Guru Teg Bahadur Ji

Written by Alok Mohan on April 17, 2023. Posted in Uncategorized

गुरू तेग बहादुर

“श्री गुरु तेग बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धान्त की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है”
गुरू तेग बहादुर का मूल नाम त्याग मल था। चेत, 1688 दि० में अमृतसर स्थान पर बीबी नानकी के घर उनका जन्म हुआ। उन के पिता छठे गुरु हरि गोबिंद थे। आठवे गुरू श्री हरि कृष्ण के देहान्त के पश्चात गुरू घर के कोषाध्यक्ष दीवान दुर्गामल, भाई मतिदास, भाई सीतादास, भाई गुरुदित्ता (भाई बुड्डा का वंशज) और मटन वासी दयाल दास (गुरू घर की पंचायत) ने अष्टम गुरू के मुख से निकले शब्द “बाबा बकाला” पर तर्क किया और इस निर्णय पर पहुंचे कि “बाबा बकाला “गुरु तेग बहादुर के लिए कहा गया संकेत है क्योकि गुरु हरि गोबिंद जी के अन्य पुत्रों का देहान्त हो गया था। उन्होंने गुरु हरि कृष्ण की माता बीबी सुलक्खनी को साथ लिया और अप्रैल, चेत, 1721 वि० में कीरत पुर पहुंचे। यहां कुछ मास रह कर उन्होंने गुरू घर को व्यवस्थित किया। छठे गुरू के बड़े पुत्र गुरूदिता के पुत्र धीर मल की गतिविधियां खतरनाक रूप धारण कर रही थी। गुरु तेगबहादुर की माता नानकी और धर्मपत्नी ने द्वारकादास को बकाला पहुंचने के लिए कहा। द्वारका दास ने गुरू घर की पंचायत को कीरतपुर से आमंत्रित किया।
11 अगस्त, 1664 ई० में दीवान दुर्गामल छिब्बर के नेतृत्व में सिक्ख संगत बकाला पहुंची। दीवान दुर्गामल गुरू परिवार के सदस्य माने जाते थे। संगत में कई महत्वपूर्ण व्यक्ति माता सुलक्खनी, गुरु हरिकृष्ण देव की माता. बाबा बुड्डा का पुत्र भाई गुरूदित्ता, द्वारकादास, बाबा मोहरी भल्ला का पुत्र आदि उपस्थित थे। दीवान दुर्गामल ने आठवे गुरू की अन्तिम इच्छा से सबको अवगत कराया। श्री गुरु तेग बहादुर को गुरु गद्दी पर सुशोभित किया गया। टीका की रस्म भाई गुरूदित्ता द्वारा सम्पन्न की गई। गुरूदित्ता के पुत्र हरिराय व पोते हरि कृष्ण ने सातवे और आठवे के रूप में गुरू गद्दियों को सुशोभित किया था। धीरमल गुरू गद्दी पर अपना अधिकार मानता था। इसके अतिरिक्त गुरु अर्जुन देव द्वारा सम्पादित गुरु ग्रन्थ साहिब की मूल प्रति भी उसके पास थी। गुरू पद पाने के, ये मुख्य दो कारण थे। गुरु तेग बहादुर को समाप्त करने का धीरमल ने षडयन्त्र रचा। उसके सौ गुण्डों ने ‘शीहां के नेतृत्व में गुरु तेग बहादुर के निवास स्थान पर आक्रमण कर दिया। शीहां की पहली गोली गुरू जी के कंधे से रगड़ती हुई निकली। गुरु जी शान्त खड़े रहे। दीवान दुर्गा मल, भाई मतिदास, कृपालचन्द व भाई दयाला गुरू जी के आस-पास खड़े हो गए और उन्हें शारीरिक सुरक्षा प्रदान की। शीहां दूसरी बार गोली भरने लगा। उसे पकड़ लिया गया। उससे बन्दूक छीन ली गई। अन्य हमलावर भाग गए।
कुछ विद्वानों के अनुसार नवम् गुरु तेग बहादुर प्रभु भक्ति में लीन बकाला में शान्त जीवन व्यतीत कर रहे थे। परन्तु भट्ट वहियों के अनुसार गुरु जी धर्म-प्रचार हेतु निरन्तर तीर्थ यात्राएं करते थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने विचित्र नाटक (श्री दशम ग्रंथ साहिब) में स्वयं इस बात की पुष्टि की है। उन यात्राओं में नवम् गुरु जी के परिवार के सदस्यों के साथ दत्त और छिब्बर परिवार के सदस्य सदैव उनके साथ रहते थे। यथा सं० 1713 वि० या 1656 ई० में गुरु तेग बहादुर गुरु हरिराय कोट से चले उनके साथ माता नानकी, उनकी पत्नी माता गुजरी, द्वारका दास छिब्बर का पुत्र दुर्गा मल, हीरा मल छिब्बर का पुत्र मतिदास, भाई पेरा का पुत्र चउपत राय छिब्बर, अरूराम दत्त का पुत्र कृपा राम दत्त थे (भट्ट वही, पूर्वी दक्खनी, ज्ञानी गरजा सिंह द्वारा सम्पादित) सं० 1719 सन् 1662 ई० में गुरु तेग बहादुर माघ शुदि पंचमी को प्रयाग राज पहुंचे। उनके साथ माता नानकी और दीवान दुर्गामल छिब्बर थे। प्रयाग में पंडा राम किशन की वही में श्री गुरु तेग बहादुर जी की यात्रा का वर्णन है। नवम् गुरू के हस्ताक्षर भी है। (मदनजीत कौर : ए स्टडी ऑफ पंडा वही, एन सोरस मट्रीयल फॉर द हिस्ट्री ऑफ द सिक्ख गुरू) पं० कृपा राम दत्त, माता गुजरी के भाई कृपालचन्द व माता गुजरी पटना में रहे। गुरुगद्दी