ancient indian history

Dharm Shastr

धर्मशास्त्र के व्याख्याकार

धर्मशास्त्र साहित्य के विकास के स्पष्ट तीन युग हैं। धर्मशास्त्र का सम्पूर्ण सूत्रसाहित्य, गौतम से लेकर सुमन्तु के धर्मसूत्र तक, प्राचीनतम युग में रचा गया। इसी काल में मानव धर्म सूत्र, जो आज उपलब्ध नहीं है, रचा गया। इन युग को डा. पाण्डुरंग वामन काणे ने ६००ई० पू० से लगभग ईसा के जन्मकाल तक निर्धारित किया है। परन्तु यह निर्णय अन्तिम नहीं माना जा सकता। वास्तव में संस्कृत सहित्य के कालनिर्णय के सभी प्रयास पाश्चात्य विद्वानों के पूर्वाग्रहों से प्रभावित हैं, तथा वास्तविकता से दूर हैं। इतना ही यहां कहना पर्याप्त है कि कल्पसूत्रों को, जिनमें धर्मसूत्र सम्मिलित हैं, रचना ब्राह्मण काल के अन्तिम चरण में आरम्भ हो गई थी । इसी प्रकार सूत्रकाल के अन्तिम चरण में धर्मशास्त्र के स्मृति साहित्य का आविर्भाव आरम्भ हो गया था । सम्भवतः वर्तमानकाल में उपलब्ध मनुस्मृति इस दूसरे युग के आरम्भिक वर्षों की रचना है। स्मृति युग को डा. काणे ने ईसा के जन्म से ४००ई० पूर्व तक रखा है। मेरे विचार में स्मृति युग का भी आरम्भ ईसा के जन्म से बहुत पहले हो चुका था। स्मृति युग का सम्पूर्ण साहित्य पद्य में है। धर्मशास्त्र पर टीका व निबन्ध साहित्य तीसरे युग की देन है। यह युग भी स्मृतियुग के अन्तिम चरण के समाप्त होने से पूर्व ही आरम्भ हो गया था । वास्तव में, प्रत्येक युग का अन्तिम चरण, आगामी युग के प्रथम चरण के समानान्तर चलता रहा है। इस प्रकार, तीसरा युग ७०० ई० प० से आरम्भ होकर १८०० ई० तक चालू रहा। प्रस्तुत लेख का विषय इसी तीसरे युग का साहित्य है।
टोका- निबन्ध में आरम्भ से अन्त तक युग स्मृतियों पर टोकाएं अथवा भाष्य तथा निबन्ध लिखे जाते रहे। इनमें कुछेक, यथा याज्ञवल्क्य पर मिताक्षरा टोका तथा जीमूतवाहन का दायभाग नामक निबन्ध, हिन्दू कानून के प्रामाणिक ग्रंथों के रूप में इस देश के न्यायालयों में प्रायः वर्तमान काल तक मान्य रहे हैं। परन्तु ईसा की बारहवीं सदी में टोका-साहित्य के साथ-साथ एक विशेष प्रकार के ग्रंथ लिखे जाने लगे जिन्हें निबन्ध का नाम दिया गया है। ये किसी स्मृति विशेष पर भाष्य न होकर स्वतन्त्र ग्रंथ हैं, जिनमें पूर्वलिखित ग्रंथों के सिद्धान्तों का सार निबन्ध रूप प्रस्तुत किया गया है। वास्तव में ये निबन्ध भाष्यों से ही विकसित हुए हैं। भाष्यों अथवा टीकाओं में टीकाकार प्रसंगवश अन्य ग्रंथों के मत भी उद्धृत करते ही रहे हैं, परन्तु भाष्य का प्रवाह मूल स्मृति से बँध कर चला है। निबन्धों में विषयों के विकास में किसी स्मृति विशेष का सहारा लेने की परम्परा छोड़ दी गई है। फिर भी दोनों को विभाजक रेखा स्पष्ट नहीं है। कुछेक ग्रंथ ऐसे भी हैं जिन्हें टीका भी कहा जा सकता है, निबन्ध भी । अत: दोनों प्रकार की रचनाओं का साधारणतया अवलोकन एकत्र ही किया जाता है। असहाय में असहाय ने गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा नारद स्मृति पर भाष्य लिखे थे। इनमें केवल नारद १. पृष्ठ ३५
२. मैसूर संस्करण, अनुच्छेद ८३ तथा पृष्ठ ३४८
[जून-जुलाई, १९७४]
भाष्य का हो एक अंश उपलब्ध है, वह भी कल्याण भट्ट द्वारा संशोधित रूप में यह साध्य केवल पांचवें पाद के २१वें श्लोक तक ही सुलभ है। असहाय के गौतम साध्य के अस्तित्व का पता अनिरुद्ध ( १९६८ ई०) की हार लता से चलता है। विश्वरूप भी गौतम के एक सूत्र का असहाय भाष्य उद्धृत किया है। असहाय की मनु-टोका की ओर सरस्वती विलास, विवाद रत्नाकर और मेधा तिथि संकेत करते हैं ।
