अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा कुवलयाव
राजा कुवलयाश्व वृहदश्व का पुत्र था। वन में जाते समय इसके पिता ने उत्तंक को पीड़ा देने वाले धुंधू नामक दैत्य को मिटाने के लिए कहा।
अपने पिता के आदेश से इन्होंने धुंधु का वध किया था। इसी से इनका दूसरा प्रसिद्ध नाम ‘धुंधमार’ भी है। इसके वध की कथा विस्तारपूर्वक हरिवंश पुराण में वर्णित है। जो इस प्रकार है:-
“पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा शत्रुजित के पुत्र का नाम ऋतध्वज था। एक दिन महर्षि गालव राजा शत्रुजीत के पास आए। वह अपने साथ एक दिव्य अश्व भी लाए थे। महर्षि राजा से सहायता मांगने आए थे ।
महर्षि ने बताया, ‘‘एक दुष्ट राक्षस अपनी माया से, सिंह, व्याघ्र, हाथी आदि पशुओं का रूप धारण करके आश्रम में बार-बार आता है और आश्रम को भ्रष्ट और नष्ट करता है।
हमें सूर्यदेव ने ‘कुवलय’ नाम के इस अश्व को दिया है । यह अश्व बिना थके पूरी पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर सकता है । उसकी विशेषता यह भी है कि आकाश, पाताल एवं जल मे भी यह अश्व तीव्र गति से दौड सकता है । यह अश्व हमें देते समय देवताओं ने कहा है कि, इस अश्व पर बैठकर आपका पुत्र ऋतध्वज हमें कष्ट देनेवाले असुर का नाश करेगा । इसलिए आप अपने राजकुमार को हमारे साथ भेज दीजिए । इस अश्व को पाकर राजकुमार कुवलयाश्व इस नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे ।’’
शत्रुजित राजा धर्मात्मा थे । मुनि की आज्ञा मानकर राजकुमार को उनके साथ जाने की आज्ञा दी । राजकुमार ऋतध्वज मुनि के साथ उनके आश्रम चले गए और वहीं निवास करने लगे ।
एक दिन आश्रम के मुनिगण सायंकाल के समय संध्या उपासना कर रहे थे । तभी शूकर का रूप धारण करके पातालकेतु नाम का एक दानव मुनियों को सताने आश्रम मे आ पहुंचा । उसे देखते ही आश्रम में निवास करनेवाले शिष्य शोर करने लगे । तभी राजकुमार ऋतध्वज अश्व पर सवार होकर उस दानव के पीछे दौड़े। राजकुमार ने अर्धचन्द्र आकार के एक बाण से उस असुर को मारा। असुर घायल हो गया । अपने प्राण बचाने के लिए वह भागने लगा । राजकुमार भी उसके पीछे घोड़े पर दौड़ते रहे। असुर वनों मे, पर्वतों और झाडियों गया । राजकुमार के घोड़े ने वहां तक उसका पीछा किया । असुर बड़े वेग से दौड रहा था । अंत मे वह पृथ्वी के एक गड्ढे मे कूद गया । राजकुमार भी उसके पीछे पीछे गढ्ढे में कूद गया । वह पाताल लोक में जाने का मार्ग था । उस अंधकारपूर्ण मार्ग से राजकुमार पाताल पहुंच गये ।
वहां राजकुमार ने एक भवन देखा । असुर को ढूंढने के लिए राजकुमार उस भवन में पहुंचा। वहां उसे एक कन्या दिखी । उसका नाम मदालसा था। वह गंधर्वों के राजा विश्वावसु की कन्या थी। पातालकेतु ने स्वर्ग से मदालसा का हरण किया था। पातालकेतु की उससे विवाह करने की इच्छा थी। राजकुमार को पातालकेतु के इस विचार का पता लगा। उसने दिव्यास्त्र का उपयोग करके पातालकेतु के साथ सभी असुरों का नाश कर दिया। सभी असुर उस अस्त्र से भस्म हो गए। मदालसा को यह जब पता चला, तो उसने राजकुमार ऋतध्वज का पति के रूप मे वरण कर लिया। अपने पत्नी के साथ राजकुमार अश्व पर चढकर पाताल लोक से ऊपर आ गए । अपने विजयी पुत्र को देखकर राजा शत्रुजित को बहुत आनन्द हुआ। कुछ समय पश्चात राजकुमार राजा बन गया और कुवलयाश्व नरेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ”
भागवत पुराण में कुवलयाश्व के पुत्रों की संख्या इक्कीस हजार है। इस पुराण के अनुसार
कुवलयाश्व जब उत्तंक को साथ लेकर धुंधू के स्थान पर पहुंचा। धुंधू अपने अनुयायियों सहित उज्जालक नामक बालुकामय सागर के तल में सोया हुआ था । कुवलयाश्व ने अपने पुत्र दृढ़ाश्व तथा अन्य सौ पुत्रों को बालू हटाने के लिए कहा
बालू हटते ही धुंधू के मुंह से ज्वाला निकलने लगी। दृढाश्व, कपिलाश्व और भद्राश्व के अतिरिक्त सभी मारे गए। कुवलयाश्व स्वयं लड़ने गया। विष्णु ने उत्तंक ऋषि के दिए वरदान के अनुसार अपना तेज उसे प्रदान कर दिया। इस प्रकार धुंधू नष्ट हुआ और राजा कुवलयाव का नाम धुंधूमार पड़ा। कुवलयाव के देहान्त के पश्चात् इनका पुत्र दृढ़ाश्व सिहांसन पर बैठा। दृढ़ाश्व, प्रमोद, हर्याश्व, निकुम्भ, संहिताश्व, कृशाश्व आदि राजाओं के विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं ।