ancient indian history

Mohyal Chibber Lineage

मोहयाल छिब्बर वंशावली

दीवान दुर्गामल छिब्बर

बाबा पराग दास छिब्बर के पुत्र द्वारका दास छिब्बर के बेटे दुर्गामल, गुरू हरिराय से लेकर नवम गुरु तेगबहादुर जी तक, तीनों गुरुओं के दीवान रहे। गुरु घर के विरोधियों धीरमल्ल और मेहरबान आदि के षडयंत्रों से वे गुरुओं की रक्षा करते रहे। अष्टम गुरू श्री हरिकृष्ण के अकाल निधन के पश्चात वे दुखी गुरू परिवार को धीरज बंधाने कीर्तिपुर पहुंचे। प्रसिद्ध इतिहासकार डा० हरिराम गुप्ता लिखते हैं, “दीवान दुर्गामल उनके भतीजे भाई मतिदास, भाई सतिदास, भाई गुरदित्ता व भाई दयाला पंचायत के सदस्य थे। दीवान दुर्गामल सदैव गुरु जी के साथ रहते, उन्होंने विरोधी पक्ष के मनसूबे सफल नहीं होने दिए। गुरु तेगबहादुर की आसाम यात्रा में भी दीवान जी, गुरू जी के साथ रहे। बृद्ध होने के कारण उन्होंने गुरु जी से प्रार्थना की कि उन्हें पद मुक्त कर दिया जाए।

भाई धर्म चन्द और भाई साहिब चन्द :
ये दोनों दीवान दुर्गामल के पुत्र थे। भाई मतिदास व भाई सतिदास के शहीद होने के पश्चात् दोनों को गुरु गोबिंद सिंह जी ने मंत्री पद प्रदान किए। धर्मचन्द को तोपखाना व साहिबचंद को दीवान बनाया गया। महान कोष भाग-1 के अनुसार साहब चन्द पराक्रमी योद्धा थे। ये आनन्दपुर युद्ध में शहीद हुए। गुरु जी की आज्ञा के अनुसार उनका अन्तिम संस्कर निर्मोहगढ़ में किया गया।
जीत भई तहि खालसा की। अरू साहब चंद की लोथ उठाई।
भाई धर्मचन्द भी युद्ध में शहीद हुए। उनके बाद उनके पुत्र गुरु बख्श सिंह को दीवान बनाया गया। हिंदू धर्म की रक्षा के लिए गुरबख्श सिंह ने भी कई युद्ध लड़े और अन्त में शहीद हुए। भाई गुरबख्श सिंह का पुत्र केसर सिंह जो पिता के बलिदान के समय बच्चा था, माता सुंदरी के संरक्षण में
पला ।
भाई केसर सिंह छिब्बर :
दशम गुरू गोविंद सिंह जी के निधन के पश्चात नाता सुन्दरी मथुरा तथा नई दिल्ली में रही। राजा जय सिंह ने उन्हें दो गांव की जागीर दी। केसर सिंह का पालन-पोषण व शिक्षा नाता सुन्दरी के संरक्षण में हुई। माता जी के देहान्त अथवा सन् 1747 तक केसर सिंह उन्हीं के पास रहा। माता जी ने भाई केसर सिंह से गुरुओं का इतिहास “वंशावली नामा वसां पातशाहीयां वा” लिखवाया। उनकी अन्य रचनाएं ‘मैना वन्ती’, ‘गोपीचन्द’ ‘बारह माह’ और ‘कल्पर धानी’ है।

सन्तदास छिब्बर :
सन्तदास को भी भाई धर्मचन्द का पोता कहा गया है। वे स्वयं को कश्मीरी कहते हैं। ऐसा अनुमान है कि माता सुन्दरी के देहान्त के पश्चात वे कश्मीर चले गए हो :- कासमीर सुभ देस कहायो। कस्सप रिखीसर के मन भायो।। भाई संतदास की प्रसिद्ध रचना ‘जन्म साखी नानक शाह जी की है। इस साखी में उन्होंने गुरु नानक देव को अवतार रूप में चित्रित किया है। रामेश्वर यात्रा के समय ये बाबा नानक जी से कहलवाते हैं
“सुन वाले इह ईसर थान प्रीत सहित इत थापयो राम”
मक्का यात्रा के दौरान भी कवि गुरू जी के मुख से कहलवाते हैं कि “यह स्थान हिंदुओ का है।
भाई संतदास छिब्बर हिंदु धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं, और उसकी रक्षा लिए वे सर्वस्य त्यागने को तैयार हैं।
पं० कृपा राम दत्त :

