ancient indian history

Hindu Culture

भारतीय संस्कृति के संरक्षण का इतिहास

जितनी प्राचीन भारत की संस्कृति है उतना ही पुराना उसके संरक्षण का इतिहास है। समय-समय पर ऐसे लोग भी हुए, जिन्होंने इस संस्कृति को नष्ट करने के भरसक प्रयास किए, परन्तु प्राणों की आहूतियाँ देकर कुछ महान विभूतियों ने इसकी रक्षा का बीड़ा उठाया। यही कारण है कि विश्व की कई संस्कृतियाँ पनपी और समाप्त हो गई, परन्तु हमारी संस्कृति आज भी अक्षुण्ण है। प्रत्येक हिन्दू को उन महान् आत्माओं के विषय में पूरी जानकारी होनी चाहिए।
चीनी यात्री हयून सांग कई वर्ष भारत में रहा। वह लिखता है। तक्षशिला  विश्व विद्यालय भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित था। तक्षशिला उच्च शिक्षा का केन्द्र था। यहां अनेक विषयों- दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद की शिक्षा दी जाती थी। चीन, तुर्कीस्तान और पश्चिमी एशिया के सैंकड़ों विद्यार्थी विद्याध्ययन के लिए आते थे। हूणों के आक्रमण से इसका वैभव नष्ट हुआ। नालन्दा विश्वविद्यालय पांचवी शताब्दी में प्रसिद्ध हुआ। हयून सांग चीनी यात्री ने सात वर्ष तक इस महाविश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त की। 20 वर्ष में वह भिक्षु बन गया तथा 29 वर्ष की अवस्था में वह पुनः भारत आया और लगभग 15 वर्ष रहा। हयून सांग लिखता हैं- “भारत में हजारों बड़ी-2 शिक्षा संस्थाएं है परन्तु नालन्दा के वैभव की कोई भी समानता नहीं कर सकती। यहां दस सहस्र विद्यार्थी बोद्ध-साहित्य के अतिरिक्त वेद, न्याय, व्याकरण, आयुर्वेद, सांख्य दर्शन का अध्ययन करते, हैं। प्रतिदिन एक सौ आसानों से व्याख्यान दिए जाते हैं। कई पीढ़ियों से नरेश दान देते आए हैं। दान से ही विद्यार्थियों को भोजन, वस्त्र, औषधि आदि प्राप्त होते हैं। भव्य छात्रावास हैं। विद्याध्ययन करते छात्रों के ज्ञान व चरित्र के कारण राजा लोग उनका आदर करते हैं। राज धर्म कुलों में जन्म लेकर भी ये लोग वैभव से दूर रहते हैं। वे सत्य-अन्वेषण में सम्मान का अनुभव करते हैं और निर्धनता में उन्हें कोई ग्लानि नहीं।” इस प्रकार की शिक्षा से भारत का मस्तक सतार में ऊँचा था। चरित्र की उज्जवलता और आत्म दर्शन लाखा व्यक्तियों का जीवन का ध्येय बना हुआ था। यून सांग सिन्धु नदी पार करके काश्मीर पहुंचा जो कनिष्क के समय में, विद्या का केन्द्र था। वहां वह दो वर्ष रहा उसे राजा द्वारा बीस लिपिक दिए गए, जिन्होंने धार्मिक ग्रन्थों की प्रतिलिपि की। उस समय हर्ष उत्तरी भारत का शक्तिशाली राजा था। हयून सांग को प्रयाग में बौद्ध मत के अनुयायी कम मिले। वहां से वह आवस्ती. पाटलीपुत्र कपिल वस्तु, बनारस, सारनाथ, वैशाली, राजगृह आदि स्थानों में गया। कड़ी परीक्षा के पश्चात् प्रवेश मिलता था। प्रवचन देने वाला आचार्य कम-से-कम दस पुस्तकों का रचयिता होता था। हसून सांग ने पांच वर्ष रह कर संस्कृत भाषा सीखी। हयून सांग को राजा एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ देने लगा पर उसने स्वीकार नहीं की क्योंकि वह धन-प्राप्ति के लिए नहीं, ज्ञान-अर्जन के लिए भारत | आया था। वह अपने साथ 657 पुस्तकें 22 घोड़ों पर ले गया और डेट सौ अन्य बोद्धमत से सम्बंधित चिन्ह ले गया। भारतीय विद्वानों की सहायता से उसने सभी ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद किया।
