ancient indian history

Raja Bharat

राजा भरत
राजा दशरथ के दूसरे पुत्र भरत थें। भरत रामायण के अनुसार, गरुड़ के अवतार थे। लक्ष्मण और शत्रुघ्न इनके अन्य भाई थे।भरत के दो बेटे थे- तक्ष और पुष्कल। भरत की माता कैकेयी थी। कुलगुरू वसिष्ठ ने उन्हें भविष्य में विश्व का भरण-पोषण करने वाला जानकर उनका नाम भरत रखा। भरत राम के छोटे भाई व अनन्य भक्त है। पिता की मृत्यु सुनते ही वे व्याकुल हो उठते हैं। ननिहाल से अयोध्या आकर उन्हें राम वनवास का पता चलता है तो वे पिता का निधन भूलकर भातृ वियोग के शोक में डूब जाते हैं। वे क्रोध और ग्लानि से माता कैकेयी की भर्त्सना करते हैं। कौशल्या माता के पास जाकर वे कैकेयी के कुकृत्य पर खेद प्रकट करते हैं। पिता के दाह संस्कार के पश्चात् गुरु वसिष्ठ तथा अन्य स्वजन उन्हें पर सुशोभित करना चाहते हैं परन्तु वे इसके लिए तैयार नहीं। वे राम, राज्य – सिहांसन सीता और लक्ष्मण को अयोध्या वापिस लाना चाहते हैं। अवध के राज्य का अधिकारी वे ज्येष्ठ भ्राता राम को मानते हैं तथा उनका अधिकार हड़पना पाप समझते हैं । राम के आग्रह पर वे केवल उनके प्रतिनिधि के रूप में उनके वनवास की अवधि तक शासन कार्य संभालने को तैयार होते हैं । वह भी राम की पादुकाओं को सिंहासन पर आसीन करके भरत के संयम, भातृ प्रेम, नैतिकता, कर्त्तव्य निष्ठा, त्याग शासन कुशलता आदि गुण उसे राम कथा के पात्रों में बड़ा ऊँचा स्थान प्रदान करते हैं। रामावतार ( श्री दशमग्रंथ) में गुरू गोबिन्द सिंह ने भरत के तपस्वी वेश का बड़ा मार्मिक वर्णन किया है : सीस जटां को जूट धरे वर । राज समाज दिऊ पउवा पर । राज करे दिन होत उजारे। रैन भार रघुराज संभारे ।। जर्जर भया कुर झंकार जिउ तन । राखत श्री रघु राज विखे । तुलसी दास राम चरित मानस में लिखते हैं। लखन राम सिय कानन बसहीं।
मालाई प्रह भरत भवन वसि तप तनु कसहीं ।।
श्री राम अयोध्या लौटते हैं । राम की अगवानी के लिए सभी अयोध्यावासी उमड़ पड़ते हैं। महात्मा भरत बड़े भाई की चरण पादुकाओं को सिर पर धारण किए बढ़ते हैं। धर्मज्ञ भरत के गुणों के कारण ही राम उन्हें महामंत्री के पद से सुशोभित करते हैं ।
भरत एक कुशल सेनापति हैं। उन्होंने अपने मामा की सहायता से गंधर्व देश जीता। तत्पश्चात् वहा दो सुन्दर नगर बसाए – तक्षशिला और पुष्कला वर्त। उन्होंने अपने बड़े बेटे तक्ष को तक्षशिला का तथा छोटे बेटे पुष्कल को पुष्कलावत का राज्य सौंपा। पांच वर्ष के घोर परिश्रम से भरत ने जीते हुए क्षेत्र को समृद्ध बनाया । पुनः अपने भ्राता राम के पास आए। सारा वृत्तान्त सुनकर श्री रामचन्द्र बड़े प्रसन्न हुए। भरत ने अयोध्या से डेढ़ कोस दूर ‘गोप्रतार’ देह त्यागी।
भरत के पास बहुत उच्च नैतिक चरित्र था। उन्होंने खुद को एक महत्वपूर्ण रोल मॉडल साबित किया। एक पुत्र, एक भाई और एक पिता के रूप में उनके व्यवहार ने आने वाली पीढ़ियों के लिए एक शानदार उदाहरण स्थापित किया है। वे भाईचारे के प्रेम के जीवंत अवतार थे। ननिहाल से अयोध्या लौटने पर जब उन्हें माता कैकेयी से अपने पिता राजा दशरथ की मृत्यु का समाचार मिलता है, तो वे शोक से व्याकुल हो जाते हैं और कहते हैं, “मैंने सोचा था कि मेरे पिता श्री राम का अभिषेक करेंगे और यज्ञ के लिए दीक्षा लेंगे। , लेकिन दुर्भाग्य से वह स्वर्ग सिधार गये । अब श्रीराम मेरे पिता और बड़े भाई हैं, जिनका मैं सबसे प्रिय दास हूं। मेरे आने की सूचना उन्हें शीघ्र देना। मैं उनके चरणों में झुकूंगा। अब वही मेरा एकमात्र आश्रय है। वह अपनी माता कैकेयी से खुश नहीं थे क्योंकि वह जानते थे कि भगवान श्री राम के वनवास का कारण उनका लालच था। वह जानते थे कि कैकेयी की कार्रवाई से राज्य के लिए बड़ी आपदा आई है।

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