Raja Harish Chandra

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा हरिश्चन्द्र
हरिश्चन्द्र का पालन-पोषण और शिक्षा दीक्षा गुरू देवराज वसिष्ठ की देख-रेख में हुई। अतः यह गुरू के प्रति अत्यधिक कृतज्ञ था। पिता की मृत्यु के पश्चात् यह गद्दी पर बैठा। इसने विश्वामित्र के स्थान पर पुनः गुरु वसिष्ठ को प्रतिष्ठित किया । इससे ऋषि विश्वामित्र और मुनि वसिष्ठ का विरोध बढ़ गया। विश्वामित्र ने इसे राज्यच्युत करवा दिया। पौराणिक साहित्य में इसे विश्वामित्र द्वारा त्रस्त करने की कई कथाएं हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार विश्वामित्र को दक्षिणा देने के लिए इसने पत्नी तारा (शैब्या) और पुत्र रोहित को एक ब्राह्मण के पास बेच दिया। स्वयं शमशान अधिकारी के पास चण्डाल का कार्य करने लगा। रोहित को सर्पदशं के कारण मृत समझकर तारा उसके अन्तिम संस्कार के लिए शमशान घाट ले गई। वहां पति-पत्नी ने एक दूसरे को पहचान लिया । वे दोनों पुत्र के साथ चिता में जलने वाले थे, कि गुरू वसिष्ठ ने समय पर आकर उन्हें बचा लिया ।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार गुरू वसिष्ठ 12 वर्ष जलावास करके निकले और हरिश्चन्द्र के विषय में दुखद वृत्तान्त सुना। उन्हें विश्वामित्र पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने कहा, “इतना दुख मुझे अपने पुत्रों की
मृत्यु पर भी नहीं हुआ, जितना देव ब्राहमणों की पूजा करने वाले राजा का राज्य भ्रष्ट होने पर, सत्यवादी निरपराधी और धर्मात्मा राजा को भार्या, पुत्र और सेवकों सहित राज्यच्युत करके विश्वामित्र ने मुझे बहुत कष्ट पहुॅचाया है।”
गुरू वसिष्ठ ने इसकों पुनः राज्य-सिहांसन पर बैठाया। विद्वानों का विचार है कि इस कथन के साथ कई काल्पनिक कथाएं जोड़ दी गई हैं। सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र की मृत्यु के पश्चात् इसका पुत्र रोहित गद्दी पर बैठा। इसकी पत्नी का नाम चन्द्रवती था, जिससे इसे हरित पुत्र हुआ। रोहित ने अयोध्या के पास रोहितपुरी नगरी बसाई और एक दुर्ग बनाया | लम्बी अवधि तक राज्य करने के पश्चात् इसने रोहितपुरी दान में दे दी और विरक्त हो गया। तत्पश्चात् हरित ने अयोध्या का राज्य सिंहासन संभाला। हरित का पुत्र वृक तथा उसका पुत्र बाहु असित हुआ ।
Raja Trusdusch

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा त्रसदश्व,
यह ईक्ष्वाकु वंश का 31वां राजा था ।
इसका पिता त्रैय्यारूण था। इसका मूल नाम सत्यव्रत था । परन्तु गुरु वसिष्ठ के शाप के कारण यह त्रिशंकु कहलाया । सत्यव्रत के पिता त्रैय्यारूण व पुत्र हरिश्चन्द्र, इन तीनों राजाओं का गुरू देवराज वसिष्ठ था । कान्यकुन्ज का राजा देवरथ, जो तपस्या करके ब्राह्मण बन गया था, त्रिशंकु का मित्र था। त्रिशंकु के कारण ही ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र अथवा देवरथ का झगड़ा हुआ । “देवी भागवत” के अनुसार त्रिशंकु शुरू से ही दुराचारी था। उसने विवाह वेदी पर बैठी ब्राह्मण कन्या का अपहरण किया और