पर सुशोभित होने के पश्चात गुरु तेग बहादुर, दीवान दुर्गामल, भाई चउपत राय तथा अन्य शिष्यों के साथ अयोध्या पहुंचे। वे सरयु नदी के किनारे राजा दशरथ की समाधि-स्थल के पास कई दिन रहे। (श्री गुरू तीर्थ संग्रह, श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा, कनखल)। मथुरा-वृन्दावन की यात्रा पर गुरू जी के साथ दीवान मति दास, कृपालचन्द, साहिब चंद व माता आदि थे। वे सभी पं० ब्रजलाल चौबे के घर मथुरा में ठहरें। वृंदावन, गोकुल, गोवर्धन आदि कृष्ण लीला के सभी स्थानों के उन्होंने दर्शन किए, विश्राम घाट पर स्नान व दान किया। तीन रात वे सभी वहां रहे। पाठोहार की संगत गुरु जी को मिली। कथा-कीर्तन की मर्यादा देख सभी हैरान हुए। (त० गु० खा०)
दीवान दुर्गामल ने गुरू तेग बहादुर से प्रार्थना की “मैं बूढ़ा हो गया हूँ और सख्त दायित्व निभाने में असमर्थ हूं। अतः मुझे जिम्मेदारी से मुक्त कर दीजिए और मेरे भतीजो भाई मतिदास को दीवान व सतीदास को मंत्री नियुक्त कर दीजिए। दीवान दुर्गामल ने भाई बुल्ला राय के सुपुत्र भाई दयाला की भी सिफारिश की कि उसे उपयुक्त स्थान पर लगा दीजिए। भाई बुल्ला राय श्री गुरु हरि गोविंद द्वारा चलाए धर्म युद्ध में शहीद हुए थे।
गुरू तेग बहादुर जी के पंच प्यारे भाई मतिदास, भाई दयाला, भाई गुरूदित्ता, भाई उदा और भाई जेता थे।
औरंगजेब के अत्याचार पराकाष्ठा पर पहुंच गए थे। यदुनाथ सरकार के अनुसार अप्रैल 1669 ई० में सभी प्रान्तीय गर्वनरों को आदेश दिया गया था कि हिन्दुओं के सभी धर्म स्थल और विद्यालय नष्ट कर दिए जाएं। काशी, सोमनाथ, मथुरा के मन्दिर धराशायी कर दिए गए थे मेवाड़ में 240, जयपुर में 67 और कश्मीर में असंख्य मन्दिर तोड़कर मस्जिदें बनायी गई। हिन्दुओं पर इन अत्याचारों की प्रतिक्रिया तीन रूपों में हुई। कुछ असहाय परिवारों ने लाचार होकर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। कुछ युवक पलायन कर दूर भाग गए और कुछ सिर पर कफन बांध कर लड़ने-मरने के लिए संगठित होने लगे। महाराष्ट्र में शिवाजी, बुंदेलखण्ड में छत्रसाल, मथुरा में गोकुल जाट के नेतृत्व में जाटो ने, नारनौल में सतनामियों ने विद्रोह कर दिया। पृथ्वीनाथ कोल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर में लिखते है कि इफ्तखार खा पण्डित वर्ग पर असहनीय अत्याचार कर रहा था क्योंकि भारतीय संस्कृति की रक्षा और वैष्णव धर्म का प्रचार यही वर्ग कर रहा था। नानक पथ का प्रचार भी ब्राह्मण (मोहयाल) वर्ग कर रहा था। अतः औरंगज़ेब का सर्वाधिक कोप इस वर्ग पर पड़ा। पं० कृपा राम दत्त से कश्मीर की दुर्दशा छिपी नहीं थी। वे लगभग 16 वर्ष पश्चात कार्तिक की पूर्णिमा को गुरू नानक जन्म दिवस पर मार्तण्ड तीर्थ (मट्टन साहिब) पहुंचे। “कृपा राम, शिवराम, चेलाराम बेटे अरूराम दत्त, माता सुरसती, कृपा राम की पत्नी सुमित्रा देवी सं० 1727 कार्तिक मासे पूर्णिमा को मारतंड आए” (पंडा वही ईश्वर दास, मार्तण्ड)
हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचारों से कृपा राम दत्त आहत हो उठे। हिंदु उन्हें अपना दुख सुनाते और आपदा से उभरने की योजनाएं बनाते। संगत के निर्णय के अनुसार 16 व्यक्तियों का शिष्ट मण्डल 25 मई, 1675 ई० को पं० कृपा राम के नेतृत्व में गुरू जी के पास आनन्दपुर आया। गुरू तेग बहादुर ने कहा “उन्हें कहो, हमारा गुरू तेग बहादुर है यदि गुरू जी इस्लाम धर्म कबूल कर लेते है तो हम भी कर लेंगे।’ हिंदुओ को संगठित करने और उनका मनोबल बनाए रखने के लिए गुरू जी ने पं० कृपा राम को कशमीर भेज दिया। गुरू जी ने दीवान दुर्गामल को कहा “दीवान जी तैयारी करिए, हमने गोविंद दास को गुरयाई देनी है” दीवान दुर्गामल ने गुरयाई की सामग्री गुरू जी के आगे रखी बाबे वुड्डे के वंशज राम कुइर श्री गोविंद के भाल में चंदन का टीका किया। गुरू तेग बहादुर का वचन हुआ, “भाई सिक्खों, आगे से असां की थाई श्री गोबिंद दास को गुरू जानना। अंसा हुन धर्म की रक्षा लई कश्मीरी ब्राह्मणां के साथ दिल्ली जाना है।
गुरु तेग बहादुर ने कैद में एक दोहा गुरू गोबिंद सिंह को उनकी परीक्षा के लिए भेजा :
संग सखा सभ तज गए। कोइ न निभइ साथ। कहु नानक या विपद में टेक एक रघुनाथ ।।

गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा समुचित उत्तर से गुरू तेग बहादुर ने अनुभव किया कि उन्हें एक सुयोग्य उत्तराधिकारी मिल गया है।
सावन, कृष्ण पक्ष चौथी, सं० 1732 को गुरू जी कोट हरिराय अपने बड़े भाई सूर्यमल के पास पहुंचे। सिरसा नदी पार करके वे रांगड़ो के गांव में शिष्य निगाहिए के घर ठहरे। वहां से मुसलमानों ने उन्हें पकड़ लिया। हिंदुओं ने उन्हें छुड़ाने की कोशिश की, परन्तु उनकी सुनवाई नहीं हुई। भाई गुरूदित्ता का शव दिल्ली में अन्यत्र मिला। सभी शहीदों का भोगल (दिल्ली) के स्थान पर यमुना के किनारे दाह-संस्कार कर दिया। गुरु तेग बहादुर की भी असहनीय यातनाएं देने के बाद हत्या कर दी गई। उनके धड़ को एक सिक्ख लक्खी दास ने अपने घर में रख कर आग लगा दी। खुल्लम-खुल्लाह उनका संस्कार करना मुश्किल था। उनके शीश को लेकर भाई जैता, भाई आज्ञा, भाई नातूराम छीपा, भाई उदय सिंह राठौड़ शुक्ल पंचमी मग्धर को दिल्ली से चलकर शुक्ला दशमी को चक्क नानकी पहुंचे। गुरू तेग बहादुर का शीश श्री गोबिंद दास को सौंपा गया। दाह संस्कार शुक्ला एकादशी को हुआ (भट्ट वही, मुलतानी सिंधी, खाता उदासियों का)।
आधुनिक इतिहासकारों के अनुसार “गुरु गोबिंद सिंह उस समय 9 वर्ष के थे। कुछ इतिहासकार भट्ट वहियों को विश्वसनीय मानते हुए भी उनके द्वारा दी जन्म तिथि को ना मानकर गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म सन् 1666 ई० मानते हैं। परन्तु पुराने ग्रंथों के अनुसार गुरू जी अपने पिता के बलिदान के समय संस्कृत, हिन्दी, गुरमुखी, फारसी के ज्ञाता हो गए थे और विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों का उन्होंने गहन अध्ययन कर लिया था।

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Alok Mohan

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