Atri Clan

Written by Alok Mohan on March 23, 2023. Posted in Uncategorized

अत्रि कुल

अत्रि ब्रम्हा जी के मानस पुत्रों में से एक थे। चन्द्रमा, दत्तात्रेय और दुर्वासा ये तीन पुत्र थे। इन्हें अग्नि, इन्द्र और सनातन संस्कृति के अन्य वैदिक देवताओं के लिए बड़ी संख्या में भजन लिखने का श्रेय दिया जाता है। अत्रि सनातन परंम्परा में सप्तर्षि में से एक है, और सबसे अधिक ऋग्वेद: में इनका उल्लेख है”

ऋग्वेद में अत्रि को पंचजन्य कहा है। दक्ष की कन्या अनसूया इसकी पत्नी थीं ‘ब्रह्माण्ड’ के अनुसार अनुसूया से इसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए दत्त, दुर्वासा तथा सोम वायु पुराण के अनुसार इसके दो पुत्र और एक पुत्री थी। अत्रि एक सूत्रकार थे । इन्हे ग्रहण का प्रथम ज्ञान हुआ। यह लोकशासित राज्य के पक्ष में थे। इन्हो ने जनता के पक्ष में राजा से विद्रोह किया। इसलिए इन्हे कारावास में रहना पड़ा। यह अग्नि कुण्ड में झुलस गये थे तो इन्हे अश्विनी कुमारों ने स्वस्थ किया। पांचवे मण्डल में अत्रिगोत्र के कई सूक्तकारों का उल्लेख है। अत्रि स्वांयभुव तथा वैवस्वत मन्वन्तर के सप्तर्षियों में एक थे। उन्नीसवें द्वापर में ये व्यास थे।
अत्रि का धर्मशास्त्र आनन्दाश्रम के स्मृति समुच्चय में अत्रि संहिता तथा अत्रि स्मृति नामक दो ग्रन्थ है। अत्रि संहिता में 9 अध्याय तथा चार सौ श्लोक हैं, तथा अनेक प्रायश्चित हैं। वहां योग, जप, कर्मविपाक, द्रव्य-शुद्धि तथा प्रायश्चित का विचार किया गया है। अत्रि स्मृति में 9 अध्याय हैं, इसमें प्राणायाम, जप, प्रशंसा तथा प्रायश्चित बताए है। मतस्य पुराण के अनुसार इसने वास्तुशास्त्र पर भी ग्रन्थ रचा था।
अत्रि वंश
गोनकर ऋषि:- अर्धपष्य उद्दालकि, करजिन्ह कर्णजिब्ह, कर्णिरथ, कर्दमायन, शाखेय, गोणीपति, गौरग्रीव, गोपन, गौरनिज, चैत्रायन, जलद, तैलप, लैद्राणि, वामथ्य, शाकलायनि, शौण शाराण, शौक्रतव, सैवेल्य, सोनकुर्णि, सौपुष्पि, हरप्रीत। इनके तीन प्रवर अत्रि, आर्चनानाश व श्यावाश्व है।
उर्णनाभि, गविष्ठर, दक्षि, पर्णवि, बलि, बीजवापि, मलंदन, मौजकेश शिरीश, शिलन्दिनी, ये अजि, गविष्ठर, तथा पूर्वातिथि प्रवरों के हैं। कालेय, धात्रेय, मैत्रेय, वामरथ्य, सवालेय के प्रवर अत्रि पौत्रि तथा वामस्थ्य है।