पं० कृपा राम दत्त पं० ब्रह्म दास के पोते नारायण दास के पुत्र अरु राम दत्त के सुपुत्र थे। बाबा परागा व भाई पेरा की बहिन सरस्वती उनकी माता थी। उनकी पत्नी का नाम सुमित्रा था। उनके दो बेटे धर्मचन्द व ईश्वरदास थे। (बही पं० गोविंद दास, हरिद्वार)
पं० ब्रह्म दास गुरु नानक देव की कश्मीर यात्रा के दौरान उनके सम्पर्क में आए थे। कश्मीर में उन्होंने नानक पथ का प्रचार प्रसार आरम्भ कर दिया था। उनके देहान्त के पश्चात उनके वंशज सिक्ख पंथ का प्रचार करते रहे। सन् 1820 अथवा सं० 1677 में छठे गुरु हरि गोबिंद जी कश्मीर यात्रा पर गए। उनके आगमन पर श्री नगर व आस-पस के गांवो की आई संगत ने उन पर अपार श्रद्धा व्यक्त की कृपा राम दत्त विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। देवी सरस्वती की उन पर अपार कृपा थी। वे वेद, वेदांग, ज्योतिष, इतिहास, पुराण के प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ-साथ पराक्रमी योद्धा भी थे। गुरु हरिगोबिंद जी ने उनकी शिक्षा की जिम्मेवारी उन पर सौंपी। तब से लेकर वे गुरु गोबिंद सिंह तक वे गुरू परिवार के सदस्य के रूप में उनके साथ रहे और कश्मीर में उनका परिवार नानक पंथ के प्रचार कार्य में लगा रहा। कृपा राम एक शस्त्रोपजीवी पण्डित थे। ऐसे तेजस्वी विद्वान की उत्तम शिक्षा ने कुशाग्र बुद्धि गोविंद दास के शुभ संकल्प को सुदृढ़ और सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। श्री गोबिंद दास का शिक्षा कार्य यात्राओं के समय भी चलता रहता थ। श्री कृपा राम द्वारा दी गई उत्तम शिक्षा ही आगे चलकर गुरु गोबिंद सिंह द्वारा खालसा पंथ के गठन की प्रमुख प्रेरणा थी। श्री गोबिंद दास पं० कृपा राम से संस्कृत और हिंदी सीखते थे। गुरु तेग बहादुर सपरिवार लखनौर (अम्बाला) पहुंचे। प० कृपा राम दत्त गुरू जी से विदा लेकर, लगभग 16 वर्ष पश्चात अपने परिवार से मिलने कश्मीर पहुंचे। कश्मीर की दुर्दशा देखकर उनका हृदय रो उठा। औरंगज़ेब के अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुंच गए थे। कश्मीर के नवाय ने हिंदू धार्मिक स्थल तोड़ दिए थे।
गुरु तेग बहादुर, भाई मतिदास, भाई सतिदास और भाई दयाला की निमर्म हत्याओं को समाचार सुनते ही हिन्दु जनता कराह उठी। स्वाभिमानी युवक अत्याचारी शासकों की जड़े उखाड़ने के लिए सिर पर कफन बाध कर लड़ने-मरने को तैयार हो गए। पं० कृपा राम दत्त श्री गुरू गोविंद दास के शिक्षक रहे थे। वे बचपन से ही उन्हें हिंदुओ का भावी नेता मानते थे। अतः वे लगभग पांच सौ शस्त्रधारी युवकों को साथ लेकर आनन्दपुर पहुंच गए।

औरंगजेब से लड़ने के लिए पंडित किरपा राम दत्त द्वारा उठाई गई 500 योद्धाओं की सेना मोहयालों के गांवों से थी।

