गुरू अर्जुन देव
“गुरु अर्जुन देव सिखों के 5वें गुरु थे। गुरु अर्जुन देव जी शहीदों के सरताज एवं शान्तिपुंज हैं। आध्यात्मिक जगत में गुरु जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें ब्रह्मज्ञानी भी कहा जाता है। गुरुग्रन्थ साहिब में तीस रागों में गुरु जी की वाणी संकलित है”
गुरु अर्जुन देव का जन्म 18 वैसाख, 1610 वि० को गोंयदवाल के स्थान पर हुआ था। वे भादो सुदी एक, स० 1638 वि० को गुरु गद्दी पर विराजमान हुए। उनका भाई पृथ्वी चन्द गुरु गद्दी पर अपना अधिकार बना बैठा था। उसने गुरु अर्जुन देव जी का डट कर विरोध किया और सत्ता हथियाने के लिए नए-नए षडयन्त्र रचने लगा। पृथ्वी ने अपने साथ दुष्ट प्रकृति के 20-25 युवक लगा लिए, जो भेंट आती, वह स्वयं ले लेता। उसने मसन्दों को भी आदेश दिया कि भेंट उसे ही दी जाए। पृथ्वी के दुर्व्यवहार पर गुरु अर्जुन देव बहुत दुखी हुए, परन्तु वे शान्त रहे। उन्होंने जैसे-तैसे लंगर की रस्म चालू रखी। घर का सामान, आभूषण आदि बेचकर लंगर में चने या बाजरे की रोटी का प्रबंध करते रहे। बाबा परागा व भाई गुरुदास को सिक्ख पथ के प्रचार के लिए प्रायः बाहर रहना पड़ता था। वे घर लौटे तो बीबी भानी ने चने की रोटी रखी और पृथ्वी की करतूत बताई भाई गुरुदास कहने लगे :
जपी तपी भुक्खै रहन । करदे चोर वहार।।
बाबा परागा व भाई गुरूदास नगर के बाहर चादर बिछाकर बैठ गए। बाहर से आने वाली संगत को उन्होंने पृथ्वी की कुचाल से अवगत कराया। दोनो महानुभावों को गाढ़ी पटडी पर लाने के लिए काफी कष्ट सहने पड़े गुरु अर्जुन देव के समय सिक्ख पंथ विकास की ओर बढ़ रहा था। संस्था की सुव्यवस्था के लिए पंचायत का निर्माण किया गया, जिन्हें पंच प्यारे’ नाम दिया गया। भाई गुरूदास के अनुसार –
पच परवाण पंच परधान गुरुमति पंच सखे गुरभाई।। गुरु अर्जुन देव जी के पंच प्यारे ।
भाई विधिचन्द (मोहन), भाई पेरा (छिब्बर), भाई जेठा, भाई पिराना और भाई लंघाद थे) गुरु अर्जुन देव भक्त, कवि और सर्व गुण सम्पन्न थे। उनके समय गुरुमुखी लिपि का आविष्कार किया गया। भाई गुरुदास ने समस्त भारत में घूम-घूम कर संतो की वाणियां इकट्ठी की और गुरु अर्जुन देव जी द्वारा गुरु ग्रन्थ साहिब की सरंचना आरम्भ हुई। इसमें पांचो गुरूओं की वाणियां और भारत के अन्य संत-महात्माओं की वाणियां संकलित की गई।
सावन सं० 1662 वि० में गुरु ग्रंथ साहिब तैयार हो गया और इसे “”हरि मन्दिर” में सुशोभित किया गया। प्रथम ग्रन्थी बाबा पराग दास को बनाया गया।
गुरु अर्जुन देव जी की पहली पत्नी निःसंतान स्वर्ग सिधार गई। माई गुरूदास, वाया परागा और माता भानी के कहने पर उन्होंने दूसरा विवाह 1647 वि० में गंगा देवी जी से कर लिया। गुरु जी की प्रथम पत्नी की अत्यु के बाद पृथ्वी चन्द को बहुत खुशी थी। वह सोचता था कि अर्जुन देव को मृत्यु के बाद वह या उसकी संतान गुरु गद्दी सभालेगी, परंतु गुरु अर्जुन देव के दूसरे विवाह ने पृथ्वी की आशाओं पर पानी फेर दिया। वह और उसकी पत्नी प्रतिदिन क्लेश करने लगे। गंगा देवी बहुत दुखी हो गई. उसने माता नानी को कहा, इससे अच्छा हो हम कहीं और रहना शुरू कर दें। गुरुजी को भी यह बात अच्छी लगी। उन्होंने अमृतसर से कुछ दूर गांय ‘वडाली में रहना शुरू कर दिया, वहीं पर आयाढ वदी एक सं० 1652 दि० को गुरु हरि गोविन्द जी का जन्म हुआ। भाई गुरुदास और बाबा परागा के अथक प्रयत्नों से गुरु जी के घर में फिर से सम्पन्नता आ गई। लंगर का कार्य भी पुनः शुरू हो गया। गुरू परिवार के लिए वस्त्र-आभूषण भी सेठ-साहूकारों ने ला दिए। गुरु अंगद देव जी ने रामदासपुर (अमृतसर) में सरोवर का काम आरम्भ कर दिया। कई दिव्य पुरुषो को खुदाई का कार्य करते देख गुरूजी के मुख से निकला :