चीनी यात्री ने हमारी धार्मिक उदारता की सराहना की है। भारत की विशेषता रही है कि वे अन्य मतावलम्बियों के प्रति सदैव उदार रहे हैं। खेद है कि हमारी सहनशीलता और उदारता का नाजायज फायदा मुस्लिम, आक्रमणकारियों ने उठाया उन्होंने हमें कायर समझा। हमारे धार्मिक स्थल तोड़े, हमारी संस्कृति नष्ट की। नारी जाति पर अत्याचार किए । यह क्रम सन् 1947ई0 तक चलता रहा। आज भी कुछ लोग कहते हैं- चुपचाप मार खाओं विरोध न करो। दुष्ट तुम पर अत्याचार करते हैं तो भगवान् उन्हें सजा देगा। यह मान्यता सर्वथा गलत है
भारत किसी समय विश्व गुरु कहलाता था। परन्तु ईसा की आठवीं शताब्दी के आरम्भ में मुसलमानों द्वारा भारत पर आक्रमण आरम्भ हो गए थें। यह मुहम्मद बिन कासिम से आरम्भ होकर लगभग 1200 वर्ष, भारत की धन सम्पदा की लूट तथा हिन्दुओं पर इस्लाम के कहर का दुखद इतिहास है।

राजा दाहर
ईसा की आठवीं शताब्दी के आरम्भ में सिंध प्रदेश का शासक दाहर था। उस के राज्य पर महम्मद बिन कासिम ने आक्रमण कर दिया। राजा दाहर हार गया। उसके बलिदान के बाद उसकी रानी लाडो ने सेना का नेतृत्व किया। हिन्दू सैनिक जी जान से लड़ें परन्तु जीत नहीं पाए। मुसलमान आततायियों से बचने का एक ही उपाय था ‘मृत्यु का आलिंगन लाड़ी रानी अन्य महिलाओं के साथ धधकती चिता में कूद पड़ी। राजा दाहर की दो पुत्रियाँ उर्मिल और परमिल मुहम्मद बिन कासिम के हाथ लग गई वह उन्हें खलीफा की सुपूर्द  करने के लिए साथ ले गया क्योंकि इस्लाम मत के अनुसार काफिरों की सम्पत्ती, स्त्रियां, बच्चे पशुधन को माल-ए गनीमत
समझकर लूट लेना चाहिए।
राजा दाहर की दोनों बेटियों को अपनी प्रतिष्ठा
बचाने का एक उपाय सुझा वे दोनों खलीफा के सामने दिलखने लग गई। खलीफा ने उनके रोने का कारण पूछा । उन्होंने कहा, “हम आपके योग्य नहीं रही। जो व्यक्ति हमें साथ लाया है, उसने हमें भ्रष्ट कर दिया है। खलीफा क्रोध से आग बगूला हो गया और दोषी को मौत की सजा सुना दी। उसके मरने के पश्चात् उर्मिल और परमिल ठहाके लगाकर हंसने लगी। खलीफा ने कारण पूछा। उन्होंने कहा, “हमने झूठ बोला था।” सैनिक उनकी ओर बढ़ने वाले थे कि दोनों बहिनों ने पहने हुए कपड़ों के भीतर से कटारें निकाल और एक दूसरे का अन्त कर दिया। दरबारी स्तब्ध हुए देख रहे थे। भारतीय नारियाँ अबला नहीं, वे युद्ध क्षेत्र में लड़ भी सकती हैं और अपने सम्मान की रक्षा के लिए प्राण भी त्याग सकती हैं। ऐसी कथाएं साधारणतया इतिहासकार नहीं लिखते। परन्तु आम लोगों में वे दंत कथाओं के रूप में जीवित रहती है। उन्हें उपेक्षित नहीं करना चाहिए। 712 ई0 में सिंघ पर अरबों का अधिकार हो गया था। अरब लेखक अल-जहीज 800 ई0 में लिखता है. “”हिन्दूस्तान ने विज्ञान और गणित विश्व को सिखाये। हिन्दुस्तान के पास ऐसी लिपि है, जो विश्व की सभी भाषाओं की ध्वनियों को व्यक्ति कर सकती है।’ उसने भारतीय दर्शन और विद्वत्ता के विषय में भी लिखा है। मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा निरन्तर लूट-मार से इसकी सम्पन्नता खत्म की गई। मुहम्मद बिन कासिम के द्वारा सिंध पर अधिकार करने के बाद महमूद गजनवी द्वारा लगभग प्रतिवर्ष ही भारत पर आक्रमण होते रहे हैं।
महमूद गजनवीं का कहर और साही राजा