सेना की बागडौर संभालने वालों में पं० कृपाराम के अतिरिक्त राम, गुरमुख, सन्मुख और दया राम थे। जो खालसा सजने के पश्चात क्रमशः कृपा सिंह, राम सिंह, गुरमुख सिंह, सन्मुख सिंह और दया सिंह प्रसिद्ध हुए। कुइर सिंह गुरु विलास पातशाही दस में लिखते हैं. कश्मीरी सिंह बने अनूपा ! जात विप्र की जानो रूपा। क्रिया सिंह इक कहीवत होई। राम सिंह अति ही मति जोई।। गुरमुख सिंह त्रिती अनुरागा। सन्मुख सिंह चौथे बकनागा।। श्री गुरू कृपा आप जब धारी दया सिंह पंचम सुख कारी।। पंच विप्र सिंह बने अनुपा। सांगो पांग सुसत सरूपा ।।
| पश्चिमी पंजाब और कश्मीर के मोहयाल ब्राह्मण बहुत संख्या में नानक पंथ के अनुयायी हुए। वे गुरू गोबिंद सिंह के समय खालसा सजे उनके दो वर्ग बन गए थे- सहजधारी सिक्ख और केशधारी सिक्ख । इसका कारण यह था कि यहां मोहयाल ब्राह्मणों विशेष कर उपरोक्त छिब्बर और दत्त परिवारों ने पंथ का प्रचार किया था। हिंदू धर्म की रक्षा हेतु, गुरुओं द्वारा चलाए धर्म युद्धों में बढ़ चढ़कर भाग लिया और शहीद हुए। खेद है कि हम इन शहीदों को भूल चुके हैं।
आज सिक्ख इतिहास लिखने वाले भाई मनमाना इतिहास लिखने में संलग्न हैं और कुछ ब्राह्मण केवल उनकी ओर मूक बने ही देख नहीं रहे, बल्कि हिंदु देवी-देवताओं की खिल्ली उड़ाने में भी झिझकते नहीं। जिस हिंदु धर्म की रक्षा हेतु गुरू साहिबान ने अपना सर्वस्य बलिदान किया आज उनके शिष्य स्वयं को हिंदुओं से अलग मान रहे हैं।
हम सब को यह मालूम होना चाहिए कि अगर सिख धर्म एक सुंदर इमारत है तो इस इमारत की नींव के पत्थर मोहयाल ब्राहमण है !

भाई मणि सिंह :
भाई जी ज्ञानी ज्ञान सिंह के पिता के दादा थे। (त०गु०खा०) सं० 1791 को भाई मणि सिंह शहीद हुए। दुष्टों द्वारा उनका अंग-अंग काटा गया। उनके भतीजे थराज सिंह ने दिल्ली दरवाजे, लाहौर के बाहर उनका दाह संस्कार किया। वहीं उनकी समाधि थी।
भाई मणि सिंह का जन्म 10 मार्च, 1644 ई० में अलीपुर, जिला मुजफ्फरगढ़ में हुआ। उनके पिता नाईदास व माता मुवी बाई थी। भाई जी का दादा बल्लू, गुरू हरि गोबिंद जी के धर्म युद्धों में, सन् 1634 ई० अमृतसर के स्थान पर शहीद हुआ था। उनका विवाह 15 वर्ष की आयु में सत्तो देवी के साथ हुआ। सत्तोबाई के पिता लक्खी शाह ने गुरु तेग बहादुर के धड़ का दाह संस्कार किया था। शादी के बाद भाई मणि सिंह बड़े भाई दयाले और जेठे के साथ कीरतपुर आ गये। 1691 ई० में दशम गुरू ने उन्हें अपना दीवान नियुक्त किया।
1689 ई० में खालसा निर्माण के समय उनके पांच बेटो को भी खालसा पंथ में शामिल किया गया। एक वर्ष दमदमा साहिब में गुजारने के बाद गु० गोबिंद सिंह ने दक्खन जाने का निर्णय लिया। भाई मणि सिंह सिक्खों के साथ गुरू जी के साथ रहे। 17 अक्टूबर, 1708 ई० में गुरू जी नंदेड में शहीद हुए। भाई जी व अन्य माता साहिब देवां को साथ लेकर दिल्ली पहुंचे। भाई मणि सिंह का मुख्य कार्य श्री दशम ग्रन्थ साहिब का संकलन है।

भाई सुक्खा सिंह :