अत्रिकुल के मंत्रकार ऋषि अत्रि, अचिर्सन, निष्ठुर, पूर्वातिथि, वल्गूतक, श्यामावान, अत्रि, अर्धस्वना कर्णक, गविष्ठुर, पूर्वातिथि, शावस्य, अत्रिकुल के कई लोग अत्रि नाम से प्रसिद्ध हैं। मत्स्य पुराण में इसे प्रजापति कहा है।
दत्तात्रेय :
यह अत्रि और अनूसया का पुत्र था। यह विष्णु का अवतार था इसका निमि नामक एक पुत्र था। ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में दत्त की उपासना प्रचलित है। इसकी मूर्ति में तीन मुख छः हाथ चित्रित किए जाते है। इसके पीछे एक गाय और आगे 4 कुत्ते दिखाई देते हैं। पुराणों में त्रिमुखी दत्त का उल्लेख नहीं वहां अत्रि के तीनों पुत्र क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु महेश का अवतार हैं। गाय और कुत्तों का भी पुराणों में उल्लेख नहीं।
महाराष्ट्र में त्रिमुखी दत्त का वर्णन सर्वप्रथम सरस्वती गंगाघट रचित “गुरु चरित्र ग्रन्थ में मिलता है। गुरु चरित्र का काल लगभग स० 1550 माना है। माघ के ‘शिशुपाल वध में दत्त को विष्णु का अवतार कहा गया है। दत्त अवतार का यह प्रथम निर्देश है। दत्तावतार का मुख्य गुण क्षमा है। इसका अवतार कार्य वेदों का यज्ञ क्रिया सहित पुनरूजीवन, चातुर्वर्ण्य की पुनर्घटना, अधर्म का नाश है। इसने सन्यास पद्धति का प्रचार किया।
आत्मज्ञान और शिष्य परम्परा दत्त ने अपने पिता से पूछा, “मुझे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति कैसे होगी।” अत्रि ने इसे (गौतमी) गोदावरी नदी पर जाकर महेश की अराधना करने को कहा। उस स्थान को ब्रह्म तीर्थ कहते हैं।
दत्त ब्रह्मनिष्ठ थे। इसके अलर्क, प्रहलाद, युद्ध तथा सहस्रार्जुन शिष्य थे। इसने अलर्क को योग, योग धर्म, योग सिद्धि तथ निष्काम बुद्धि के सम्बंध में उपदेश दिया। आयु परशुराम, सांकृति ने भी दत्त से ज्ञान प्राप्त किया थां
दत्त आश्रम: गिरिनगर में दत्त का आश्रम था। पश्चिमी घाट में मल्लकीग्राम (माहूर) में दत्त आश्रम है। इसी स्थान पर परशुराम ने पिता जमदग्नि का दाह संस्कार किया और माता रेणुका सती हुई। यह मातृतीर्थ कहलाता है।
दत्त का शिष्य कार्तवीर्य अर्जुन था। उसने बहुत प्रसन्न करके इससे वर लिया था और अपनी समस्त सम्पति दत्त का सौंप दी थी। कार्तवीर्य की राजधानी महिष्मति थीं मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा के दिन दत्त जयन्ती मनाई जाती है। दत्त द्वारा ग्रन्थ- अवधूतोपनिषद, जाबालोपनिषद अवधूत गीता, त्रिपुरोपास्ति पद्वति परशुराम कल्पसूत्र (दत्ततंत्र विज्ञान सार) आदि है। दत्तमत प्रतिपादक ग्रन्थ अवधूत उपनिषद जाबाल, दत्तात्रेय उपo, भिक्षकोपनिषद्, शाण्डिल्य उप०. दत्तात्रेय तन्त्र आदि ग्रन्थ

दत्त सम्प्रदाय : तांत्रिक, नाथ, एवं महानुभाव संप्रदायों में दत्त को उपास्य देव माना जाता है। श्री पाद श्री बल्लभ पणिपुर आन्ध्र श्री नरसिंह सरस्वती महाराष्ट्र आदि दत्त उपासक स्वयं दत्तावतार थे। ऐसी उनके मंत्रों की श्रद्धा है। पं० वासुदेव आनन्द सरस्वती (1858-1914 ई०) सत्पुरूष थे। वे दत्त भक्त थे। मराठी तथा संस्कृत में दत्त विषयक विपुल साहित्य के निर्माता थे। उन्होंने पद यात्रा करके दत्त भक्ति का प्रचार किया और स्थान,स्थान पर दत्त मन्दिरों का निर्माण किया।