कहा, “सप्तपदी होने से पूर्व मैंने उस का अपहरण किया है अतः में दोषी नहीं हूँ।” इसकी बात न सुनकर गुरू वसिष्ठ ने इसके पिता को सलाह दी कि उसे राज्य से निकाल दिया जाएं कई ग्रन्थों में लिखा है कि वह स्वयं वनों में चला गया, ताकि तप करके वह अच्छा बन सके। त्रिशंकु के पिता वृद्ध थे। वे राज्य कार्य करने में असमर्थ थे। गुरू वसिष्ठ राज्य – कार्य चलाने लगे। लगभग 9 वर्ष देश में अकाल रहा। जिस वन में त्रिशंकु रहता था, वहीं विश्वामित्र का आश्रम था । विश्वामित्र तप हेतु बाहर गया हुआ था। उसकी पत्नी व तीन पुत्र आश्रम में रहते थे। अकाल के कारण उनकी भूखे मरने की नौबत आ गई थी । विश्वामित्र की पत्नी छोटे बच्चे को नगर में बेचने चली। त्रिशंकु को दया आ गई। वह प्रतिदिन कुछ कंद मूल खाद्य सामग्री पेड़ पर रख जाता क्योंकि वनवासी व्यक्ति का नगर या आश्रम में जाना वर्जित होता है। इस प्रकार विश्वामित्र के परिवार का भरण-पोषण होने लगा ।
गुरू वसिष्ठ सत्यव्रत त्रिशंकु से पहले ही दुःखी थे । त्रिशंकु ने उनकी गाय चुराकर एक और अपराध किया । गुरु देवराज वसिष्ठ ने उसे शाप दिया, ” तुम्हारे सिर पर तीन शंकु निर्माण होंगे। स्त्री हरण, पिता और गुरु का अपमान ।” उस दिन से लोग उसे त्रिशंकु कहने लगे । गुरु वसिष्ठ और त्रिशंकु का वैर और बढ़ गया ।
विश्वामित्र तप के पश्चात् लौटा। उसे ज्ञात हुआ कि अकाल के दिनों में सत्यव्रत ने उसके परिवार की सहायता की है। वह त्रिशंकु के प्रति कृतज्ञ हुआ और उसके पिता को किसी प्रकार मनाकर उसे ( सत्यव्रत त्रिशंकु ) राज्य – सिहांसन पर बैठाया तथा उससे यज्ञ कर इस यज्ञ में सभी राजाओं और ऋषियों को आमंत्रित किया गया । गुरु वसिष्ठ ने साफ उत्तर दिया,” जहाँ यज्ञ करने वाला चण्डाल हो। उपाध्याय विद्वान न हो, वहाँ जाने का क्या लाभ | ” सुनकर विश्वामित्र अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । यह सन्देश सत्यव्रत त्रिशंकु की धार्मिकता के विषय में विश्वामित्र ने कहा है,” उसने सौ यज्ञ किए। क्षत्रिय धर्म की शपथ लेकर उसने कहा थामैंने कभी असत्य भाषण नहीं किया । प्रजा का पालन किया है। गुरु को शील से सन्तुष्ट करने का प्रयास किया है, परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे यश नहीं मिलता। कहीं-कहीं गुरु वसिष्ठ भी कहते हैं,” वह उच्छृंखल है, बाद में सुधर जाएगा ।
राजा सत्यव्रत की पत्नी का नाम सत्यरथा था। उससे हरिश्चन्द्र पुत्र हुआं उसका पालन-पोषण शिक्षा-दीक्षा आदि गुरु वसिष्ठ ने ही सम्पन्न की।
Raja Trusdusch
अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा त्रसदश्व,
यह ईक्ष्वाकु वंश का 31वां राजा था ।
