम को नष्ट कर दिया, और ऋषि व उसके शिष्यों का संहार कर दिया था। यह सत्य है. अत्यधिक सहनशीलता के कारण हिन्दू समाज को हानि उठानी पड़ रही है कुछ लोग हमारे धर्म, हमारी संस्कृति को मिटाने पर तुले है. हमारी पूजा पद्धति, हमारे देवी-देवताओं का उपहास उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। चलचित्र, नाटकों आदि में हिन्दू धर्मावलम्बी को पाखण्डी, धूर्त आदि दिखाया जाता है, परन्तु अन्य मतावलम्बी को देव तुल्य माना जाता है। हिन्दू मूक बना देखता रहता है। धर्म निरपेक्ष कहलाने वाले लोगों को ध्यान देना चाहिए कि हिन्दू ही ऐसा सहन करते हैं। जरा अन्य मतावलम्बियों की आलोचना करके देखें रुशदी और तसलीमा नासरीन जैसा हाल ही होगा। हिन्दू संस्कृति में गाय को माता तुल्य माना है वह हमारी पूजनीय है। उसका और उसकी संतति की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। गाय का दूध और घी ही मानव उपयोगी नहीं, बल्कि गोमूत्र में रोगनाशक शक्ति है। सांप काटने पर गोमूत्र पिलाने से रोगी स्वस्थ हो जाता है। गोबर आदि भी मानव जाति के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। उनसे अनेक औषधियाँ बन रहीं हैं। जो भंयकरतम रोगों में अमृत के समान हैं। आधुनिक विशेषज्ञ इस पर अनुसंधान कर रहे हैं। मैथिली शरण गुप्त ने गाय माता की पीड़ा को इस प्रकार व्यक्त किया है । हमने तुम्हें मां की तरह दूध पीने को दिया। देकर कसाई को हमें, तुमने हमारा वध किया।स्वतन्त्रता से पूर्व इतनी गाय नहीं कटती थी जितनी अब गाय वध का समाचार सुनते ही लोगों का खून खौलने लग जाता था। गाय की रक्षा के लिए हिन्दू-सिक्ख नवयुवक जीवन बलिदान करने को तत्पर रहते थे। नामधारी सिक्खों द्वारा चलाए गए आन्दोलन का ही यह प्रभाव था। हिन्दू विचारधारा को कर्मवाद ने भी प्रभावित किया है। सुख-दुख जीवन की विभिन्न योनियाँ कर्मवाद के सिद्धान्त को मानती हैं। कर्म तीन प्रकार के हैं-क्रियामाण संचित और प्रारब्ध। वर्तमान अवस्था में किए जाने वाले कर्म जीव के अदृष्ट कोष में संचित होते रहते हैं। उनमें तीव्र कर्मों का तात्कालिक उदय देखा जाता है और मन्द कर्म कालान्तर में फलोन्मुख होते हैं उन्हें प्रारब्ध कर्म कहते हैं, या भाग्य कहते हैं। कर्म और प्रारब्ध के सिद्धान्त से पुनर्जन्म और आवागमन का सिद्धान्त माना जाता है। भारतीय संस्कृति में इसका विशेष महत्व है। भारतीय मनीषियों द्वारा परिवार में सुसंस्कार देने की ठोस, गहरी एवं व्यापक व्यवस्था विश्वभर में अनुपम और अद्वितीय है। परिवार से समुदाय बनाना, उसमें मेल-जोल बढ़ाना उन्नत संस्कारों से युक्त उत्तम व्यक्ति का निर्माण करना आस-पास के लोगों से परस्पर सहयोग, इन सबमें परिवार में पले व्यक्ति में आपसी हिन्दू परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण है। स्नेह, विश्वास आदि सद्गुणों का वर्धन होता है। इनसे परिवार के समग्र हित के विषय में सोचने की मानसिकता विकसित होती है। सहृदयता और आत्मीयता की