विश्वरूप का काल ७०० ई० के आस-पास है। और मेवातिथि ईसा की नवम शताब्दी में हुआ अतः असहाय का काल सप्तम शताब्दी ई० ५० रखा जा सकता है ।
विश्वरूप —
विश्वरूप की याज्ञवल्क्य स्मृति पर बालक्रीडा नामक टीका त्रिवेन्द्रम संस्कृत ग्रंथ माला में प्रकाशित हो चुकी है। इसमें आचार और प्रायश्चित्त विषयों पर टोका बहुत विस्तृत है, परन्तु व्यवहाराध्याय पर अत्यन्त संक्षिप्त । शंकराचार्य की टीकाओं का इसमें उल्लेख है, ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और छान्दोग्य उपनिषद् से उद्धरण दिये हैं। ऋग्वेद के पदपाठ बोर क्रमपाठ का भी उल्लेख है। पारस्कर, भारद्वाज, ओर आश्वलायन के गृह्यसूत्रों को अनेक स्थानों पर उद्धृत किया गया है। अनेक स्मृतिकारों का नाम से उल्लेख है, यथा, अङ्गिय, पत्रि, आपस्तम्ब, उशना, कात्यायन, कावयप, गार्ग्य, वृद्धगार्ग्य, गौतम, जातुकर्ण, दक्ष, नारद, पराशर, पारस्कर, पितामह, पुलस्त्य पैठीनसि बृहस्पति, बौधायन, भारद्वाज, भृगु, मनु, वृद्धमतु, यम, याज्ञवल्क्य वृद्धयाज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, विष्णु, व्यास, शङ्ख, शातालप शौनक, , संवर्त, सुमन्तु, स्वयम्भु ( अर्थात् मनु ) तथा हारीत। बृहस्पति, विशालाक्ष तथा उशना के अर्थशास्त्रों से उद्धरण दिये हैं; परन्तु कौटिल्य से नहीं ।
विश्वरूप काही अपर नाम सुरेश्वराचार्य था और वे शंकर के शिष्य थे, ऐसा रामतीर्थ की मानसोल्लास वृत्ति में स्पष्ट लिखा है। गुरुवंशकाव्य ने भी
३. पृ. ५८३ |
४. “मदर्शयित्वा तत्रैक…” इत्यादि श्लोक पर
सुरेश्वर और विश्वरूप को एक ही व्यक्ति माना है और उसे कुमारिल तथा शंकर का शिष्य कहा है। शंकराचार्य का समय ७८८, २०३० प० माना जाता है। अतः विश्वरूप सुरेश्वर का काल लगभग ८००, ५५० ६० प० होगा ।
धर्मशास्त्र के व्याख्याकार
विश्वरूप के श्राद्धकलिकामाण्य तथा विश्वरूपसमुच्चय अथवा विश्वरूप-निबन्ध के भी प्रमाण मिलते हैं। परन्तु ये ग्रन्थ अब उपलब्ध नहीं । मेधातिथि –
मेधातिथि मनुस्मृति के प्राचीनतम भाष्यकार हैं। यह भाष्य विशालकाय तथा गम्भीर है। इसमें अनेक भूतपूर्व ग्रन्थकारों के मत उद्धृत हैं। यथा धर्मशास्त्रकार गौतम, बौधायन, आपस्तम्ब, वसिष्ठ, विष्णु, शंख, मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन आदि, दण्डनीतिकार बृहस्पति, उशना, और चाणक्य, टीकाकार असहाय, भर्तृयज्ञ यज्वन्, उपाध्याय आदि तथा पुराणकार व्यास मेधातिथि का भाष्य पूर्वमीसांसा की परिभाषाओं से भरा पड़ा है। मौमांसक विष्णुस्वामी के मत तथा शबरभाष्य के स्थल उद्धृत किये गये हैं। निःसन्देह मेधातिथि ते मीमांसा का गम्भीर अध्ययन किया था । शंकराचार्य के वेदान्तसूत्र भाषा तथा उपनिषद् भाग्य में से मेधातिथि ने मत उद्धृत किये हैं। अन्य स्थलों से भी स्पष्ट है कि वह शंकर भाष्यों से परिचित था । मितक्षरा में मेधातिथि के मत का उल्लेख है। शंकर का काल ७८८८२० ई० है | अत: मेधातिथि का काल लगभग ८२५ से २०० ई० के मध्य निश्चित होगा।