इसका पिता त्रैय्यारूण था। इसका मूल नाम सत्यव्रत था । परन्तु गुरु वसिष्ठ के शाप के कारण यह त्रिशंकु कहलाया । सत्यव्रत के पिता त्रैय्यारूण व पुत्र हरिश्चन्द्र, इन तीनों राजाओं का गुरू देवराज वसिष्ठ था । कान्यकुन्ज का राजा देवरथ, जो तपस्या करके ब्राह्मण बन गया था, त्रिशंकु का मित्र था। त्रिशंकु के कारण ही ऋषि वशिष्ठ और विश्वामित्र अथवा देवरथ का झगड़ा हुआ । “देवी भागवत” के अनुसार त्रिशंकु शुरू से ही दुराचारी था। उसने विवाह वेदी पर बैठी ब्राह्मण कन्या का अपहरण किया और कहा, “सप्तपदी होने से पूर्व मैंने उस का अपहरण किया है अतः में दोषी नहीं हूँ।” इसकी बात न सुनकर गुरू वसिष्ठ ने इसके पिता को सलाह दी कि उसे राज्य से निकाल दिया जाएं कई ग्रन्थों में लिखा है कि वह स्वयं वनों में चला गया, ताकि तप करके वह अच्छा बन सके। त्रिशंकु के पिता वृद्ध थे। वे राज्य कार्य करने में असमर्थ थे। गुरू वसिष्ठ राज्य – कार्य चलाने लगे। लगभग 9 वर्ष देश में अकाल रहा। जिस वन में त्रिशंकु रहता था, वहीं विश्वामित्र का आश्रम था । विश्वामित्र तप हेतु बाहर गया हुआ था। उसकी पत्नी व तीन पुत्र आश्रम में रहते थे। अकाल के कारण उनकी भूखे मरने की नौबत आ गई थी । विश्वामित्र की पत्नी छोटे बच्चे को नगर में बेचने चली। त्रिशंकु को दया आ गई। वह प्रतिदिन कुछ कंद मूल खाद्य सामग्री पेड़ पर रख जाता क्योंकि वनवासी व्यक्ति का नगर या आश्रम में जाना वर्जित होता है। इस प्रकार विश्वामित्र के परिवार का भरण-पोषण होने लगा ।
गुरू वसिष्ठ सत्यव्रत त्रिशंकु से पहले ही दुःखी थे । त्रिशंकु ने उनकी गाय चुराकर एक और अपराध किया । गुरु देवराज वसिष्ठ ने उसे शाप दिया, ” तुम्हारे सिर पर तीन शंकु निर्माण होंगे। स्त्री हरण, पिता और गुरु का अपमान ।” उस दिन से लोग उसे त्रिशंकु कहने लगे । गुरु वसिष्ठ और त्रिशंकु का वैर और बढ़ गया ।
विश्वामित्र तप के पश्चात् लौटा। उसे ज्ञात हुआ कि अकाल के दिनों में सत्यव्रत ने उसके परिवार की सहायता की है। वह त्रिशंकु के प्रति कृतज्ञ हुआ और उसके पिता को किसी प्रकार मनाकर उसे ( सत्यव्रत त्रिशंकु ) राज्य – सिहांसन पर बैठाया तथा उससे यज्ञ कर इस यज्ञ में सभी राजाओं और ऋषियों को आमंत्रित किया गया । गुरु वसिष्ठ ने साफ उत्तर दिया,” जहाँ यज्ञ करने वाला चण्डाल हो। उपाध्याय विद्वान न हो, वहाँ जाने का क्या लाभ | ” सुनकर विश्वामित्र अत्यन्त क्रुद्ध हुआ । यह सन्देश सत्यव्रत त्रिशंकु की धार्मिकता के विषय में विश्वामित्र ने कहा है,” उसने सौ यज्ञ किए। क्षत्रिय धर्म की शपथ लेकर उसने कहा थामैंने कभी असत्य भाषण नहीं किया । प्रजा का पालन किया है। गुरु को शील से सन्तुष्ट करने का प्रयास किया है, परन्तु मेरा दुर्भाग्य है कि मुझे यश नहीं मिलता। कहीं-कहीं गुरु वसिष्ठ भी कहते हैं,” वह उच्छृंखल है, बाद में सुधर जाएगा ।
राजा सत्यव्रत की पत्नी का नाम सत्यरथा था। उससे हरिश्चन्द्र पुत्र हुआं उसका पालन-पोषण शिक्षा-दीक्षा आदि गुरु वसिष्ठ ने ही सम्पन्न की।
Raja Anrunya

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा अनरण्य