भावनाओं से सम्बंधित परिवार (कुल) बच्चों के लिए चेतना, दिशा, विश्वास, धैर्य प्रदान करने वाला गुरुकुल है। युवकों के लिए परिवार, परिश्रम करने की तपोभूमि है और वृद्धों के प्रति आदर, गौरव, स्नेह भरे व्यवहार का आश्रय है। ऋषियों ने आदर्श समाज के लिए जो व्यवस्था, सिद्धान्त और संस्कार आवश्यक समझे थे. उन्होंने परिवार के द्वारा देने की व्यवस्था की। संस्कारों का प्रमुख स्थान परिवार रहा है। परिवारों के द्वारा ही समाज बनते है। आदर्श परिवार मिलकर आदर्श समाज बनाते हैं। हिन्दू समाज में प्रत्येक के कर्त्तव्य पालन में दूसरे के अधिकार निहित होते हैं। बड़े बूढ़ों की सेवा करना, अपना कर्तव्य निभाते हुए छोटे अपनी सुख-सुविधा भी मूल जाते हैं। श्रवण कुमार का उदाहरण हमारे समक्ष है, जिसने अंधे माता-पिता को बहगी में बैठा कर तीर्थ यात्रा कराई थी। मार्कण्डेय पुराण में ऋषि मार्कण्डेय ने गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ कहा है। इस आश्रम में मनुष्य लौकिक और पारलौकिक सभी सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है क्योंकि वह सभी प्राणियों का पालन करता है। ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि सभी पेट भरने के लिए गृहस्थी पर निर्भर है। मार्कण्डेय ऋषि के अनुसार परिवार सामाजिक सुव्यवस्था का साधन है। पारिवारिक जीवन को सुखी रखने के लिए पति-पत्नी दोनों को अपने-2 कर्त्तव्य निभाने चाहिए। पति का धर्म पत्नी की रक्षा करना है। उसके दुःख-सुख का ध्यान रखें। उसका त्याग करना धर्म नहीं है। पत्नी का कर्त्तव्य है पति की सेवा करे. इस तरह वह पुण्यों की भागी हो सकती है। गृहस्थ आश्रम को त्यागकर सन्यास लेने वाले लोगों को ऋषि मार्कण्डेय ने कोसा है, वे कहते हैं जब तक मन स्थिति में त्याग की भावना नहीं आती। सन्यासी बनने का कोई लाभ नहीं।उन के अनुसार विवाहित स्त्री को मायके में अधिक देर नहीं रहना चाहिए बेटी अधिक देर माता-पिता के पास रहती है तो पिता हाथ जोड़कर कहता है, बेटी, मैं तुम्हारा सत्कार करता है, परन्तु तुम्हे अपने पति के घर रहना चाहिए। पिता के घर अधिक देर रहने से समाज में सम्मान नहीं मिलता।” स्पष्ट है समाज ने आदर्श गृहस्थी के लिए जो नियम बनाए थे उनका अनुकरण सभी लोग करते थे। हमारी संस्कृति में नारी जाति का सदैव सम्मान हुआ है। जिस घर में नारी की पूजा होती है। वह स्वर्ग के समान है। वहां देवता निवास करते हैं। नारी-उत्पीड़न, दहेज प्रथा तालाक आदि भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत नहीं। पाश्चात्य सभ्यता व मौतिकवाद अपनाने से ही, ये त्रुटियाँ हमारे समाज में आई हैं। आज हमारे समाज में आसुरी वृत्तियाँ बढ़ रही है। इनसे कैसे मुक्ति पाई जाए, यह हमें सोचना होगा। हमारे मनीषियों ने हिन्दू समाज को सुसंस्कृत बनाया और साथ ही उसे संगठित करने और संस्कृति को जीवित रखने के भरसक प्रयास किए। धार्मिक स्थलों की स्थापना, नासिक व प्रयाग, हरिद्वार में कुम्भ मेला’, पर्वतीय