मेधातिथि ने स्मृति विवेक नामक स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखा था, जो अब उपलब्ध नहीं। यह पद्म में था। इसमें से उद्धरण उसने अपने भाष्य में दिये हैं। पराशर माघवीय में कई श्लोस स्मृतिविवेक अथवा मेघातिथि के नाम से उद्धत हैं। लोल्लट के श्राद्ध प्रकरण, तिथिनिर्णय सर्वसमुच्चय, तथा विश्वेश्वर सरस्वती के यतिधर्म संग्रह में मेधातिथि के इस ग्रन्थ के उद्धरण है। विज्ञानेश्वर याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर-रचित मिताक्षरा १. याज्ञवल्क्य २. ११२ ओर ३ २४ पर टीका साधारणतया मिताक्ष टोका धर्मशास्त्र साहित्य में अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रंथ रहा है। प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू के अभिभावकत्व में हिन्दू कोड बिल पास होने तक बंगाल को छोड़ कर सम्पूर्ण भारत के न्यायालयों में हिन्दू कानून पर मिताक्षरा को प्रामाणिक माना जाता रहा है। बंगाल में दायभाग मान्य रहा है। ग्रन्थ को पुष्पिकाओं में कई जगह टोका का नाम ऋजुमिताक्षरा अथवा प्रमिताक्षरा भी दिया है। परन्तु ये नाम छन्द की आवश्यकता के अनुसार वास्तविक नाम मिताक्षरा के प्रबुद्ध रूप हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति की नाम के अनुरूप संयत तथा मूल से अनुबद्ध टीका है। परन्तु कई स्थलों पर विज्ञानेश्वर ने अनेक भूतपूर्व शास्त्रकारों तथा टीकाकारों को उद्धृत करते हुए विषयों का अवश्यकतानुसार अत्यन्त विस्तार से प्रतिपादन किया है। पूर्वमीमांसा की व्याख्या पद्धति का अनुसरण करते हुए तथा स्मृतियों के परस्पर विरोधी मतों का समन्वय करते हुए विषय में व्यवस्था स्थापित की है। ऐसे स्थलों पर मिताक्षरा एक स्वतन्त्र निबन्ध सा जान पड़ती है। पूर्वकालीन धर्मशास्त्रों तथा टीकाकारों में शायद ही कोई ऐसा हो जिस का मत विज्ञानेश्वर ने उद्धृत न किया हो । निम्न स्मृतियों या स्मृतिकारों को नामोल्लेखपूर्वक उद्धृत किया गया है:- अङ्गिरा, बृहदङ्गिरा, सध्यमाङ्गिरा, अत्रि, आपस्तम्ब, भाइवलायन उपमन्यु, उशना ऋष्यशृङ्ग कश्यय काण्व, कास्यायन, कृष्णजिति कुमार, कृष्णद्वैपायन, ऋतु, गार्ग्य, गृह्य परिशिष्ट, गोभिल, गौतम, चतुर्विशतिमत, व्यवन, छागल अथवा छागलेय, जमदग्नि, जातूइर्ण्य, जाबाल जैमिनि, दक्ष, दीर्घतमा, देवल, धौम्प, नारद, पराशर, पितामह, पुलस्य, पैंङघ, पैठोनसि, प्रचेता, बृहत् चेता, वृद्धप्रचेता, प्रजापति, बाष्कल, बृहस्पति, वृद्धवृहस्पति, बोधायन, ब्रह्मगर्भ, ब्राह्मवध भारद्वाज, भृगु, मनु, वृहन्मनु, मरीचि, मार्कण्डेय, यम, बृहद्यम, याज्ञवल्क्य, बृहद्याज्ञवल्क्य, वृद्धयाज्ञवल्क्य लिखित, लौगाक्षि वसिष्ठ, बृहद्वसिष्ठ, वृद्धवसिष्ठ, विष्णु, बृहृविष्णु, बुद्धविष्णु वैयाघ्रपाद, वैशम्पायन, व्याघ्र (पाद) , २. मनु २.६।

विश्व-ज्योति
व्यास, बृहृद्व्यास, शङ्ख, शङ्खलिखित शाण्डिल्य, शा ताप, बृहच्छातात, वृद्धशातातप, शुनःपुच्छ, शौनक, पनिशम्मत, संवत, बृहत्संवर्त, सुमन्तु हारीत बृहद्धारीत वृद्धहारीत टीका तथा निबन्धकारों में से असहाय, विश्वरूप, मेघातिथि, श्रीकर, भारु च तथा भोजदेव को उद्धृत किया गया है। इनके काठक- संहिता, बृहदारण्यकोपनिषद्, गर्भोपनिषद्, डाबालोपनिषद्, निरुक्त, भरत नाय शास्त्र, योगसूत्र, पाणिनि, सुश्रुत, स्कन्द पुराण, विष्णु पुराण, अमरकोश तथा गुरु ( अर्थात् प्रभाकर ) से भी उदाहरण दिये गये हैं। निःसन्देह विज्ञानेश्वर का अध्ययन अत्यन्त विस्तृत था।
ग्रन्थ के अन्तिम श्लोकों में अपना परिचय