दुर्वासान्नेय :
दुर्वासा बहुत क्रोधी और उग्र स्वभाव के थे। लोकरीति प्रचलित है, कि क्रोधी पुरुष को दुर्वासा कहा जाता है। शिवपुराण और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार अत्रि ने घोर तपस्या की। ब्रह्मा, विष्णु महेश ने वर दिया कि उनके अंश से उसके तीन पुत्र होंगे। उस वर के कारण ब्रह्मा के अंश से सोम (चन्द्र) विष्णु के अंश से दत्त तथा महेश के अंश से दुर्वासा हुए। ब्रह्म और अग्नि पुराणों में इसे दत्त का भाई कहा गया है। पौराणिक कथाओं में कालदृष्टि से सुदूर माने गए अनेक राजाओं के साथ इसका उल्लेख हुआ है। यथा-अवंरीश राम श्वेतकि, राम दाशरथि, कुंती, कृष्ण, द्रोपदी आदि। इससे ज्ञात होता है कि दुर्वासा भी नारद की तरह तीनों लोकों में अप्रतिबंध संचार करने वाला एक अमर व्यक्तित्व था। इन्द्र से अंवरीश, राम और कृष्ण तक स्वर्ग और पाताल तक किसी समय व किसी भी स्थान पर प्रकट होकर दुर्वासा अपना विशिष्ट स्वभाव दिखाता है। कालिदास की “शाकुन्तला” में भी, शकुन्तला के संकटों का कारण दुर्वासा का शाप ही था। क्रुद्ध होकर शाप देना और प्रसन्न होकर वरदान देना यह दुर्वासा के स्वभाव का स्थायीभाव था। इस लिए सारे लोग इससे डरते थे।
दुर्वासा कठोर व्रत धारण करने वाला गूढ स्वभाव का था। इसके मन में क्या था, कोई नहीं जान पाता था। इसका रंग पीत हरा, और दाढ़ी लम्बी थी कद बहुत ऊँचा था चिथड़े पहने रहता, हाथ में विल्व की सोटी पकड़े, स्वच्छन्द घूमता लोगों को त्रस्त करता था। ओर्व ऋषि की पुत्री कंदली इसकी पत्नी थी। क्रोधित होकर इसने उसे भी जलने का शाप दिया था।
जैमिनि गृह्यसूत्र के उपाकर्माग तर्पण में दुर्वासा का निर्देश है। इससे पता लगता है कि यह एक सामवेदी आचार्य था। इसके नाम पर आर्या द्विशती देवी महिमा स्तोत्र, ललितास्त्व रत्न आदि ग्रन्थों का उल्लेख है।
दुर्वासा के क्रोध और अनुग्रह की कई कथाएं पुराणों में प्रचलित हैं। दुष्यन्त शंकुतला की कथा प्रसिद्ध है। दुर्वासा के शाप के कारण दुष्यन्त ने शकुन्तला को पहचानने से इन्कार कर दिया। राम के भाई लक्ष्मण को इसी के कारण देह त्याग करनी पड़ी। इसने श्रीकृष्ण और रुकमणि की कठोर परीक्षा ली। श्रीकृष्ण परीक्षा में सफल हुए। तब उन्हें इसके द्वारा वरदान प्राप्त हुआ।

सोम या चन्द्र :
ब्रह्मा के अंश से अत्रि और अनसूया का पुत्र स्वायंभुव मन्वन्तर में उत्पन्न हुआ। पृथ्वी की औषधि, वनस्पति चन्द्र से प्रभावित होने के कई निर्देश हैं। इसने कई वर्ष तपस्या की, इसकी आंखों से सोमरस बहने लगा। इससे कई औषधियां बनी। इसके क्षय होने से वनस्पतियां सूखने लगी।
दक्ष की 27 पुत्रियों से इसका विवाह हुआ। इसे रोहिणी से विशेष प्रेम था। अन्य का दक्ष को शिकायत करना, दक्ष का चन्द्र को शाप (क्षय होने का). इससे औषधियों का सूख जाना। देवताओं की दक्ष को प्रार्थना (शाप वापिस लेने के लिए)। चन्द्र का पन्द्रह दिन क्षय और पन्द्रह दिन वृद्धि। इसके लिए चन्द्रमा को सब पत्नियों की ओर समान ध्यान देना पड़ेगा।
सोम ने राजसूय यज्ञ करके त्रिलोक को जीत लिया। इसने वृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण कर लिया। उसके लिए घमासान युद्ध हुआ। ब्रह्मदेव ने मध्यस्थता की। तारा वापस की गई। सोम वंश का प्रथम राजा सोम था। पत्नी रोहिणी थी। राजधानी प्रयाग थी। बदरिका आश्रम में तप करके, इसने महाधिपत्य प्राप्त किया। सोम वंश और सूर्यवंश दोनों का मूल पुरुष वैवस्वत मनु था। सूर्य वंश वैवस्वत मनु के पुत्र से उत्पन्न हुआ। और चन्द्रवंश वै० मनु की पुत्री इलासे, इला सोम पुत्र बुध से व्याही गई थी। उसी से पुरस्वस्, आयु, नाहुष, ययाति आदि का वंश विस्तार हुआ। इसे पुरस्वा या ऐलवंश कहते हैं। पुरस्वा पुत्र अमावसु से कान्य कुब्ज में अमावसु वंश शुरु हुआ।

