अकाल पुरुष दृश्य और अदृश्य जगत को सत्ता प्रदान करने वाली शक्ति का नाम अकाल पुरुष है। वह शक्ति चिरन्तन, सर्व व्यापक, सर्व स्रष्टा है। उस पर काल का प्रभाव नहीं पड़ता। गुरु अर्जुन देव कहते है करण कारण प्रभु एक है। दूसर नहिं कोई । सो अन्तरि सो बाहर अनन्त घटि घटि व्याप रहा भगवन्त ।। मानव योनि सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्य मात्र शरीर नहीं। इसमें ज्योति है, जिसे निरंकार का आश्रय प्राप्त है। जीवात्मा ब्रह्म रूप हो सकती है तथा उसी तत्व में निर्मित होने के कारण यह अकाल पुरूष (ब्रह्म) से मिल सकती है। परन्तु निराकार पूर्ण है और जीव अपूर्ण। निरंकार सर्व शक्तिमान है, जीवात्मा में वह सामर्थ्य नहीं। जीवात्मा में निरंकार ने जो ज्योति का बीज डाला है उसे प्रफुल्लित करके जीव निरंकार से मिल सकता है। यह ज्योति प्रत्येक अन्तः करण में रहती है। चेतनता राम (ब्रह्म) का अंश है, वह तनु मिथिया जानउ। या भीतरि जो अंश कभी नाश नहीं होत साधो इह राम वसत है साचो ताहि पछानो”।। (वाणी गु०ते०बहादुर जी) अहम् का नाश होने से जीव जिस निरंकार से उत्पन्न हुआ है, उसी में मिल जाता है। नाम स्मरण के बिना यह देह निष्कल है, जीव जब तक पूर्णता को प्राप्त नहीं करता, वह जन्म मरण के चक्र में रहता है। वह जैसे कर्म करता है, वैसे ही संस्कार उसके भीतर बनते हैं और वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है। तीर्थ स्नान आदि कर्म भीतर की मलीनता को नहीं धो सकते। न ही जप, तप आदि कर्म अहंकार को समाप्त करते हैं। मनुष्य सांसरिक कार्य निभाता हुआ गुरू की शिक्षा पर दृढ़ रहें। वह गृहस्थ में रहकर, संयम का पालन कर, गुरू की आज्ञा के अनुसार, कर्म करता हुआ परम पद की प्राप्ति कर सकता है। हमारे प्राचीन ग्रंथ, वेद, उपनिषदों और पुराणों में भी गृहस्थ धर्म को सर्वश्रेष्ठ माना है। अन्य तीनों आश्रम इसी के आश्रित है नार्कण्डेय पुराण में ऋषि मार्कण्डेय कहते हैं, गृहस्थ आश्रम में रहकर मनुष्य लौकिक और पारलौकिक सभी सिद्धिया प्राप्त कर लेता है। जिसने गृहस्थ आश्रम को अपनाया, उसने मानो समस्त विश्व का भार अपने कंधों पर उठा लिया। ऋषि-मुनि, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि सभी जीव उदर पूर्ति हेतु गृहस्थी पर निर्भर है। ऋषि मार्कण्डेय ने कर्म को विशेष महत्व दिया है। कर्म का तात्पर्य केवल जप-तप पूजा पाठ से ही नहीं है, बल्कि दुखी प्राणियों के दुख दूर करना है। मानव का जो कार्य करूणा, दया से प्रेरित होता है, जिसमें छल कपट नहीं उस कार्य से मानव की आत्मा शुद्ध होती है। यदि मनुष्य मन, इन्द्रियों के संयम से, निस्वार्थ भाव से कर्म करे तो उसे अवश्य सफलता मिलेगी। प्रतिकूल परिस्थितियों में भाग्य और भगवान को नहीं कोसना चाहिए बल्कि दत्त चित होकर काम में लगना चाहिए, बाधाएं धीरे-धीरे दूर हो जाएंगी। सन्यासियों के विषय में ऋषि मार्कण्डेय का कथन है “जब तक मनः स्थिति में त्याग की भावना नहीं आती, सन्यासी बनने का कोई लाभ नहीं। हमारे ऋषि-मुनि, तपस्वी सभी गृहस्थी थे। “मार्कण्डेय ऋषि ने यह भी कहा है कि निम्न वर्ग द्वारा भोजन वर्जित नहीं होना चाहिए। अन्न किस का ग्राहय है, जो सम्मानपूर्वक दे।” आत्मोत्थान के लिए चिन्तन, मनन | उच्चकोटि की साधना है। ऋतुध्वज ने नागराज से वर मांगा, “मेरे हृदय से धर्म की भावना कम न हो। सच्चा धर्म कर्त्तव्य पालन है। आन्तरिक स्वच्छता के विषय में नारद पुराण में लिखा है :- “लाखों घड़ों जल से वाहय शुद्धि कर लेने पर भी यदि अन्तःकरण दूषित है तो, वह व्यक्ति चण्डाल के समान है जिस ढोल में मदिरा भरी हो, उसे नदियां भी शुद्ध नहीं कर सकती। जिसका मन निर्मल नहीं होता, वह तीर्थाटन करके भी पवित्र नहीं हो सका। जिनका अन्तःकरण शुद्ध होता है व साधारण धर्म का पालन करते है तो भी उन्हें अक्षय सुख मिलता है। पराशर स्मृति में ब्राह्मणों को शूद्रों के हाथ का भोजन वर्जित नही। विधवा स्त्रियों को पुर्नविवाह की अनुमति है। आपात काल व प्रवास में धार्मिक नियमों में बंधने की आवश्यकता नहीं। यदि सिक्ख पंथ के अनुयायियों ने प्राचीन साहित्य पढ़ा होता तो वे यह न कहते, “हम हिन्दु नहीं, हम मुसलमानों के अधिक निकट है।” अभी भी यदि सिक्ख विद्वान अपने प्राचीन ग्रंथ तथा इस्लाम के धार्मिक ग्रंथ पढ़े तो वे इस भ्रम को मिटा सकते हैं।