स्थलों में चार धाम-बदरीनाथ, केदार नाथ, गंगोत्री, यमनोत्री; गंगोत्री से जल लेकर रामेश्वर पर चढ़ाना, शंकराचार्य द्वारा चारों मठों की स्थापना भारत व भारतवासियों को जोड़ने के लिए ये नियम बनाए। देश में खाद्य-अन्न की कमी न हो व्रत-उपवासों में ऐसे सिद्धान्त रखे कि, गेहूँ, मक्की चावल आदि मुख्य खाद्यन्न के अतिरिक्त अन्य कुछ भी फलाहार आदि किया जा सकता है। स्वच्छता-शुचिता भारतीय सांस्कृति में स्वच्छता और शुचिता का विशेष महत्व है। स्वच्छता दो प्रकार की है- प्रथम, बाह्य जिसके अन्तर्गत शरीर व वेशभूषा को स्वच्छ रखना है। द्वितीय में मनुष्य अपनी मनोवृत्तियाँ और आत्मा का परिष्कार करें। प्रथम का सम्बंध सभ्यता से है, दूसरी का संस्कृति से, प्रत्येक हिन्दू जानता है प्रातः काल उठते ही दांत साफ कर के शौचादि स्नान करने के पश्चात् भोजन करना होता है। परन्तु आजकल कार्यकारी महिलाएँ बिना मुंह धुलाए, दांत साफ करवाए, बच्चों के मुंह में भोजन घूंसती है, यह हमारी संस्कृति नहीं, हमारे मनीषियों ने शरीर व आत्मा दोनों की स्वच्छता पर बल दिया था। शारीरिक सफाई के साथ भोजन पकाने खाने में भी स्वच्छता का ध्यान रखते हुए नियम बनाए गए थे, जैसे दूसरों का जूठन नहीं खाना, अलग-2 बर्तनों में खाना परोसना आदि इन नियमों का लाभ यह हुआ कि हमारे देश में किसी भी रोग ने महामारी का रूप धारण नहीं किया। विदेशियों द्वारा ही ये महामारियाँ आयात हुई। जो नियम समाज के भले के लिए बनाए जाते हैं वे ही कालान्तर में कुछ स्वार्थी लोगों द्वारा बिगाड़ दिए जाते हैं। यही नियम बाद में छुआछूत का भंयकर रूप धारण कर गए। समय-2 पर ऋषियों ने उनमें सुधार भी किया, परन्तु वे ग्रन्थ संस्कृत में होने के कारण जन-साधारण तक नहीं पहुंचे। मार्कण्डेय पुराण में लिखा है कि निम्न वर्ग के लोगों द्वारा पकाया भोजन वर्जित नहीं होना चाहिए। “अन्न किसका ग्राहय है” जो सम्मानपूर्वक आन्तरिक स्वच्छता के विषय में नारद पुराण में लिखा है लाखों घड़ों के जल से बाहरी शुद्धि कर लेने पर भी यदि अन्तःकरण दूषित है तो वह व्यक्ति चण्डाल के समान है। जिस ढोल में मदिरा भरी हो, उसे पवित्र नदियाँ भी शुद्ध नहीं कर सकती, ठीक उसी तरह जिसका मन निर्मल और पवित्र नहीं होता, वे तीर्थाटन करके भी कमी पवित्र नहीं हो सकता। जिनका अन्त:करण शुद्ध होता है, वे उपर से साधारण धर्म का समाचरण करते हैं, तो भी उन्हें अक्षय सुख प्राप्त होता है। भारतीय संस्कृति का स्रोत सर्वप्रथम शिक्षा क्रम से आरम्भ होता है। मन् का कथन है. ”शिक्षित एवं सुसंस्कृत बनने की इच्छा वाले बालक-बालिकाएं मन, वचन और कर्म द्वारा पवित्र रहने की शिक्षा लें। गुरुकुल पद्धति में राजा और एक के बच्चे एक आश्रम में ही शिक्षा ग्रहण करते थे। श्री कृष्ण और सुदामा ने संदीपन ऋषि के आश्रम में इक्ट्ठे ही शिक्षा प्राप्त की थी। गुरु-शिष्य प्रणाली थी। गुरु-शिष्य को अपनी सन्तान की तरह मानते थे। गुरु स्वयं को कभी भी सर्वगुण-सम्पन्न नहीं मानते थे। दीक्षान्त समारोह में गुरु शिष्य को कहते हैं, हमारे गुणों की ओर ध्यान देना, दोषों की ओर नहीं, उन्हें भूल जाना। संस्कृत भाषा में लिखे धार्मिक ग्रन्थ हमारी अमूल्य निधि है। संस्कृत भाषा और लिपि की श्रेष्ठता की विदेशियों ने भी प्रशंसा की है। विश्व के कई देश ऐसे है जिन्होंने अपने विश्वविद्यालयों में संस्कृत विषय रखा हैतथा कई छात्र पी.