महमूद का जन्म सन् 971 ई0 में गजनी में हुआ। सन् 997 ई० में उसके पिता सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई। उसने अपने पुत्र इस्मायल को उत्तराधिकारी बनाया था। परन्तु महमूद ने उसे कैद करके सत्ता अपने हाथ में ले ली। इस्मायल का अन्त कैद खाने में ही हो गया। महमूद कट्टर मुसलमान था। सन् 998 ई० में बादशाह बनते ही उसने तलवार की नोक पर लूट मार मचानी शुरू कर दी इतिहास में मन्दिर नष्ट करने वाले लुटेरे के रूप में उसका उल्लेख है। उसने भारत पर सत्रह हमले किए। उस समय अफगानिस्तान व पंजाब पर साही राजाओं का शासन था। उन्होंने महमूद के आक्रमणों का डट कर विरोध किया। फरिश्ता के अनुसार इस अवसर पर दिल्ली, अजमेर कालिंजर के राजाओं ने साही राजाओं की सहायता की फरिश्ता का यह कथन बहुत प्रमुख है क्योंकि आम धारणा है कि हिन्दू राजा संकट के समय अथवा अपने धर्म-संस्कृति की रक्षा के समय भी इकट्ठे नहीं होते। फरिश्ता के कथन से स्पष्ट है कि उस समय हिन्दू राजा इस्लाम की बढ़ती शक्ति को रोकने के लिए पूर्णतया सजग थे।
महमूद द्वारा “भारत पर आक्रमण’
सन् 1000 ई0 में महमूद गजनवी ने पेशावर के आसपास के किले जीत लिए। सन् 1001 ई० में पेशावर का किला जीतकर उसने जयपाल साही को पुत्र और पौत्र सहित कैद कर लिया। उनसे पर्याप्त धन ले कर उन्हें छोड़ा। सन् 1002-03 में महमूद सिस्तान युद्ध में व्यस्त रहा। सन् 1004 ई० में उसने मुलतान पर आक्रमण किया और नमक श्रृंखला व भेरा आदि का क्षेत्र लूटा। वहां का राजा बाजीराय एक वीर योद्धा था, उसने डट कर सामना किया। तीन-चार दिन तक घोर युद्ध हुआ। अन्त में वह कुछ सैनिकों के साथ पहाड़ की चोटी पर चढ़ गया। महमूद के सैनिकों ने उसे घेर लिया। शत्रुओं के हाथों मरने से उसने स्वयं मरना अच्छा समझा और कटार अपने पेट में घोप ली। उसके सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। सन् 1005 को महमूद गजनी लौट गया। सन् 1005 के अन्त में महमूद ने पुन: मुलतान पर आक्रमण किया। सन् 1008 में उसने पुनः आनन्द पाल साही पर आक्रमण किया उसके पुत्र ब्रह्म पाल ने सेना का नेतृत्व किया। फरिश्ता के अनुसार, आनन्द पाल ने अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा हेतु राजाओं से प्रार्थना की। कई हिन्दू राजा उसकी सहायता के लिए आगे बढ़े। उनमें कोकड और गक्खंड़ लोगों का ‘साही राजाओं को विशेष योगदान था। भयकर युद्ध हुआ परन्तु हिन्दुओं का दुर्भाग्य है कि जीत होते-2 अन्त में वे हार जाते रहे। कभी हाथी भाग जाता और कभी घोड़ा राजा के नियन्त्रण से बाहर हो जाता आदि। तीन दिन किले पर घेरा पड़ रहा। बीस हजार सेना मारी गई। मुस्लिम सैनिकों ने भीमनगर (नगर कोटो का किला अधिकार में ले लिया। महमूद ने कोष पर अधिकार कर लिया। उसने लूट का माल हीरे जवाहर व अन्य अमूल्य बस्तुओं को गजनी ले जाकर महल में प्रदर्शनी लगाई।।।
1009ई में महमूद  ने नारायणपुर राजपूताना पर हमला किया। वहां से लूट का माल तथा हाथी घोड़ो सहित वह गजनी लौट गया। सन् 1010 ई० में उसने पून मुलतान पर हमला किया। 1011 ई0 में थानेसर के मन्दिर तोड़े, बड़ी मूर्तियों को वह गजनी ले गया। और आम स्थान पर अपमानित करने के लिए रख दीं। सन् 1012 ई० में आनन्द पाल की मृत्यु हो गई। उसके उत्तराधिकारी त्रिलोचन पाल पर 1013 ई० में महमूद ने आक्रमण कर दिया। उसकी सेना भारत में घुसी ही थी कि बर्फ पड़ने लग गई। कई महीने उसे रूकना पड़ा। त्रिलोचन पाल के पुत्र भीमपाल ने पहाड़ के तंग रास्ते पर उसका सामना किया। अन्त में वह अपने सैनिकों को लेकर काश्मीर की ओर चला गया। इस आक्रमण के पश्चात् धनराशि के साथ कई हिन्दुओं को बन्दी बना कर महमूद गजनी ले गया। कुछ हिन्दुओं को दास बनाकर बेच