विज्ञानेश्वर में इस प्रकार दिया है उनके पिता भारद्वाज गोत्रीय पद्मनाभ भट्ट थे | गुरु का नाम उत्तम था टीका रचना उन्होंने क्षितिषति विपार्क के राज्यकाल में कल्याणपुर में को यह विक्रमार्क कर्णाटक के चालुक्य राजा विक्रमादित्य षष्ठ माने जाते हैं, जिनकी जीवन-कथा विल्हण कवि ने “विक्रमांक देवचरित” नामक ऐतिहासिक महाकाव्य में लिखी हैं । इनको राजधानी कल्याणी थी । विक्रमादित्य षष्ठ का राज्यकाल १०७६ से १११७६० तक था । ‘ इन्हीं पचास वर्षों के बीच मिताक्षरा की रचना निश्चित की जा सकती है। मिताक्षरा में मेधातिथि (८२५ से १०० ६० ) तथा घारेश्वर अर्थात् भोज ( १००० से १०५५ ६० ) का उल्लेख है, तथा लक्ष्मीधर के कल्पतरु ( लगभग ११२५-५० ६० ) में विज्ञानेश्वर का नामोल्लेख है। इन प्रमाणों से भी मिताक्षरा का रचनाकाल १०७६ से ११२५ ई० के बीच ही सिद्ध होता है |
गोविन्दराज –
गोविन्दराज की मनु-टीका नामक मनुस्मृति-भाव्य प्रकाशित हो चुका है। गोविन्दराज ने स्मृति मञ्जरी नामक एक निबन्ध ग्रंथ भी लिखा था, जिसका १५२ पन्नों का एकांश इण्डिया आफिस पुस्तकालय सुरक्षित है। इस अंश का विषय केवल प्रायश्चित्त है ।
(जून-जुलाई, १९७४ |
स्मृतिमंजरी में अन्य काण्डों यथा संस्कारकाण्ड, अभयकाण्ड श्राद्धकाण्ड आदि भी बहुधा उद्धृत किये गए हैं। निःसंदेह स्मृतिमन्जरी में धर्मशास्त्र के सभी विषयों पर विस्तार से लिखा गया था। प्रायश्चित्त काण्ड के १५२ पन्नों से स्पष्ट है कि सम्पूर्ण ग्रन्थ अत्यन्त विशालकाय था ।
मिताक्षरा में भोजदेव ( १०००-१०५५ ई० ) का सो उल्लेख है, परन्तु गोविन्दराज का नहीं । अतः गोविन्दराज के ग्रंथ मिताक्षरा के समकालीन अथवा बाद के हैं। अनिरुद्ध को हारलता में (११६० ई०) गोविन्दराज को बड़े सम्मान से विश्वरूप, भोजदेव तथा कामधेनुकार के साथ उद्धृत किया गया है । दायभाग तथा जीमूतवाहन के अन्य ग्रंथ, व्यवहारमातृका में तथा कुल्लू कभट्ट की मनु टोका में मंजरी का उल्लेख है। यह निश्चय ही धर्मशास्त्र साहित्य को प्राचीनतम मज्जरी,
गोविन्दराज की स्मृतिमञ्जरी है। ये सब प्रमाण गोदिग्दराज का काल १०५० से ११००ई० के बीच निर्धारित करते हैं ।
अपर्क अथवा अपरादिस्य –
याज्ञवल्क्य स्मृति पर अपरार्क की विशालकाय टीका, अपरार्क-याज्ञवल्कीय-धर्मशास्त्र – निबन्ध, आनन्दाश्रम प्रेस, पूना से १३०३-४ में दो जिलों में छपी थी। पुडिपक्षाओं में तथा ग्रंथान्त में लेखक का परिचय इस प्रकार दिया गया है। :-
राजा अपरादिश्य, विद्याधर जाति की शिलाहार नामक उपशाखा में उत्पन्न हुए थे और प्रसिद्ध विद्याधर जीमूतवाहन के वंशज थे। शिलालेखों से पता चलता है कि नवम से तेरहवीं शताब्दी तक शिलाहारों की तीन शाखाएं क्रमशः उत्तरी तथा दक्षिणी कोंकण और कोल्हापुर में राज्य करती रही हैं। दक्षिणी कोंकण में कुल दस शिलाहार राजा हुए हैं। इनमें किसी का नाम अपरार्क या अपरादिक्ष्य नहीं था । उत्तरी कोंकण के शिलाहारों में दो राजाओं का नाम अपरादित्यदेव था। इनमें प्रथम के राज्यकाल के अनेक ताम्रपत्र अभिलेख उपलब्ध हुए हैं, यथा शाके १०४६ का
१. यजुदानी, अर्ती हिस्टरी ऑफ़ दी दकन, १९६० पु. ३५५ आदि । 3. बनारस संस्कृत कालिज प्रतिलिपि, पु. ३६२ ।
[जून-जुलाई, १९७४ ]
अपरादित्य का अपना बड़वाली दानपत्र विक्रम सम्बत् ११७६ (१११६-२०ई०प०) का सोमनाथ
पटन का दानपत्र १ इनमें अपशक टीका की पुष्पिकाओं में दिये परिचय से मिलता-जुलता परिचय शिलाहार राजा विक्रमादित्यदेव का दिया गया है। इन दानपत्रों में अपरादित्य के पिता का नाम अनन्तदेव तथा दादा का नाम नागार्जुन दिया गया है। राजा अनन्तदेव का भी शक संवत् १०१६ (१०६४-५ ई०प० ) का दानपत्र प्राप्त हुआ है। अवरादित्य के कुछ अन्य अभिलेख भी प्राप्त हुए हैं। इनमें दी हुई तिथियाँ १११५ और ११३०६० के बीच में पड़ती हैं। अतः अपरार्क को टीका का रचनाकाल इन्हीं पन्द्रह वर्षों में निश्चित किया जा सकता है |