एच.डी के लिए शोध कर रहे है। देखिए 6 जनवरी, 2005 क टाइम्स ऑफ इंडिया आधुनिक शिक्षा प्रणाली- भारतीय संस्कृति के अनुरूप नहीं। मैकाले द्वारा लागू की गई शिक्षा प्राणली को ही हमारे शिक्षा पण्डितो ने अपना लिया। उन की धारणा थी कि राष्ट्रीय भाषा हिन्दी और क्षेत्रीय भाषा में विश्व विद्यालय के स्तर की शिक्षा प्राप्त करना असम्भव होगा। केन्द्रीय नौकरी के लिए प्रतियोगिता परीक्षाओं का माध्यम भी अग्रेजी भाषा ही रखा गया। इसका परिणाम यह हुआ कि एक तो शिक्षा का स्तर गिरा आम विद्यार्थी के लिए अंग्रेजी भाषा सीखने में अधिक समय लगने लगा। दूसरा अंग्रेजी भाषा ने हमारे साहित्य और संस्कृति को इतना प्रभावित किया कि हम अपनी संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने लगे। अंग्रेजी भाषा के प्रति अंध श्रद्वा मानसिक दासता का प्रतीक है। दुख से कहना पड़ता है। कि स्वतन्त्रता के 75 वर्ष पश्चात् भी राष्ट्र भाषा को उपयुक्त स्थान नहीं मिला। पंजाब और दक्षिण भारत के कुछ प्रान्तों मे संस्कृत और हिन्दी विषय पढ़ाये नहीं जाते। छात्र- छात्राओं और कई अध्यापिकओं को भी यह ज्ञान नहीं कि उनकी राष्ट्र भाषा हिन्दी है। कुछ वर्ष पूर्व श्री रामेश्वरम् जाते समय मुझे बहुत दुख हुआ। जब आठवीं कक्षा के बच्चों को मैने पहुंचा उनकी राष्ट्र भाषा कौन सी है। किसी बच्चे ने अंग्रेजी बताया और किसी ने तमिल और उनकी अध्यपिका बेचारी भी चुप थी। ऐसा क्यों हुआ? स्वतन्त्रता के पश्चात् राष्ट्र की बागडोर जिनके हाथों में थी उन्हे भारतीय संस्कृति और भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रति मोह नहीं था। पं० जवहार लाल नहरु की शिक्षा-दीक्षा यूरोप में हुई और उस समय के शिक्षा मंत्री ने मदरसे में शिक्षा प्राप्त की थी वयस्क होने पर चाहे उन्हें लगा कि मदरसे की शिक्षा आधुनिक युग में अधूरी है। अतः उन्होने अपना ज्ञान बढ़ाने का प्रयास किया । भूतपूर्व शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद का जीवन परिचय पाठकों की जानकारी के लिए देना आवश्यक है। उनके पिता मौलाना खैरुदीन 1857 ई० में मक्का चले गये थे। वहा मदीना के शेख मुहम्मद जहीर की बेटी से विवाह कर लिया। सन 1880 ई० में मौलाना अबुल कलाम का जन्म हुआ उनकी पूरी शिक्षा इस्लामिक परम्परा के अनुसार हुई क्योकि मौ० खैरुदीन आधुनिक शिक्षा के कट्टर बिरोधी थे। उनकी दुर्घटना होने तथा उपचार के लिए उन्हें भारत लोटना पड़ा और वे सपरिवार कल्कता में बस गए। निसन्देह मौ० अ० कलाम आजाद भारत के बहुसंख्यक हिन्दुओं के धर्म और संस्कृति के प्रति हमेशा उदासीन रहे।