दिया तथा कुछ ने अवसर पाकर आत्महत्या कर ली। सन् 1018 ई0 में उसने हर दत्त राजा और मथुरा के यादव राजा कुलचन्द्र पर हमला किया वीरता के साथ ये राजा लड़े। कुल चन्द ने कोई उपाय न देखकर पत्नी की हत्या के बाद आत्म हत्या कर ली। इस युद्ध में पांच हजार हिन्दू मारे गए। मथुरा मन्दिरों की नगरी थी। इसके चारों ओर पत्थरों की ऊंची दीवार थी नगर के भीतर विशाल मन्दिर था जिसके निर्माण में 200 वर्ष लगे थे। लगभग बीस दिन लूट-पाट और मन्दिर तोड़ने में लगे। कन्नौज में दस हजार मन्दिर व सात किले थे। वहां के प्रतिहार राजा ने नाश लीला से बचने के लिए अधिक विरोध नहीं किया। फिर भी महमूद के सैनिकों ने कई हिन्दुओं को मौत की नींद सुला दिया और डट कर लूटमार  की।कन्नौज की लूट के बाद महमूद ने मुंज पर हमला किया। यह स्थान एटा से 14 मील उत्तर-पश्चिम की तरफ है। वहां का राजा ब्राह्मण था। 25 दिन तक यह किला मुस्लिम सैनिकों द्वारा घिरा रहा। कोई उपाय न सूझा तो स्त्रियों-बच्चों ने किले के भीतर आग लगा ली। पुरुष लड़ते-2 मर गए। इस किले का एक प्राणी भी नहीं बचा। लूट पाट के बाद महमूद फतह पुर से दस मील आगे ‘अस्सी’ के स्थान पर पहुंचा। इसका शासक चन्द्रपाल भूर बहुत पराक्रमी था। उसने कई राजाओं को हराया था परन्तु अत्याचारी महमूद का आगमन सुनकर वह राज्य भगवान् की दया पर छोड़ कर भाग गया। यह आक्रमण 1019 ई0 में हुआ था। 1020-21 ई० में महमूद गजनवी ने चंदेल विद्याघर राजा पर
आक्रमण किया। विलोचन पाल साही ने भी इसका विरोध किया। साही राजाओं के विषय में अल्वरूनी कहता है कि उन्होंने 25 वर्षों से अधिक तक मुस्लमानों का विरोध किया। वे भद्र व सांस्कृतिक लोग थे। कल्हण ने 12वीं शताब्दी में लिखी राज तरंगिनी में भी ऐसे ही उद्गार प्रकट किए हैं। लखनऊ निवासी श्री राम तीर्थ मोहन ने अपने शोध ग्रन्थ में “साही “राजाओं को चाहाण (भारद्वाज गोत्र) सिद्ध किया है।  सन् 1021-22 ई० में गजनवी ने दोबारा चंदेल विद्याधर पर आक्रमण किया। परन्तु उसे विशेष लाभ नहीं हुआ। 
ग्यारहवीं शताब्दी के आरम्भ में अल्बरूनी भारत में आया था। गजनवीं से प्रताड़ित उसने अपना देश छोड़ा। भारत पहुंचने से पूर्व उसने गणित, विज्ञान, नक्षत्र विद्या आदि के सभी अरबी ग्रन्थों का अध्ययन कर लिया था। भारत पहुंच कर उसने संस्कृत भाषा सीखी और अरबी भाषा में बीस ग्रन्थों का अनुवाद किया। अलबरूनी का कथन है ।
हिन्दुओं के देश जैसा, दुनिया में   कोई देश नहीं, उनके धर्म जैसा अन्य कोई धर्म नहीं, विद्या जैसी कोई विद्या नहीं।
अल्वनी एक अच्छा लेखक था। उसकी पुस्तक पंच सिद्धान्त के अनुसार नक्षत्र विद्या और ज्यतिष की भारतीय प्रणाली को समझाया गया। है। पृथ्वी ग्रह उनके आकार गति योग, सूर्य-चन्द्र ग्रहण, अक्षंश और देशान्तर प्रेक्षण यंत्र तथा नक्षत्र विद्या की भारतीय धारणा को समझाने का प्रयास किया गया है। अल्परूनी ने चिकित्साशास्त्र को नक्षत्र विद्या के समान ही ज्ञान की शिक्षा माना है। उस समय चरक के ग्रन्थ का अरबी भाषा में अनुवाद अलबरूनी का कहना है, भारतीय रामायण विद्या भी जानते थे। इसके द्वारा रोगी को स्वस्थ और बूढ़े को जवान बनाया सकता था। शायद उसने च्यवनप्राश अवलेह के विषय में है। माप के पैमाने तोलबाट आदि का उल्लेख भी उसने किया है । वह कहता है।           
  हिन्दू अपने ग्रंथों में ओम लिखते हैँ।  यह शुभ माना जाता है।

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