यह राजा संभूत का पुत्र था । इसके शासन काल में रावण ने अयोध्या पर आक्रमण कर दिया था। इसने रावण के अमात्य मरीच, शुक सारण तथा प्रहस्त को पराजित कर दिया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार अनरण्य युद्ध त्याग कर तप करने लग गया। उस समय रावण ने उसे मार दिया। उसने उन्हें भी द्वन्द युद्ध करने अथवा पराजय स्वीकार करने के लिये ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ किन्तु ब्रह्माजी के वरदान के कारण रावण उनसे पराजित न हो सका। जब अनरण्य का शरीर बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो गया तो रावण इक्ष्वाकु वंश का अपमान और उपहास करने लगा। इससे कुपित होकर अनरण्य ने उसे शाप दिया कि तूने अपने व्यंगपूर्ण शब्दों से इक्ष्वाकु वंश का अपमान किया है, इसलिये मैं तुझे शाप देता हूँ कि महाराज इक्ष्वाकु के इसी वंश में जब विष्णु स्वयं अवतार लेंगे तो वही तुम्हारा वध करेंगे। “यदि मेरा तप, दान, यश आदि सच्चा है तो मेरा वंशज श्री राम तेरा कुलनाश करेगा।” यह कह कर राजा स्वर्ग सिधार गये।
उपरोक्त कथन काल्पनिक प्रतीत होता है। क्योंकि दशरथ सुत श्रीराम चन्द्र राजा अनरण्य से लगभग 35 पीढ़ियाँ बाद हुए हैं । अनरण्य के पश्चात् अयोध्या के निम्न राजा हुए हर्यश्व, वसुमत, त्रिधन्वम्, त्रैय्यारूण आदि ।
Raja Muchkund

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा मुचुकुंद
पुरुकुत्स के विरक्त होने के पश्चात् सम्राट मांधाता के द्वितीय पुत्र मुचुकुंद ने नर्मदा के तट पर ऋक्ष और पारियात्र पर्वतों के बीच एक नगर बसाया और वहीं रहने लगा। मांधाता के तीन बेटे थे, अमरीश, पुरु और मुचुकुंद। मुचकुंद ने असुरों के खिलाफ लड़ाई में देवताओं की मदद की और विजयी हुए। देवासुर युद्ध में इंद्र ने महाराज मुचुकुंद को अपना सेनापति बनाया था। युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद। कई दिनों तक युद्ध करने के बाद जब मुचुकंद थक गए तो महाराज मुचुकुंद ने आराम करने की इच्छा जताई तो देवताओं ने उन्हें अनिश्चित काल तक सोने का वरदान दिया। एक बार राजा मुचुकुंद ने कुबेर पर आक्रमण कर दिया। कुबेर ने राक्षसों की सहायता से इस की सारी सेना नष्ट कर दी। इस ने अपनी हार का दोष गुरूओं पर लगाया गुरू वशिष्ठ ने घोर परिश्रम के पश्चात् राक्षसों की समाप्ति की । कुबेर ने ताना देते हुए मुचुकुंद से कहा, “अपने शौंर्य से मुझे जीतों, ऋषियों की सहायता क्यों लेते हो?” मुचुकुंद ने तर्क पूर्ण उत्तर दिया, “ तप और मंत्र का बल ब्राह्मणों के पास है। शस्त्र विद्या क्षत्रियों के पास राजा का कर्त्तव्य है कि वह दोनों शक्तियों का उपयोग करके राष्ट्र का कल्याण करे”। देवासुर संग्राम में राजा मुयुकुंद ने देवों का साथ दिया । दैत्य हार गए। इस की वीरता से प्रसन्न होकर देवों ने इसे वर मांगने को कहा । वह थकावट के कारण एक गुफा में सोया हुआ था । निद्रित अवस्था में ही इस ने कहा, “मुझे नींद से जो जगाए, वह भस्म हो जाए ।” कुछ समय पश्चात् कृष्ण काल यवन राक्षस से बचा हुआ गुफा में आ गया। उसने अपना उत्तरीय मुचुकुंद पर डाल दिया, और स्वयं एक ओर छिप गया। काल यवन भी कृष्ण का पीछा करता हुआ वहां आ पहुंचा उसने पूरे बल कृष्ण समझकर, मुचुकुंद को टांग मारी । मुचुकुंद क्रोध से आग बगूला हो गया, ज्योंही उसने काल यवन को देखा। वह खत्म हो गया । कृष्ण ने उसे क्षत्रिय धर्म निबाहने