धर्मशास्त्र के व्याख्याकार

मिताक्षरा की अपेक्षा अपरार्क की टीका
अत्यन्त विस्तून है। यद्यपि टोका याज्ञवल्क्यस्मृति के मूलपाठ के साथ चलती है, इसकी शैली निबन्धों की सी है। गृह्यसूत्रों, धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों से जगह जगह प्रमाण उद्धृत किये गये हैं। पुराणों और उपपुरणों से लम्बे-लम्बे रूद्धरण दिये गये हैं। पूर्व गामी टीकाकारों तथा निबन्धकारों के मत तो उद्धृत हैं, परन्तु किसी के नाम का उल्लेख नहीं किया गया । अतः निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि अपरार्क
किस-किस टीका से परिचित था। डा. काणे के मत
में उसको मिताक्षरा (१०५० से ११०० ई० १० ) से जानकारी थी। भाषा, अर्थ व्यक्ति तर्क तथा विषयविन्यास में अपरार्क को टीका मिताक्षरा को समता नहीं कर सकती |
मह के श्रीकण्ठचरित में उल्लेख है कि कुङ्कुणेश्वर अवरादिस्य ने तेजकण्ठ को दूत बनाकर काश्मीर की पण्डित सभा में भेजा था । सम्भवतः इसी दूत ने अपर के टोका का काश्मीर में प्रचार किया। काश्मीरी पण्डितों में अब तक इस टीका का बड़ा सम्मान है। हरदत्त –
हरदत्त ने अनेक ग्रंथों पर सुन्दर टोकाएं लिखी
निबन्धकार का
हैं। इनमें दो धर्मशास्त्रों पर हैं- गौतम धर्मसूत्र पर सिताक्षरा तथा आपस्तम्ब धर्मनून पर उज्ज्वला दोनों ही प्रकाशित हो चुकी हैं। मिताक्षरा नाम के अनुरूप संक्षिप्त है, उज्ज्वला विस्तृत इन टीकाओं में स्मृतियों और पुराणों के मत उधृत हैं, पर किसी टीकाकार या नामोल्लेख नहीं है। हरदत्त की टीकाथों में व्याकरण पर अन्य टीकाकारों की अपेक्षा अधिक बल दिया गया है। पाणिनि के नियमों के अनुसार व्युत्पत्तियां विस्तार से दी गई हैं। गौतम और आप सतम्ब के अपाणितीय प्रयोगों की ओर संकेत किया गया है। संभवतः यही हरदत्त हैं जिन्होंने काशिकावृत्ति पर पदमञ्जरी नामक टीका लिखी थी । हरि (अर्थात् भर्तृहरि) के पदीय की एक
कारिका के व्याख्याता तथा उज्ज्वला और मिताक्षरा के रचयिता को शंकरभट्ट अपने द्वैतनिर्णय में एक ही व्यक्ति मानते हैं |
पदमञ्जरी में हरदत्त के पिता का नाम पद्म ( रुद्र-) कुमार, छोटे भाई का नाम अग्निकुमार और गुरु का नाम अपराजित दिया गया है। उनके ग्रन्थों से पता चलता है कि हरदत्त दक्षिण भारत के रीति-रिवाजों, भाषाओं, विशेषत: तेलगु और नदियों आदि से परिचित थे। वीरमिनोदय में उन्हें दक्षिणी निबन्धकार माना गया है। वे शिवभक्त थे ।
हरदत्त का काल निर्णय कठिन है। वोरमित्रोदय में हरदत्त की मिताक्षरा के कई उद्धरण हैं। मित्र मिश्र ने ओरछा के राजा वीह (१६०५ से १६२७ ई० प० तक) के आदेश से वीरमित्रोदय की रचना की श्री नारायणभट्ट (जन्म १५१३ ई०प०) से अपने प्रयोग र नामक ग्रंथ में हरदत्त की मिताक्षरा में से उद्धरण दिया है। विश्वेश्वरभट्ट (५३७५६० प० ) की याज्ञवल्क्य मिताक्षरा पर सुबोधिनी टीका में उद्धृत कतिचित् स्मृतिपाठ उज्ज्वला के पाठ से मिलते हैं। मृत पति की सम्पत्ति पर विधवा पत्नी के उत्तराधिकार पर हरदत्त का मत विज्ञानेश्वर बादि प्राचीन भाष्यकारों से मिलता है। इनके बाद
?. JB B R A S, XXI, PP. 505-16. 2. Annals of The Bhandarkar Institute, V. 4, p. 169, Indian Antiquary. vol. IX, p. 33.