सन्ता दे कारज आप खलौते। हर काम करान आए राम।। धरती सुहानी, ताल सुहावना। विच अमृत जल छाइया राम।। पूरण पुरुख अचुत अविनाशी। जस वेद पुरान गाइआ।। अपना विरद रखिआ परमेसर। नानक नाम घियाइआ।।
सन्तोष सरोवर का निर्माण पांच वर्षों में पूरा हुआ। उसके लिए धन पेशावर निवासी निस्संतान संतोष अरोड़ा ने दिया था। तीर्थ नामक एक राजपूत वीर पैगम्बरों को मानता था। उसने अपने घर में भी पीर का स्थान बनाया हुआ था। वह गुरूजी से प्रभावित होकर उनका शिष्य बनना चाहता था, गुरू जी ने कहा “पहले अपने घर बनाए पीरखाने को तोड़ो। फिर सिक्ख बनो” तीर्थ ने ऐसा ही किया और अन्य हिन्दुओं को भी उपदेश दिया कि ये पीर-फकीरों की पूजा बंद करें। असूज, 1662 वि० में माता भानी ने प्राण त्यागे। कार्तिक 1662 वि० में महादेव का गोंयदवाल में तथा मन्धर, 1662 दि० में पृथ्वी चन्द का रामदास पुर में देहान्त हो गया।
गुरु अर्जुन देव जी के समय दिल्ली के सिंहासन पर जहांगीर था। उसका अपने भाई के साथ झगड़ा चल रहा था। खुसरो जहागीर से हारकर गुरुजी के आश्रम में तरनतारन आ गया। भारतीय संस्कृति के अनुसार यदि शत्रु भी शरण में आ जाए तो उसका भी सम्मान किया जाता है। खुसरो गुरु जी के आश्रम में कुछ दिन ठहरा। स्थानीय मुस्लिम अधिकारी गुरूजी से पहले ही द्वेष रखते थे। जहांगीर भी रूष्ट हो गया। वह “तजुके जहांगीरी में लिखता है :
“गोंयदवाल व्यास नदी के किनारे पर बसा है। वहां पीरो, फकीरो के भेष में अर्जुन नामक एक हिन्दु रहता था, उसने मूर्ख हिन्दुओं को अपना अनुयायी बना लिया है। इस प्रकार उसने अपने बड़प्पन व ईश्वर से निकटता का ढोल बजाया हुआ था। लोग उसे गुरू कहते थे। सभी ओर से फरेबी और फरेब के पुजारी उसके पास आकर उस पर पूरा विश्वास प्रकट करते थे। तीन चार पीढ़ियों से उनकी यह दुकान गर्म थी। कितने समय से मेरे मन मे यह विचार आ रहा था कि इस झूठ के व्यापार को बंद करना चाहिए। उसे मुसलमान बना लेना चाहिए। उन्हीं दिनो जाहिल और हकीर आदमी खुसरो ने नदी पार कर उस फकीर के पास पड़ाव डाला। फकीर ने केसर से एक उंगली उसके मस्तक पर लगा दी, जिसे हिन्दु तिलक कहते है, और अच्छा सगुण मानते है। यह बात मेरे कान में पड़ी। मैं पहले ही उसके झूठ को अच्छी तरह समझता था। मैंने आज्ञा दी कि उसे मेरे सामने हाजिर किया जाए। उसके घर-बार और बच्चों को मुर्तजा खाँ के हवाले किया जाए। उसकी सम्पति जब्त की जाए और यातना देकर उसे समाप्त किया जाए।
श्री हरि गोविन्द जी का विवाह हो चुका था। उन्हें गुरु गद्दी पर बैठा कर भाई गुरुदास, बाबा परागा आदि को उन्हें साँप कर गुरु जी अपने साथ भाई जेठा, भाई पेरा, विधिचन्द, पिराना आदि को अपने साथ लेकर लाहौर चल पड़े. जहांगीर ने गुरुजी को कहा तुमने लाख रूपये मेरे भाई को दिए है। अतः दो लाख रूपये हमे दो” गुरु जी ने उत्तर दिया हमारे पास दो लाख रुपये कहा है ? हमने केवल पांच हजार रुपये खुसरो को दिए है जहांगीर ने कहा अपने ग्रंथ में इस्लाम की महिमा भी लिखो गुरु जी को यह स्वीकार नहीं था। उन्हें कैद कर लिया गया। गुरू जी को गर्म तवे पर बैठा कर ऊपर गर्म-गर्म रेत डाली गयी। गुरु जी ने रावी नदी जल समाधि ले ली।
गुरु अर्जुन देव जी लगभग 53 वर्ष की आयु में 22 जेठ, सं० 1663 वि० को लाहौर में ज्योति-ज्योत समाए। भाई गुरुदास का कथन है – गुरु अर्जुन काया पलट कर मूर्ति हरि गोबिंद सवारी।