तथा अपनी नगरी में जाने को कहा। इस की अनुपस्थिति में हैहय राजा ने इस की नगरी पर अधिकार कर लिया था। वहां जाकर इसने देखा कि प्रजा भ्रष्ट हो गई। वह बहुत दुःखी हुआ तथा हिमालय में बदरिका आश्रम में तपस्या करने लगा। वहीं उसने अपना शरीर त्याग दिया । मुचुकुंद के साथ श्री कृष्ण की घटना काल्पनिक लगती है, क्योंकि श्री कृष्ण महाभारत काल में हुए हैं। उस समय ईक्ष्वाकु वंश का राजा वृहद्बल अयोध्या का राजा था । मुचुकुंद वृहदृबल से कई पीढ़ियाँ पहले हुआ है। मुचकुंद, ने असुरों से युद्ध कर, देवताओं को विजयश्री दिलाई थी। जब कई दिनों तक लगातार युद्ध करने के कारण मुचुकंद थक गए, तब देवताओं ने उन्हें अनिश्चित समय तक शयन करने का वरदान दिया था। त्रेता युग में महाराजा मान्धाता के तीन पुत्र हुए, अमरीष, पुरू और मुचुकुन्द। युद्ध नीति में निपुण होने से देवासुर संग्राम में इंद्र ने महाराज मुचुकुन्द को अपना सेनापति बनाया। युद्ध में विजय श्री मिलने के बाद महाराज मुचुकुन्द ने विश्राम की इच्छा प्रकट की।
Raja Purukuts

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा पुरुकुत्स
सम्राट मांधाता की मृत्यु के पश्चात् उन के ज्येष्ठ पुत्र पुरुकुत्स गद्दी पर बैठे। राजा पुरुकुत्स एक पराकर्मी राजा थे ।
वह मान्धाता के तीन पुत्रों में सबसे बड़े थे ।
नाग वंश के राजा वृष्णाग पर श्वेतासुर ने आक्रमण किया था।
वृष्णाग ने पुरुकुत्स से मदद मांगी। जिसके कारण उन्होंने अपने बड़े पुत्र पुरुकुत्स को मान्धाता से युद्ध लड़ने के लिए भेजा। पुरुकुत्स ने राक्षस राजा को मार डाला और युद्ध जीत लिया।
पुरुकुत्स ने नागजाति के शत्रु मौनेय गंधवों को भी पराजित किया। वृष्णाग ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री रेवा से विवाह किया। बाद में पुरुकुत्स ने रेवा का नाम बदलकर नर्मदा कर दिया। इसके तीन पुत्र वसुद, त्रसदस्यु, और अनरण्य । विरक्त होने पर वह कुरुक्षेत्र के वन में तपस्या करने चला गया ।
पुरुकुत्स के जीवन पर पौराणिक कथा
एक बार भगवान ब्रह्मा का समुद्र देवता से युद्ध हुआ। ब्रह्मा समुद्र देवता से क्रोधित हो गया और उसे मनुष्य जन्म लेने का श्राप दे दिया। परिणामस्वरूप, समुद्र देवता राजा पुरुकुत्स के रूप में मानव रूप में पृथ्वी पर प्रकट हुए।
पुरुकुत्स ने एक बार अपने राज्य में रहने वाले सभी ऋषियों को बुलाया और उनसे पूछा कि स्वर्ग में सबसे अच्छा पवित्र स्थान कौन सा है।
ऋषियों ने उन्हें बताया कि रेवा सबसे अच्छा तीर्थ है। उन्होंने उसे बताया कि रेवा परम पवित्र स्थान है और शिव को भी प्रिय है।
राजा ने कहा, “फिर हमें उस पवित्र रेवा को धरती पर उतारने का प्रयास करना चाहिए। कवियों और देवताओं ने असमर्थता व्यक्त की। उन्होंने कहा: वह हमेशा शिव की उपस्थिति में हैं। भगवान शिव भी उन्हें अपनी पुत्री मानते हैं और वे उन्हें त्याग नहीं सकते। लेकिन पुरुकुत्स का संकल्प अटूट था। वह विंध्य के शिखर पर गया और अपनी तपस्या शुरू की। पुरुकुत्स की कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और