भाई कान्ह सिंह के अनुसार सुक्खा सिंह का जन्म सन् 1768 में हुआ था। बचपन में ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘गुरू विलास’ है। यह वीर काव्य है। इसमें गुरु गोविन्द सिंह जी का जीवन वृतान्त दिया गया है। इस ग्रन्थ की रचना आनन्दपुर साहब केशगढ़ में की गई थी। इस ग्रन्थ में पौराणिक अवतारों की तरह ही दशम गुरू जी कथा है। जब धरती मलेच्छों के कारण दुखी हो गई, गो हत्याये होने लगी। पृथ्वी वान से प्रार्थना की. प्रभु ने धरती माता के कष्ट निवारण के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी को भेजा। उदाहरण:
नीत अनीत निहार मलेच्छन। दुखत भई धरनी सभ सारी लोप भएं सब धर्मन के गुन जग्ग सु पुनं जु दान अपारी। ईद चली बकरीद निवाज सु गोवध होत सभे घर बारी।। दुखद नई घरनी जब ही। जग नायक पे इह भाति पुकारी।। आकुल व्याकुल है निज मातर। रोवत भी बहुत पाप निहारी।। होउन आतुर चीर धरो निज भारत संत अनन्तावतारी।। जो निज रिदे विचार के, दीन बन्धु करतार। दसम श्री गुरु पठयो मात लोक निराधार

‘गुरू विलास’ में गुरु जी द्वारा विभिन्न तीथों के दर्शन करने के विषय में भी लिखा है। गुरू गोबिन्द जी ने गोकुल, वृन्दावन, मथुरा की यात्रा में उन सभी स्थानों को देखा, जहां उन्होंने अनेक लीलाएं की थी। यथा पूतना वध, काली वध, कंस वध आदि ।
बाबा राम सिंह :
नामधारी मत के प्रथम गुरु राम सिंह थे। बाबा राम सिंह का जन्म सन् 1816 ई० में हुआ। महाराजा रणजीत सिंह की नौकरी छोड़कर वे धर्म प्रचार, गो-रक्षा और भूखे नंगों की सेवा में लग गए। जनता को विदेशी सरकार के विरुद्ध जाग्रत करने का उन्होंने बीड़ा उठाया तथा निम्न कार्य लोगो के सामने रखे :
1. देश के पुराने नियम अपनाओं। अंग्रेज़ शासको के नियम अपने ऊपर लागू न होने दो।
2. फौजदारी, जमीन के झगड़ो की अदालतो में न ले जाकर पंचायतो या गोत्र पंचायतो में निपटाओं।
3. बच्चों के लिए अपने स्कूल खोलो। अंग्रेज़ो द्वारा चलाए स्कूलों में बच्चों को न पढ़ाओ।
4. विदेशी वस्तुओं कपड़े आदि का उपयोग न करो।
5. अंग्रेज़ो की नौकरी मत करो।
6. सरकार द्वारा चलाए रेल, डाकखानों आदि का बहिष्कार करो। अपने साधनों का प्रयोग करो। चिट्ठी पत्र के लिए अपने हरकारे रखो।
गुरू राम सिंह के प्रचार ने पंजाब में खलबली मचा दी। अंग्रेजी सरकार ने गुरु जी द्वारा चलाए धार्मिक सम्मेलनों पर पाबंदी लगा दी। 1863 ई० से 1867 ई० तक नामधारियों पर प्रतिबंध लगा रहा। गोवध को रोकने के लिए नामधारियों का बलिदान अद्वितीय है। नामधारी सिक्खों को तोपो से उड़ाया गया। फांसी पर चढ़ाया गया। गुरु राम सिंह को रंगून (वर्मा) जेल में भेज दिया। वहां सन् 1885 ई० में उनकी मृत्यु हो गई।
गुरु राम सिंह उच्च कोटि के समाज सुधारक थे। इसलिए उन्होंने सामूहिक विवाह प्रथा चलाई। हवन के साथ गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ करके वर-वधु को विवाह बंधन में बांधा जाता है। उस समय केवल प्रशाद यांटा जाता है। नामधारी सफेद पहरावा पहनते व हाथ में ऊन की माला रखते हैं। नामधारियों के मुख्य केन्द्र पंजाब में लुधियाना से तीस मील दूर “भैणी साहिव” और हरियाणा में हिसार है।

 

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