पुनर्वसु आत्रेय :
पुनर्वसु ऋषि ब्रह्मा के मानसपुत्र अत्रि के पुत्र माने जाते हैं। चरक संहिता में उन्हें अत्रि-सुत और अत्रि नंन्दन कहा गया है। इनकी माता का नाम चन्द्रभागा था। इसलिए उन्हें चन्द्रभाग भी कहते हैं।
कश्यप संहिता के अनुसार इन्द्र ने कश्यप, वसिष्ठ, अत्रि तथा भार्गव ऋषियों को आयुर्वेद की शिक्षा दी थी। अश्वघोष (बुध-चरित) के अनुसार आयुर्वेद चिकित्सा तंत्र का जो भाग अत्रि ऋषि पूरा न कर सके. वे उनके पुत्र पुनर्वसु ने किया । पुनर्वसु के छः शिष्यों, अग्नि वेश्य, भेल, जतकर्ण, पराशर, हरीत, क्षीर पाणि आदि ने आयुर्वेद का प्रचार किया।
ऋषि पुनर्वसु कृष्ण यजुर्वेदीय थे। अतः उन्हें कृष्णात्रेय भी कहते हैं। वे यायावार ऋषि थे, एक स्थान पर नहीं टिकते थें, पर्यटन करते हुए आयुर्वेद का प्रचार करते थे। ऋषि भारद्वाज द्वारा आयोजित एक वैधक सभा में भी वे उपस्थित थे। पुनर्वसु आत्रेय का प्रमुख ग्रन्थ “आत्रेय संहिता” है। इन के कई हस्तलिखित ग्रन्थ भी उपल्बध हैं। आजकल उपलब्ध हरीत संहिता में संहिताओं का उल्लेख है, जिनकी श्लोक संख्या
क्रमशः 24 हजार, 12 हजार 6 हजार 3 हजार और 15 सौ दी गई है। उनके नाम पर लगभग तीस योग उपलब्ध हैं उनमें “बल तैल” और “अमृत तैल का उल्लेख है।
प्रभाकर आत्रेय :
अत्रि वंश के इस मेधावी ऋषि का नाम प्रभाकर क्यों पड़ा। इस विषय में एक कथा है। सूर्य को राहू ने ग्रस्त कर लिया। सूर्य का कष्ट दूर करने के लिए ऋषि ने ‘स्वस्ति पाठ आरम्भ किया। सूर्य राहू से मुक्त हो गया और पहले की तरह पुनः प्रकाशित होने लगा। इस पुनीत कार्य के लिए इन्हें प्रभाकर नाम मिला। ज्ञान और योग्यता के कारण इन्होंने अत्रि कुल का गौरव बढ़ाया। ऋषि प्रभाकर का विवाह पुरुवंशीय रौद्राश्व की धृताची अप्सरा की दस कन्याओं से हुआ। उनके नाम हैं शूदा, रूद्रा, भद्रा, मलदा, मलहा, खलवा, नलवा, सुरसा, गोचपला और स्त्री रत्न कूट। उनके दस पुत्र स्वस्ति, आत्रेय, दक्षेय, संस्त्रया, समानत चाक्षुष, परमन्यु आदि थे।

 

Alok Mohan

The admin, Alok Mohan, is a graduate mechanical engineer & possess following post graduate specializations:- M Tech Mechanical Engineering Production Engineering Marine engineering Aeronautical Engineering Computer Sciences Software Engineering Specialization He has authored several articles/papers, which are published in various websites & books. Studium Press India Ltd has published one of his latest contributions “Standardization of Education” as a senior author in a book along with many other famous writers of international repute. Alok Mohan has held important positions in both Govt & Private organisations as a Senior professional & as an Engineer & possess close to four decades accomplished experience. As an aeronautical engineer, he ensured accident incident free flying. As leader of indian team during early 1990s, he had successfully ensured smooth induction of Chukar III PTA with Indian navy as well as conduct of operational training. As an aeronautical engineer, he was instrumental in establishing major aircraft maintenance & repair facilities. He is a QMS, EMS & HSE consultant. He provides consultancy to business organisations for implimentation of the requirements of ISO 45001 OH & S, ISO 14001 EMS & ISO 9001 QMS, AS 9100, AS9120 Aero Space Standards. He is a qualified ISO 9001 QMS, ISO 14001 EMS, ISO 45001 OH & S Lead Auditor (CQI/IRCA recognised certification courses) & HSE Consultant. He is a qualified Zed Master Trainer & Zed Assessor. He has thorough knowledge of six sigma quality concepts & has also been awarded industry 4, certificate from the United Nations Industrial Development Organisation Knowledge Hub Training Platform  He is a Trainer, a Counselor, an Advisor and a Competent professional of cross functional exposures. He has successfully implimented requirements of various international management system standards in several organizations. He is a dedicated technocrat with expertise in Quality Assurance & Quality Control, Facility Management, General Administration, Marketing, Security, Training, Administration etc. He is a graduate mechanical engineer with specialization in aeronautical engineering. He is always eager to be involved in imparting training, implementing new ideas and improving existing processes by utilizing his vast experience.