किसी निबन्ध अथवा भाष्यकार ने इस मत का समर्थन नहीं किया। संभवतः हरदत्त का कार्यकाल विज्ञानेश्वर के निकट था। अत: इनका समय १२०० ई० १० के लगभग माना जाता है ।
हरदत्त की टीकाएं अन्य ग्रंथों पर भी मिलतो हैं: यथा बापस्तम्ब गृह्यसूत्र पर अनाकुला टीका, आश्वलायन गृह्यसूत्र पर अनाविला । आपस्तम्बीय मन्त्रपाठ पर भी उनकी टीका है।
लकुलीश-पाशुपत दर्शन के आचार्य हरदत्त संभवतः भिन्न व्यक्ति थे। भविष्योत्तर पुराण के शिवरहस्य ( श्र० १७ ) के कथापुरुष वासुदेव पुत्र हरदत्त भी भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं । कुल्लूक भट्ट
कुल्लूक को मत्वर्थमुक्तावलि मनुस्मृति पर सर्वश्रेष्ठ भाष्य माना जाता है। सर विलियम जोन्स ने इसकी प्रशंसा में लिखा है :
“किसी भी प्राचीन अथवा अर्वाचीन लेखक पर लिखी टीकाओं में यह सबसे संक्षिप्त, फिर भी सबसे स्पष्ट दिखलावे में सबसे कम परन्तु विद्वत्ता में सबसे अधिक और गम्भीरतम होते हुए भी अत्यन्त रोचक है।”
आश्चर्य नहीं यह कई बार प्रकाशित हो चुकी है।
कुलज़ूक ने मेधातिथि तथा गोविन्दराज की टीकाओं से बहुत कुछ ग्रहण किया है यद्यपि स्रोतों को शोर संकेत नहीं किया। दोनों टोकाकारों की वह्न कटु आलोचना करता है। निम्न ग्रन्थों और ग्रन्थकारों के मत कुल्लूकले उधुत किए हैं: गर्ग, गोविन्दराज, घरणीघर, भास्कर ( वेदान्त सूत्रभाष्य ), भोजदेव, मेधातिथि, वामन (काशिकाकार), भट्ट ( वार्तिककार ) तथा विश्वरूप | आरम्भिक श्लोकों में कुल्लू क ने अपना परिचय दिया है। उनका जन्म बंगाल के वारेन्द्र ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम भट्ट दिवाकर था । परन्तु उन्होंने अपनी टीका काशी में लिखी |
कुल्लूक के काल निर्णय में भी कठिनाई है। वे निश्चय ही भोजदेव, गोविन्दराज ( लक्ष्मी धर-रचित )
(जून-जुलाई, १९७४]
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कल्पतरु तथा हलायुध के अर्थात् ११५० ई०प० के बाद हुए हैं, क्योंकि इन सब का उनकी टीका में उल्लेख है। रघुनन्दन ( १४९० से १५७० ई० प० ) के दायतत्त्व और व्यवहारतत्त्व ग्रन्थों में बहुधा कुल्लूक के मत उद्धृत हैं । चण्डेश्वर ( १३०० से १३७५ ई० १० ) ने राजनीति रत्नाकर में उसके मत उद्धृत किये हैं। अत: इन का काल ११०० और १३०० ई० प० के बीच का है। ये बंगाली होते हुए भी जीमूतवाहन के प्रसिद्ध ग्रन्थ दायभाग से अपरिचित मालूम पड़ते हैं। परन्तु जीमूतवाहन का काल पूर्णतया निश्चित नहीं।
कुल्लू में एक निबन्ध स्मृतिनागर के नाम से लिखा था। इसके एक प्रकरण, श्राद्धसागर के हस्तलेख का एक अंश कलकत्ता संस्कृत कालेज में सुरक्षित है। इस अंश में उनके अशोचसागर तथा विवादसागर का उल्लेख है। संभवतः ये स्मृतिसागर के ही प्रकरण थे ।
माधवाचार्य प्रथवा विद्यारण्य –
माधवाचार्य असाधारण प्रतिभा के महापुरुष हुए हैं। वे विजयनगर सम्राट् बुक्क के कुलगुरु और मन्त्री थे। विजयनगर साम्राज्य को दुढ़ करने में उनका पर्याप्त योगदान है। गुरुवंश काव्य के अनुसार विद्यारण्य ने हो शक सं० १२५८ ( १३३५ ई० ) में विजयनगरी को स्थापना की। वृद्धावस्था में संन्यास लेने के उपरान्त वे विद्यारण्य मुनि के नाम से विख्यात हो गए थे। संस्कृत साहित्य के प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में उनकी देन है। उनके छोटे भाई सायण के नाम से प्रसिद्ध वेदभाष्य की पुष्पिकाओं में भाष्य का श्रेय माधव को ही दिया गया है। संभवत: भाष्य की योजना का आरम्भ उन्हीं के द्वारा हुआ, बाद में असम्पूर्ण कार्य सायण को सौंप कर माधव ने संन्यास ले लिया। शेष कार्य सायण ने सम्पन्न किया। पराशरस्मृति पर उनकी विशालकाय टीका, पराशर-माधवीय अनेक बार प्रकाशित हो चुकी है। बम्बई संस्करण में लगभग २३०० पृष्ठ हैं। टीका में आचार और व्यवहार पर एक विस्तृत निबन्ध है। पराशर स्मृति में व्यवहार पर केवल एक श्लोक था, जिसमें राजा को न्यायपूर्वक शासन करने का उपदेश था । इसी का आश्रय लेकर पराशर माघवीय का लगभग एक चौथाई भाग रचा गया है। पराशर स्मृति पर यह पहला भाष्य था। धर्मक स्मृतिकारों तथा पुराणों के अतिरिक्त निम्न ग्रंथों और ग्रंथकारों का माधव ने उल्लेख किया है :- अपरार्क, देवस्वामी प्रपञ्चसार, मेधातिथि विवरणकार ( वेदन्तसूत्र पर ), विश्वरूपाचार्य, शम्भु, विश्वस्वामी और स्मृतिचन्द्रिका |