राजा से वरदान मांगने को कहा। पुरुकुत्स ने कहा: आपको परम पवित्र स्थान नर्मदा को पृथ्वी की सतह पर अवतरित करना चाहिए। उस रेवा के पृथ्वी पर अवतरण के अतिरिक्त मुझे आपसे और कुछ नहीं चाहिए। भगवान शिव ने पहले राजा को बताया कि यह कार्य असंभव है, लेकिन जब शंकरजी ने देखा कि उन्हें कोई दूसरा पति नहीं चाहिए, तो भगवान भोलेनाथ उनकी निस्वार्थता और दुनिया के कल्याण की इच्छा से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने नर्मदा को पृथ्वी पर उतरने का आदेश दिया। नर्मदाजी ने कहा, “यदि पृथ्वी पर मुझे धारण करने वाला कोई है और आप मेरे निकट होंगे, तो मैं भूमि पर उतर सकती हूँ। शिव ने स्वीकार किया कि वे सर्वत्र नर्मदा के सान्निध्य में रहेंगे। आज भी नर्मदा का प्रत्येक पत्थर प्रतीक है। भगवान शिव की छवि और नर्मदा के पवित्र तट को शिवक्षेत्र कहा जाता है। जब भगवान शिव ने पहाड़ों को नर्मदा को धारण करने की आज्ञा दी, तो विंध्याचल के पुत्र पर्यंका, नर्मदा को धारण करने के लिए सहमत हुए। मेकल नामक पर्यंक पर्वत के शिखर से, माँ नर्मदा एक बाँस के पेड़ के भीतर से प्रकट हुईं। इसी कारण उनका नाम ‘मेकलसुथा’ पड़ा। देवताओं ने आकर प्रार्थना की कि यदि आप हमें स्पर्श करेंगे तो हम भी पवित्र हो जाएँगे। नर्मदा ने उत्तर दिया, “मैं अभी तक कुँवारी हूँ, इसलिए मैं नहीं रहूँगी। किसी मनुष्य को छू ले, परन्तु यदि कोई मुझे हठ करके छूए, तो वह जलकर भस्म हो जाएगा।
अत: आप पहले मेरे लिए योग्य पुरुष का निर्धारण करें। देवताओं ने उससे कहा कि राजा पुरुकुत्स तुम्हारे योग्य है, वह समुद्र का अवतार है और नदियों का शाश्वत स्वामी समुद्र है। वे उनके अंश हैं, जो स्वयं नारायण के अंगों से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए आपको उनकी पूजा करनी चाहिए। नर्मदा ने राजा पुरुकुत्स को पति रूप में लिया तब राजा की आज्ञा से नर्मदा ने अपने जल से देवताओं को पवित्र किया।त्रसदस्यु राजा पुरुकुत्स व रानी नर्मदा का पुत्र था त्रसदस्यु का पुत्र संभूत था ।
Raja Mandhata

राजा मांधाता
इक्ष्वाकु वंश का पच्चीसवाँ राजा मांधाता हुआ है । इस का समय लगभग तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। ऋग्वेद में इस का कई बार उल्लेख आया है। वहां मांधाता को ऋषि अंगिरा की तरह पवित्र कहा गया है। मांधाता के पिता राजा युवनाश्व द्वितीय थे। वे बहुत दानी राजा थे, उन्होंने अपनी अपार सम्पत्ति ऋषि आश्रमों में दान दे दी थी। मांधाता की माता गौरी पौरव राजा मतिनार की पुत्री थी । उसकी बहिन कावेरी कान्यकुब्ज के राजा जन्हु को व्याही गई थी। मांधाता अयोध्या पर राज्य करते थे। यादव नरेश शशबिंदु की कन्या बिंदुमती इनकी पत्नी थीं, जिनसे मुचकुंद, अंबरीष और पुरुकुत्स नामक तीन पुत्र और 50 कन्याएँ उत्पन्न हुई थीं।
मांधाता ने ऋषि उतथ्य से राजधर्म का उपदेश प्राप्त किया। यह उपदेश उतथ्य – गीता’ में संग्रहीत है। ऋषि वसुदण्ड से इसने दण्ड नीति सीखी। अन्य कई ऋषियों से इसने विभिन्न विधाएं सीखीं तथा दिव्यास्त्रों का प्रशिक्षण लिया ।
मान्धाता एक महत्वाकांक्षी राजा थे। वह दुनिया को जीतना चाहता था। उसके आक्रामक तेवर को देखकर इंद्र सहित देवता बहुत घबरा गए। इंद्र ने अपना आधा राज्य मान्धाता को देने की पेशकश की, लेकिन वह नहीं माना।
उन्होंने पूर्ण इंद्रलोक राज्य की इच्छा की।
इंद्र ने उन्हें अवगत कराया कि पूरी पृथ्वी भी उनके अधीन नहीं है, लवणासुर उनकी बात नहीं सुन रहा है। मान्धाता लज्जित होकर मृत्युलोक लौट आया। इसके बाद लवणासुर और मान्धाता की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। लवण ने अपने त्रिशूल से राजा मान्धाता को मार डाला और उनकी सेना को हरा दिया
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राजा मांधाता का विवाह यादव राजा शशविन्दु की बेटी बिन्दुमति से हुआ। इसके तीन पुत्र पुरूकुत्स, अम्बरीश और मुचुकुंद थे। इसने यादव राजाओं के अतिरिक्त हैहय, द्रयु, आनव आदि को जीत लिया था । हैह्य राजा दुर्दम बहुत पराक्रमी था। उसने मध्य भारत में धाक जमा रखी थी। मांधाता ने उसे परास्त करने के पश्चात् मरूत, गय और वृहद्रथ राजाओं की विशाल सेनाओं को नष्ट कर के उन पर विजय पाई । द्रह्यु राजा रिपु निरन्तर चौदह मास युद्ध करने के पश्चात् उसके हाथों मारा गया । समस्त पृथ्वी को जीतने के पश्चात् गुरू वशिष्ठ के आदेशानुसार इसने सौ राजसूय तथा सौ अश्वमेघ यज्ञ किए । विष्णु पुराण में इस की वीरता का उल्लेख इस प्रकार है :
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“जहाँ तक सूर्य उदय होता है और जहाँ तक ठहरता है, वह सारा भू-भाग युवनाश्व पुत्र मांधाता का क्षेत्र है।” पद्य पुराण में राजा मांध आता को दयालु और प्रजापालक कहा गया है। एक बार इसके राज्य में अकाल पड़ गया । सब ओर हाहाकर मच गया। वर्षा न होने का कारण एक वृषल द्वारा तपस्या करना कहा गया और इसे सुझाव दिया गया कि उस तपस्वी का वध कर दिया जाए तो वर्षा हो सकती है, परन्तु मांधाता ने कहा, “प्रत्येक व्यक्ति को तपस्या का अधिकार है। अतः तपस्वी का वध अनुचित है।” उसने एकादशी व्रत रखने आरम्भ कर दिए । वर्षा होने पर अकाल समाप्त हो गया । समस्त प्रजा पुनः सम्पन्न हो गई। वह मांस भक्षण के बहुत विरूद्ध था।
ऋषि-मुनियों की गोष्ठियों में राजा मांधाता सदैव भाग लेता था । वायु पुराण के अनुसार वह क्षत्रिय था, परन्तु विद्वता के कारण ब्राह्मण कहलाने लगा। विदेशी विद्वान लुडविग ने धार्मिकता के कारण इसे राजर्षि कहा है। सभी राजाओं को जीतने के पश्चात् मांधाता ने इन्द्र पर आक्रमण कर दिया । इन्द्र स्वयं युद्ध में शामिल नहीं हुआ । उसने इसका सामना करने के लिए लवणासुर को भेज दिया। लवणासुर के हाथों सम्राट मांधाता की मृत्यु हो गई।
Raja Yuvnasch Dvitiya

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा युवनाश्व (द्वितीय)
युवनाश्व (द्वितीय) का जन्म 3400 BC में हुआ था
युवनाश्व अयोध्या के ईकश्वाकु वंश का चौबीसवां राजा था । इसकी सौ रानियाँ थीं । विष्णु व वायु पुराण के अनुसार युवनाश्व द्वितीय प्रसेनजित का पुत्र और रेनुका का भाई था ।