इनका एक ग्रन्थ कालनिर्णय है। यह पराशरमाधवीय के बाद की रचना है। यह भारतीय पञ्चाङ्ग सम्बन्धी है |
उपर्युक्त ग्रन्थों में माधवाचार्य की जीवनी के विषय में पर्याप्त समाग्री है। उनके पिता का नाम मायण तथा माता का नाम श्रीमती था। सायण और भोगनाथ उनके छोटे भाई थे। उनका गोत्र भारद्वाज था। वे कृष्ण यजुर्वेदी ब्राह्मण थे और उनका चरण बौधायन सूत्र था। सायण के प्रायश्चित्त सुधानिधि की पुष्पिकाएं इन तथ्यों का समर्थन करती हैं । काल निर्णय के अनुसार माधव ने विद्यातीर्थ, भारतीतीर्थ तथा श्रीकण्ठ नामक गुरुओं के चरणों में विद्यार्जन किया था। वे बोर उनके भाई, सायण तथा भोगनाथ, विजयनगर के क्रमश: चार राजाओं के आश्रित रहे हैं, यथा बुक्क प्रथम, उसके भाई कम्प, कम्प के पुत्र समद्वितीय और अन्त में बुक्क के पुत्र हरिहर द्वितीय माधवीय धातुपाठ को पुष्पिका में उसे कम्पराज के पुत्र राज का महामंत्री बताया गया है। शक सं० १२७४ (१३५६ ई०) के बिगुण्टा दानपत्र के अनुसार भोगनाथ सङ्गम द्वितीय का नर्मसचिव था। १३८६ ३० के कानपत्र के अनुसार हरिहर द्वितीय ने विद्यारण्य श्रीपाद के समक्ष तीन वेदव्याख्याता पण्डितों को दान दिया । १३७८ ई० के अन्य अभिलेख में भी विद्यारण्य का संकीर्तन है ।। जनश्रुति के अनुसार विद्यारण्यमुनि का ६० वर्ष की १. पराशर-माधवीय १.६ व्याख्याता निबन्धूमिः ।
पराशरस्मृति: पूर्वर्न
२. काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, १० ३७६ ।
Q. Ind. Ant., XLV, p. 19.
४. काशीनाथ, विट्ठन ॠमन्त्र सार-भाष्य, दक्कन
परिपक्व अवस्था में सन् १३८६ ई० में निधन हुआ। सम्भवतः उनके साहित्य सेवा के वर्ष १३३० और १३८५ ई० के बीच हैं । पराशर-माधवीय इस काल के पहले दस-पन्द्रह वर्षों की कृति होगी। पण्डितसमाज की अनुश्रुति के अनुसार वेदों के भाग्य भी उन्हीं की रचना है, यद्यपि इन्हें सायण के नाम से प्रकाशित किया गया।
सम्राट् बुक्क के एक अन्य मन्त्री का नाम भी माधव था। परन्तु इसके शिल लेखों से स्पष्ट है कि यह चौण्डीभट्ट का पुत्र था, और मायणपुत्र माधव विद्यारण्य से भिन्न व्यक्ति था ।
बंगाल में धर्मशास्त्र के प्रामाणिक लेखकों में शूलपाणि का स्थान जीमूतवाहन के निकट है । याज्ञवल्क्यस्मृति पर उन्होंने दीपकलिका नामक संक्षिप्त टोका लिखी है। याज्ञवल्क्य के दायभाग प्रकरण पर पांच पृष्ठ की टीका है। दीपकलिक | में सूत्रकारों और स्मृतिकारों के अतिरिक्त निम्न ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का उल्लेख है :- कल्पतरु गोविन्दराज, मिताक्षरा, मेघातिथि, और विश्वरूप |
शूलपाणि ने धर्मशास्त्र सम्बन्धी विषयों पर अनेक निबन्धग्रन्थ लिखे, जिन्हें उन्होंने विवेक का नाम दिया :- एकादशी विवेक, दत्त कविवेक, दुर्गाटसक प्रयोगविवेक, दुर्गोत्सव विवेक, दोलायात्रा विवेक, प्रतिष्ठाविवे, प्रायश्चित्त विवेक, रासयात्राविवेक, व्रत कालविवेक, शुद्ध विवेक श्राद्धविवेक, संक्रान्तिविवेक और सम्बन्ध विवेक | इन में श्राद्ध विवेक सब से विख्यात है।
अपने ग्रन्थों की पुष्पिकानों में उन्होंने अपने को महामहोपाध्याय तथा सहुडियाल कहा है। बंगाल में राढ़ीय ब्राह्मणों की उपशाखा सहुडियाल राजा
कालेज हस्तलेख सं० १००, १८६९-७०० पू० ३७ ल :– कथं तहि माधवाचार्योर्वेद भाष्यादिषु सायणादे: स्वभ्रातुनम लिखितमिति चेत् कारुण्येन |
काणे, धर्मशास्त्र का इतिहास, १० ३८० बल्लालसेन के समय से निम्न श्रेणी की मानी जातो