इसकी पटरानी का नाम गौरी था जो चन्द्रवंशी राजा मतिनार की बेटी थी । पुत्र प्राप्ति के लिए इसने भृगु ऋषि को अध्वर्यु बना कर यज्ञ किया। नर्मदा की सहायक नदी कावेरी है। नदी के नाम पर इस राजा ने अपनी बेटी का नाम कावेरी रखा। अपने पूर्ववर्ती राजा रैवत से युवनाश्व को एक दिव्य खड्ग प्राप्त हुई थी, जिसका उपयोग इसके वंशज रघु ने किया था। यह राजा बहुत दानी था । इसने अपनी समस्त सम्पत्ति रानियों को और साम्राज्य ब्राह्मणों को दे दिया था । ऋग्वेदा दशम मंडल में इस राजा का वर्णंन है। पुराणो के अनुसार उनके तीन पुत्र थे जिनका नाम पुरुकुत्सा , अम्बारिशा और मुचुकुन्दा था ।
Raja Prsenjit

अयोध्या के प्रमुख राजा
राजा प्रसेनजित
प्रसेनजित रेणु (प्रथम) अयोध्या के सूर्यवंशी राजा थे। वह राजा कृशाश्व के पुत्र थे ।
सूर्यवंश भारत का सबसे पुराना क्षत्रिय वंश है जिसे आदित्यवंश, मित्रवंश, अर्कवंश, रविवंश इत्यादी नामो से जाना जाता है । आदि। प्रारंभिक सूर्य वंशी सूर्य को अपना कुल-देवता मानते थे और मुख्य रूप से सूर्य-पूजा करते थे। सौर जाति की राजधानी अयोध्या थी।
महाराज प्रसेनजित् का शरीर अत्यन्त गौरवर्ण था। उन्होने अपनी बड़ी-बड़ी मूंछे बड़े यत्न से संवारी गई थीं वह कोमल फूलदार कौशेय और कण्ठ, भुजा और मणिबंध पर बहुमूल्य रत्नाभरण पहनते थे। वह एक पराकर्मी और संवेदनशील राजा थे ।
इनकी बेटी रेणुका परशुराम की मां थी । रेणुका राजा प्रसेनजित अथवा राजा रेणु की कन्या परशुराम की माता और जमदग्नि ऋषि की पत्नी थी जिनके पाँच पुत्र थे। रुमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वावसु तथा परशुराम।
एक बार सद्यस्नाता रेणुका राजा चित्ररथ पर मुग्ध हो गयी। उसके आश्रम पहुँचने पर मुनि को दिव्य ज्ञान से समस्त घटना ज्ञात हो गयी। उन्होंने क्रोध के आवेश में बारी-बारी से अपने चार बेटों को माँ की हत्या करने का आदेश दिया। किंतु कोई भी तैयार नहीं हुआ। जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़बुद्ध होने का शाप दिया। परशुराम ने तुरन्त पिता की आज्ञा का पालन किया। जमदग्नि ने प्रसन्न होकर उसे वर माँगने के लिए कहा। परशुराम ने पहले वर से माँ का पुनर्जीवन माँगा और फिर अपने भाईयों को क्षमा कर देने के लिए कहा। जमदग्नि ऋषि ने परशुराम से कहा कि वो अमर रहेगा। कहते हैं कि यह पद्म से उत्पन्न अयोनिजा थीं। प्रसेनजित इनके पोषक पिता थे। उनके राज्य उत्तरकोशला की राजधानी अयोध्या सबसे पहिली नगरी है। उस समय मगध साम्राज्य में अस्सी हज़ार गांव लगते थे और राजगृह एशिया के प्रसिद्ध छ: महासमृद्ध नगरों में से एक था। यह साम्राज्य विंध्याचल, गंगा, चम्पा और सोन नदियों के बीच फैला हुआ था, जो 300 योजन के विस्तृत भूखण्ड की माप का था । वह अपने छोटे-से गणतन्त्र को मगध साम्राज्य में मिलाना चाहते थे क्यो की मगध में आपाद अशांति और अव्यवस्था थी !
राजा प्रसेनजित ने अयोध्या में वेश्यावृती को ना केवल रोका परंतू सब असहाय महिलाओं को देवी के रूप में स्थान दिया।
Raja Kuvlyav