। क्योंकि शूलपाणि ने चण्डेश्वर के रत्नाकर तथा कालमाधवीय का उल्लेख किया है अतः उनका काल १३७५ ई० के बाद का है। माधव के ग्रस्थ का विजयनगर से बंगाल में आगमन और प्रचार भी कुछ वर्ष बीतने पर हुआ होगा। शून्पाणि के ग्रन्थों का उल्लेख रुद्रघर, गोविन्दानन्द और वाचस्पति ने किया है । अतः वे १४६० ई० से पूर्व हुए होंगे। गोविन्दानन्य ( १५०० से १५४० ई०) ने तो श्रद्धाकौमुदी में उन्हें प्राचीन लेखक कहा है। शूलपाणि के प्रायश्चित्तविवेक को प्रतिलिपि बनारस में किसी शिववर्मा ने १४१० शसंवत (१४८७६०) में की थी । अतः उनका काल १३७५ ओर १४५० के बीच निर्धारित किया जा सकता है। नन्द पण्डित –
नन्दपण्डित की धर्मशास्त्र पर अनेक रचनाएं सुलभ हैं, परन्तु इन में कुछ ही प्रकाशित हो सकते हैं। सावत्राचार्य निर्दिष्ट व्याख्या मार्ग का अनुसरण करते हुए उन्होंने पराशरस्मृति की विद्वन्मनोहरा नामक टीका लिखो। विज्ञानेश्वर की याज्ञवल्क्य – मिताक्षरा टोका पर नन्द पण्डित ने प्रमिताक्षरा अथवा प्रतीताक्षरा टोका लिखी और दत्तकमीमांसा | परन्तु दत्तकमीमांसा में वैजयन्ती का उल्लेख है, अतः दोनों ग्रंथों की रचना साथसाथ की जा रही होगी। ये ग्रंय नन्दपण्डित को अन्तिम रचनाएं थीं वैजयन्ती रचनाकाल ग्रंथ में १६७९ विक्रमीय संवत् (१६२३ ई० ) दिया है ।
विष्णु धर्मसूत्र पर उनका विस्तृत भाष्य, वैजयन्ती अथवा केशव वैजयन्त प्रसिद्ध है। इसके अंग डा. जौली ने अपने विष्णु धर्मसूत्र के संस्करण में छापे थे । यह ग्रंथ विजयनगर के वसिष्ठ-गोत्रीय ब्राह्मण नरेश केशवनायक के गाग्रह पर नन्दपण्डित ने लिखा था। इसी लिए इसका नाम केशव-वैजयन्ती प्रचलित हुआ। अध्याय १०१ के अन्त में केशवनायक के बनारस में स्वर्गवास का जिक्र है। तदुपरान्त उसके पुत्र, वाकरस की ओर से नन्दपण्डित को सहायता मिलती रही, ऐमा ग्रंथान्त में सूचित है। इस भाष्य में निम्न ग्रंथों व ग्रंथकारों का उल्लेख है- देवस्वामी, बुध-भृति भवदेव, साधवाचार्य, वाचस्पति, सर्वज्ञ, मिताक्षरा की सुबोधिनी टीका, हरदत्त और हेमाद्रि | लेखक के अपने पाँच ग्रन्थों का भी उल्लेख इसमें है, यथा, विद्वन्मनोहरा, प्रमिताक्षरा, श्राद्ध कल्पलता, शुद्धिचन्द्रिका
नन्दपण्डित का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ दत्तकमीमांसा है। इसका अंग्रेजी अनुवाद सदरलैण्ड ने किया था । १८८५ में भरतचन्द्र शिरोमणि ने इसे अपनी व्याख्या
समेत सम्पादन करके छपाया था। प्रिवी कोंसिल ने अनेक मुरुदमों में मिथिला और बनारस प्रदेशों में दत्तक कानून में इसे प्रामाणिक माना है।
नन्द पण्डित के, टोकाओं को मिला कर, कुल १६ ग्रंथ ज्ञात हैं यथा १ विद्वन्मनोहरा, २. प्रमिताक्षरा ३. श्राद्धकरपलता, ४. स्मृतिसिन्धु, ५. शुद्धिचन्द्रिका, ६. तत्त्वमुक्तावलि ( स्मृतिविघु का सार), ७. नवरात्रप्रदोप, ८. हरिवंशविलास, ६. बालभूषण, १०. तीर्थकलता, कालनिर्णयकौतुक, १२. काशीप्रकाश, १३. माधवानन्द, १४ दत्तकमीमांसा, १५ वैजयन्ती और १६ माधवानन्द काव्य |
नन्दपण्डित के पूर्वज, लक्ष्मीघर, कर्णाटक में बीदर नगर के निवासी थे। वे बनारस जा बसे थे। उनकी छठो पीढ़ो में नन्दवण्डित हुए। नन्दपण्डित के नौवीं पोढो के वंशज, दुण्डिराज धर्माधिकारी, से डा. जौली ने इस परिवार के विषय में जानकारी प्राप्त की थी। हिन्दू ला के लेखक मण्डलिक ने भी इसी पीढ़ो के अन्य बंजजों से सामग्री एकत्र को थो । नन्दपण्डित के अपने ग्रंथों से पता चलता है कि उनके पिता राम पण्डित धर्माधिकारी थे । धर्माधिकारी उपाधि इस परिवार को कब, किसने दी, अज्ञात है । नन्दपंडित को अनेक सम्पन्न व्यक्तियों का आश्रय समयसमय पर प्राप्त होता रहा। श्रद्धकल्पलता उन्होंने साधारण (सहारनपुर ) के परमानन्द सह गिल के आग्रह पर रची, स्मृतिसिन्धुि महेन्द्र वंश के हरिवंश वर्मा की आज्ञा पर, तथा वैजयन्ती मधुरा के ब्राह्मण

नरेश केशवानन्द को आज्ञा परे ।
नन्दरण्डित के माघवानन्द काव्य का एक हस्तलेख संवत् १६५५ (१५६६६०) में लिखा गया था ।
डा. महता वसिष्ठ

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